Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Pushp ki Aatmakatha”, “पुष्प की आत्मकथा” Complete Essay for Class 9, 10, 12 Students.
पुष्प की आत्मकथा
Pushp ki Aatmakatha
मैं पुष्प हूँ-जी हाँ पुष्प। प्रकृति माँ का सबसे सुकुमार, कोमल, भावुक और सुदर बेटा-पुष्प। उपवन मेरा घर है। हवा मेरी सहचर है। मेरी सुगंध-सा अदृश्य, कोमल विस्तृत चारों ओर फैला हुआ मेरा संसार है। ऐसा संसार जिसमें आकर कोई भी व्यक्ति भाव से भरकर आनंद से मस्त हुए बिना नहीं रह पाता। यह कहे बिना भी नहीं रह पता कि बड़े सुगंधित पुष्प खिले हैं यहाँ! जी हाँ, ऐसा ही महक और मादकता भरा है मुझ पुष्प का संसार। उतना ही सुंदर और मुक्त है।
मैं सुंदरता का साकार रूप हूँ। अपनी सुंदरता से सारे वातावरण को तो सुंदर बना ही देता हूँ। उसकी चर्चा भी दूर-दूर तक फैला दिया करता हूँ जी हाँ, मुझे छूकर मेरी सुगंध को अपने अदृश्य पंखों में भरकर यह छलियापवन दूर-दूर तक मेरी सुंदरता और सुगंध का ढिंढोरा पीट आया करता है तब लोग मेरी ओर आगे आते हैं। मुझे तोडकर ले जाते हैं। कोई गलदस्ते में सजाकर अपने घर की शोभा बढ़ाता है, तो कोई हार में पिरोकर मुझे अपने गले का हार बना लिया करता है। कभी मैं गजरा बनकर किसी संदरी के जूडे पर धरकर उसकी सुंदरता में चाँदनी भर देता हूँ, तो कभी अकेला ही बालों में टाँगा जाकर सभी का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया करता हूँ। कई बार सुंदरियों के कानों में झूलकर उनके गोरे कोमल गालों को चूम लेने का सौभाग्य भी पा लिया करता हूँ। भगवान के भक्त और पुजारी मुझे भगवान के चरणों पर चढ़ाकर आनंद पाते हैं, तो निराश प्रेमी-पेमिकाओं के मजारों पर अर्पित कर एक तरह की शांति प्राप्त करते हैं। कई बार मुझे गुलदस्ते या हार के रूप में विशिष्ट लोगों को भेंट में भी दिया जाता है। पुष्प पर ‘एक भारतीय आत्मा’ नामक क्रांतिकारी कवि की वे पंक्तियाँ आज तक याद हैं, कि जो मुझे देखकर मेरी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके होंठो पर मचल उठी थीं।
‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ पर जावें वीर अनेक।
लेकिन ऐसा मान-सम्मान और प्रशंसा-गान मुझे ऐसे ही प्राप्त नहीं हो गया। इसके लिए मुझे बीज के रूप में कई दिनों तक धरती माँ की माटी भरी गोद में घुटते साँसों के साथ बंद रहना पड़ा है। आप अनुमान नहीं लगा सकते कि हर पल अपने साँसो को घुटते और तन को गलते-सड़ते देख कर तब मेरे मन पर क्या बीता करती थी। उस पर सूर्य की किरणे जब ऊपर से धरती को गरमा और झुलसा दिया करती, तब धरती के भीतर भी कई बार पसीने से तर होकर दम और भी घुटने लगता है। तब अचानक कहीं से पानी की कोई धार आकर उस गरमी से तो राहत पहुँचाती पर सड़ गल रहे तन की रक्षा उससे भी न हो पाती। कई बार किसी खाद के कड़वे कसैले स्वाद भी चखने पड़ते, कई बार कडवी तीखी दवाइयाँ निगलकर मितली-सी भी आने लगती। कई बार ऐसा भी हुआ कि माली या किसान की खरपी-फावड़े ने मिट्टी के साथ-साथ मेरे तन मन को भी उलट-पलट कर रख दिया। इस प्रकार की स्थितियों का सामना करते समय मन में क्या गुजरती है, न तो वह सब पता पाना ही संभव है और न उस सब का आप अनुमान ही लगा सकते हैं।
लेकिन यह सब क्या? एक दिन मैंने अपने सड़-गल चुके शरीर में धरती माँ के आर्शीवाद में एक नया जोश, नया उत्साह अंगडाइयाँ लेते हुए अनुभव किया। मुझे लगा कि अपने अंगों का विस्तार-फैलाव करते हुए धरती माँ से उछलकर उसकी गोद में आ रहा हूँ। मैंने माली से लगने वाले मनुष्य को किसी से कहते हुए सुना, बड़े सुंदर अंकुर फूट रहे हैं इस बार तो।’ तो मुझे समझ आया जैसा मेरा नाम ‘अंकुर’ है। वह एक जन्म-नाम हुआ करता है न, वैसा ही कुछ मेरा भी था। कुछ दिन और बीतने पर उस मनुष्य के मुंह से फिर सुन पड़ा, ‘कितना बढ़िया है यह पौधा’। बस, मैने समझा कि मैं अंकुर नहीं, पौधा हूँ – पौधा। अब वह मनुष्य मेरा बड़ा ध्यान रखने लगा। ठीक समय पर पानी तो पिलाता ही, कुछ खाद-सी भी दो-एक बार डाल गया। बड़े ध्यान और सावधानी से निराई-गोड़ाई करके उग आई। फालतू घास, खरपतवार आदि को निकाल देता। इस प्रकार पौधे के रूप में लगातार बड़ा होता गया। एक दिन मैंने अपनी पैरों में कुछ गाँठे-सी पड़ने का अनुभव किया। बस, चिंता में पड़ गया कि यह नई मुसीबत कौन-सी आने वाली है? अपने इस प्रश्न का उत्तर अभी प्राप्त भी नहीं कर पाया था कि एक बार मैंने उन गाँठो के धीरे-धीरे चटकने की आवाजें सुनीं। ‘हाय राम यह क्या होने जा रहा है? मैं चौंक गया; लेकिन किसी के आने की आहट पाकर कुछ बोला नहीं, बस चुपचाप देखने लगा।
देखा कुछ क्षण बाद वह आहट मेरे पास रुक गई है। आने वाला मेरा रखवाला माली ही था। वह मेरी दशा देखकर मुस्करा उठा और लगातार मुस्कराता गया। फिर होंठों-ही-होंठों में बोला ‘सुबह तक ये कलियां अवश्य ही खिलकर मुस्कराता फूल बन जाएँगी।’ फल। ‘फल।’ एक बार मैं फिर चौंक पड़ा। पहले बीज, फिर अंकुर उसके बाद पौधा, फिर वे गाँठे-सी चटकती हुई और अब फूल? पता नहीं क्या-क्या बनना है अभी मुझे? लेकिन तब तक रात ढल आई थी, सो वह माली चला गया। मेरी चिंता कम नहीं हुई। रात भर चिंता में डूब रहा। जैसे ही प्रभात काल की मंद पवन का झोंका आया उसका मधुर-कोमल स्पर्श पाकर मैं पूरी तरह से खिलकर जैसे अपनी ही सुंगध से नहीं उठा। पवन के तौर और झोंके आकर मुझे लोरियाँ देने लगे-देते रहे लगातार। जी हाँ, अब मैं खिलकर पुष्प जो बन चुका था। जी बस इतनी सी ही रही है मेरी आत्मकथा।