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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Apne Haath Par Vishvash”, “अपने हाथ पर विश्वास” Complete Essay for Class 9, 10, 12 Students.

अपने हाथ पर विश्वास

Apne Haath Par Vishvash

 

खुदी को कर बुलंद इतना

कि हर तकदीर से पहले

खुदा बंदे से ये पूछे-

बता तेरी रजा क्या है?’

शायर की उपर्युक्त पंक्तियाँ स्वावलंबी मनुष्य के बारे में है। जिनका आशय है कि स्वावलंबी या आत्मनिर्भर व्यक्तियों के सामने ईश्वर को भी झुकना पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों का भाग्य लिखने से पहले ईश्वर को भी उनसे पूछना पड़ता है-‘बता तेरी रज़ा (इच्छा) क्या है।

परमुखापेक्षी व्यक्ति न तो स्वयं उन्नति कर सकता है और न ही अपने समाज एवं राष्ट्र के किसी काम आ सकता है। स्वावलंबन का अर्थ है- अपना सहारा आप बनना, आत्मनिर्भर बनना। परमुखापेक्षी व्यक्ति सदैव दूसरों का मुँह देखता है।

संसार में परावलंबी अर्थात् परमम् सुखम्’

परावलंबी तो हमेशा आश्रय देने वालों के अधीन बनकर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में तो उसका आत्मसम्मान जीवित रह पाता और न ही आत्म-विश्वास। वह दूसरों के हाथ की कठपतली बनकर कुंठा, त्रास, यातना, पीड़ा, अपमान और उपेक्षा का जीवन जीने पर विवश हो जाता है। इसीलिए परावलंबन को घेर पाप माना गया है।

स्वावलंबी व्यक्ति की सही अर्थों में जान पाया है कि दुख-पीड़ा क्या होते हैं। और सुख-सुविधा का क्या मूल्य एवं महत्व, कितना आनंद और आत्म-संतोष हुआ करता है। विश्व और समाज में व्यक्ति का मूल्य औश्र महत्व हुआ करता है, मान-सम्मान किसे कहते हैं, अपमान की पीडा क्या होती है, अभाव किसी तरह से व्यक्ति को मर्माहत कर सकते हैं, इस प्रकार की बातों का यथार्थ भी वास्तव में आत्मनिर्भर व्यक्ति ही जान-समझ सकता है। परावलंबी को तो हमेशा मान-अपमान की चिंता त्यागकर, हीनता के बोध से परे रहकर, इस तरह व्यक्ति होते हुए भी व्यक्तिहीन बनकर जीवन गुजार देना पड़ता है। सहज, सरल मानव बनकर रहने, मानवीय सम्मान और गरिमा पाने की भूख हर मनुष्य में जन्मजात रूप से रहा करती है। स्वावलंबी बनकर ही उसे पूरा किया जा सकता है।

स्वावलंबी होने का यह अर्थ नही कि मनुष्य के पास बड़े-बड़े ऊँचे-ऊँचे राजमहल हों। अपार धन-संपत्ति हो, ऐसा नहीं होने पर यदि मनुष्य के पास बडी-बडी, ऊँची-ऊँची गति विधियों पर अपना अधिकार नहीं तो उन सबका होना न होना बेकार है। स्वतंत्र तथा इच्छानुसार कार्य करके ही मनुष्य अपने साथ-साथ, आस-पड़ोस, गली-मुहल्ले, समाज और पूरे देश का हित-साधन कर पाने में सफल हो पाया करता है। एक स्वावलंबी व्यक्ति की मुक्ति भाव से सोच-विचार करके उचित कदम उठा सकता है। उसके द्वारा किए गए परिश्रम से बहने वाली पसीने की प्रत्येक बूंद मोती के समान बहुमूल्य हुआ करती है। जिसे सच्चा सुख एवं आत्म संतोष कहा जाता है, वह केवल आत्म-निर्भर व्यक्ति को ही प्राप्त हुआ करता है। इन्ही सब तथ्यों का ध्यान रखते हुए भी कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में एक पंक्ति कही है:

‘स्वावलंबन की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष अर्थात् स्वावलंबन से भरे सामान्य स्तर पर जिए जाने वाले जीवन पर भी कुबेर का खजाना न्यौछावर किया जा सकता है। स्वावलंबी व्यक्ति ही आत्मचिंतन करके अपने लोक के साथ परलोक का सुधार भी कर सकता है। ऐसे व्यक्ति ही जीवन-समाज के अन्य लोगों के लिए अपने महल में चटाईयाँ बुनकर उनकी आस से अपना गुजारा किया करते थे। संत कबीर कपड़ा बुनकर अपने परिवार का पालन किया करते थे जबकि गुरू नानक देव अपने पत्रों की नाराजगी मोल लेकर भी धर्मशाला (गुरूद्वारे) की चढत को हाथ नहीं लगाया करते थे। श्री कृष्ण का गौएँ चराना, संत रैदास और दादूद्याल को जूते गाँठना जैसे कार्य किस तरह संकेत करने वाले हैं। निश्चय ही स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देने वाले हैं। इनका महत्त्व भी उजागर करने वाले हैं।

अग्रेजी में एक कहावत है- “God help those who help themselves” जो व्यक्ति स्वावलंबी नहीं होता, वे ही अपनी प्रत्येक असफलता के लिए भाग्य दोष रहते हैं। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-‘दैव-दैव आलसी पुकारा’। यहाँ परावलंबी वही ही आलसी तथा भाग्यवादी कहा है। स्वावलंबी मनुष्य सफलता या असफलता की परवाह किए बिना अनवरत प्रयासरत रहते हैं और बाधाओं, विघ्नों को चीरते हुए अपना मार्ग प्रशस्त करते जाते हैं कंटकाकीर्ण पथ पर दृढता से आगे बढ़ते जाते हैं। पथ के शूल उनके कदमों को रोक नही पाते और अंतत: सफलता उनका वरण करती है। स्वावलंबन के बल पर ही शिवाजी ने थोडे से सिपाहियों के साथ औरंगजेब की विशाल सेना को नाकों चने चबा दिए थे, एकलव्य ने गुरू द्रोणाचार्य द्वारा उपेक्षित किए जाने पर भी धनुर्विद्या में अद्भुत कौशल प्राप्त किया था। नेपोलियन जैसा साधारण व्यक्ति एक महान सेनानायक बन पाया था। एक किसान तथा बढ़ई का पुत्र अब्राहिम लिंकन अमेरिका का राष्ट्रपति बन पाया था। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।

आज का व्यक्ति अधिक से अधिक धन और सुख के साधन तो चाहता है। पर दूसरों को लूट-खसोट और टाँग नीचे या पीछे खींचकर, अपने परिश्रम और स्वयं अपने आप पर विश्वास एवं निष्ठा रखकर नहीं। यही कारण है कि आज का व्यक्ति स्वतंत्र होकर भी परतंत्र और दुखी है। इस स्थिति से छुटकारे का मात्र एक-ही उपाय है और वह है स्वावलंबी बनना, अन्य कोई नहीं। दिनकर जी ने ठीक ही कहा है-

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पिया रे ।

योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे।”

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