Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Bharat aur Israel Sambandh ”, ”भारत और इस्राइल सम्बन्ध” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
भारत और इस्राइल सम्बन्ध
Bharat aur Israel Sambandh
शीत युद्ध की समाप्ति के उपरान्त हमारे देश की राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत विदेश नीति में भी परिवर्तन आया। भारत-इस्राइल राजनयिक सम्बन्धों की स्थापना को इनमें सस महत्त्वपूर्ण परिवर्तन माना जाता है। इन सम्बन्धों की पृष्ठभूमि 1991 में उस समय जब सयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका की पहल पर इस्राइल के सम्बन्ध में लाए गए प्रस्ताव पर भारत ने अपना समर्थन दिया। यह समर्थन आलोचकों के गले के नीचे नहीं उतरा। उन्होंने इसे अनैतिक करार देते हुए कहा कि एक ओर इस्राइल को प्रतिष्ठा प्रदान करना और दूसरी ओर फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चे को समर्थन देना हमारी अन्तर्विरोधी विदेश नीति अन्तर्विरोध उजागर करता है, किन्तु बाद के घटनाक्रम ने दर्शाया कि तात्कालिक रूप से अन्तर्विरोधी होने के वजूद भारत की विदेश नीति में आए इस झुकाव का अपना ही तर्क था। सन् 1962 के आरम्भ में भारत और इस्राइल के मध्य विधिवत राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हुए। इसे शांति की स्थिति बहाल करने में भारत का योगदान माना गया।
भारत ने फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चे को कभी आतंकवादियों का गिरोह नहीं माना था। बल्कि स्वतंत्रता सेनानियों की टुकडी माना था। अभी हाल में सम्पन्न इस्राइल-फिलिस्तान समझौते में कहा गया कि फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा आतंकवाद के प्रयोग का परित्याग करेगा। इस तरह फिलिस्तीनी स्वयं को ही आतंकवादी मान बैठे हैं।
आज इसाइल अपने पड़ोसियों के साथ पहले जैसी निरन्तर टकराव की स्थिति में नहीं है और न ही उसमें पूर्व जैसी यहूदीवादी आक्रामकता ही दृष्टिगत हो रही है। भारत के साथ उसके राजनयिक सम्बन्धों में भी अभी तक कोई कटुता देखने को नहीं । मिलती है। इसलिए वह चाहे पश्चिम एशिया में भारत के मित्र की भूमिका न भी निभाए। पर यह सही है कि उसकी आक्रामकता सीधे-सीधे भारत के विरुद्ध लक्षित नहीं रही है। ऐसे में दोनों देशों के मध्य पारस्परिक सहयोग की सम्भावनाओं पर विचार करना अप्रासंगिक न होगा।
भारत और इस्राइल के पारस्परिक सहयोग की सर्वाधिक सम्भावना प्रतिरक्षा के क्षेत्र में है। इस सम्बन्ध में थोड़ी-बहुत शुरूआत हो भी चुकी है। भारत इस्राइली सैन्य प्रविधि और दक्षता का लाभ उठा कर अपनी सैन्य सज्जा को अधुनातन बना सकता है। इस्राइली सेना को पथरीले और रेतीले दोनों ही क्षेत्रों में लड़ने का जो अनुभव है, वह भारतीय सैनिकों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है; क्योंकि इन्हें भी ऐसे ही क्षेत्रों में युद्ध करना पड़ सकता है। इसी प्रकार आतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में भी भारत इस्राइल के अनुभव से लाभ उठा सकता है। विशेष कर देश में आतंकवाद की समस्या को देखते हुए यह सहयोग विशेष लाभप्रद हो सकता है। इस्राइल को न केवल आतंरिक और बाहरी आतंकवाद से लड़ने का लम्बा अनुभव है; अपितु उसके पास अच्छी गुप्तचर तकनीकों के अतिरिक्त विशेष सुरक्षा दस्तों के विशिष्ट प्रशिक्षण की व्यवस्था भी है।
विश्व राजनीतिक दृष्टि से भी इस्राइल के साथ भारत के सम्बन्धों की महत्ता है। पाकिस्तान के साथ हमारे सम्बन्धों में जो निरन्तर गिरावट आती रही है, उसका प्रमुख कारण सीमा पार से और हमारे देश में गुप्तचर तथा प्रशिक्षित आतंकवादी भेज कर तोड़। फोड़ करना है। पाकिस्तान इस्लामी आतंकवाद के खतरे को, जो कि अब विश्वव्यापी । परिघटना बन चुका है, हमारे द्वार तक लाने में भी नहीं हिचकेगा। इस्राइल को इस्लामी आतंकवाद से लोहा लेने का जो अनुभव प्राप्त है, भारत के लिए वह सैन्य दृष्टि से ही नहीं, भू-रणनीतिक और राजनयिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
आर्थिक क्षेत्र में भारत इस्राइल सहयोग अभी कुछ विशेष प्राप्त नहीं कर पाया है। पर भविष्य में इस सहयोग से भारत के लाभान्वित होने की सम्भावना है। हमारे आर्थिक । उदारीकरण से अन्तर्राष्ट्रीय यहूदी उद्योगपति हमारी ओर आकर्षित होंगे, ऐसी सम्भावना की जा रही हैं। इस के अतिरिक्त कृषि और कृषि प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भी दोनों देशों का सहयोग काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। इस्राइल के पास शुष्क कृषि तकनीक जो विश्व में बहुत कम देशों के पास है। हमारे रेगिस्तानी क्षेत्र में कृषि उत्पादन बढ़ान में यह तकनीक काफी उपयोगी सिद्ध होगी।
स्पष्ट है कि इस्राइल के साथ हमारे सम्बन्धों से हमें लाभ ही मिलेगा। दोनों देशों अन्तर्राष्ट्रीय प्रक्रिया के प्रकाश में देखना ही हितकर होगा। आज हम रह रहे हैं जिसमें राष्ट्रीयताओं और भौगोलिक सीमाओं का मोह छोड़ यह दूसरे की तरफ खिंचे चले जा रहे है। एशिया, अफ्रीका और यूरोप के राष्ट्रों में लोकतंत्रीकरण की लहरें उठ रही है। इसके साथ ही यह एक ऐसी स्थिति भी है जिसमें के ‘सुरक्षा कवच’ के विकासशील राष्ट्रों को वंचित कर दिया है। भारत राजनयिक स्थितियाँ काफी कुछ इसी ‘सुरक्षा कवच’ से निर्धारित होती थीं। अत: भारत को इस्राइल के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर न तो कोई अपराध ग्रंथि पालनी चाहिए और न ही इसे भारत की आर्थिक-राजनीतिक विवशता बताया जाना चाहिए। साथ ही भारत को जनतांत्रिक अरब जनगण की मुक्ति के संघर्षों को अपना समर्थन जारी रखना चाहिए तथा इस्राइल में यदि पुनः यहूदीवाद पनपता है, तो उसके विरोध के लिए तत्पर रहना चाहिए।