Hindi Essay-Paragraph on “Vishv aur Pamanu Yudh” “विश्व और परमाणु युद्ध” 900 words Complete Essay for Students of Class 10-12 and Competitive Examination.
विश्व और परमाणु युद्ध
Vishv aur Pamanu Yudh
महाभारत के युद्ध में प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ अश्वत्थामा निराश, हताश और असहाय होकर पांडव-पक्ष के समूल विनाश के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता है तो व्यास उद्विग्न हो उठते हैं और
अश्वत्थामा कहते हैं-
ज्ञान क्या तुम्हें परिणाम इस ब्रह्मास्त्र का?
यदि यह लक्ष्य सिद्ध हुआ ओ नर पशु!
तो आगे आने वाली सदियों तक
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति नहीं होगी
शिशु होंगे पैदा विकलांग और कुष्ट ग्रस्त
सारी मनुष्य जाति ही बौनी हो जाएगी।
गेहूं की बालों में सर्प फुफकारेंगे
नदियों में बहकर आएगी पिघली आग
–धर्मवीर भारत (अंधाडग)
पता नहीं ब्रह्मास्त्र के घातक परिणाम की जानकारी प्रतिशोध भावना में अंधे हुए अश्वत्थामा को धीया नहीं। किंतु आज की दुनिया का मनुष्य परमाणु युद्ध के विनाशकारी और प्रलयंकर परिणाम से अवश्य अवगत है। वह जानता है कि जिस दिन परमाणु बम का यह ‘जिन्न’ किसी अविवेकी अश्वत्थामा ने बोतल से मुक्त कर दिया, उस दिन दुनिया में महाप्रलय का-सा दृश्य उपस्थित हो जाएगा। गेहं की बालियां में सर्प फुफकारेंगे और नदियों में जल के स्थान पर आग पिघल-पिघलकर बहेगी। वह यह भी जानता है कि परमाणु शस्त्रों का यह ब्रह्मास्त्र किसी अलौकिक शक्ति के वरदान स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि मनुष्य ने उसे स्वयं बनाया है। इतना ही नहीं आज संसार के सभी छोटे-बड़े देशों में होड़ लगी हुई है, कि कौन कितने अधिक जिन्नों का निर्माण करें। यह विडंबना नहीं तो और क्या है?
क्या है इतिहास इस ‘जिन्न’ का थोड़ा इस पर भी विचार कर लें। 1845 में सिर्फ अमेरिका के पास ही आण्विक शक्ति थी। 1849 में रूस ने भी आण्विक विस्फोट कर दिया। इसके तीन वर्ष बाद ब्रिटेन भी आण्विक शक्ति से संपन्न राष्ट्र बन गया, फिर फ्रांस और 1964 में चीन ने भी इसे प्राप्त कर लिया। न्यूक्लियर ‘ क्लब में सम्मिलित होने वाला भारत छठा देश था। जिसने 1974 ई. में शांतिपूर्ण भूमिगत विस्फोट किया। अब तो स्थिति ऐसी है कि अनेक छोटे-बड़े देश जिनके पास न्यक्लियर बम बनाने की क्षमता व साधन है। 12 राष्ट्र आगामी छह वर्षों के भीतर यह क्षमता प्राप्त करने की स्थिति में है। पाकिस्तान, इजराइल, इराक और लिनिया जैसे देश इसे बनाने के लिए कितने उतावले हैं, यह हम भी जानते हैं।
आज दुनिया में विशेष रूप से एशिया में कहीं न कहीं युद्ध की स्थिति अवश्य बनी रहती है। इजराइल और अरब संघर्ष तो अब शाश्वत-सा नजर आने लगा है। जून 1981 में इजराइल ने आत्मरक्षा के नाम पर इराकी संयंत्र पर आक्रमण करके उसमें और अधिक उबाल ला दिया। इराक और ईरान के बीच लंबी अवधि तक युद्ध चला। पूर्व में वियतनाम वर्षों युद्ध की अग्नि में झुलसता रहा। कन्पूचिया भी अशांत रहा। पाकिस्तान को प्राप्त हो रहे अमेरिकी हथियारों की प्रचुरता ने भारतीय महाद्वीप की स्थिति को विस्फोटक बना दिया है। अफगानिस्तान में रूस की उपस्थिति अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्रों की आंख की किरकरी बन गई थी। दिए गोशिया पर बन रहे अमेरिका सैनिक ने हिंद महासागरीय तट के देशों की नींद हराम कर दी है। अमेरिकी संचयन को ही सब कुछ समझने लगा है और रूस ने भी अपनी जनता को आगाह कर दिया है कि निकट भविष्य में परमाणु बम का मुकाबला करने के लिए उसे समृद्ध रहना चाहिए और कष्ट सहने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। कहने का आशय यह है कि दुनिया भौतिक और मानसिक रूप से परमाणु तैयारी में जुटी है। सचमुच, इससे पहले परमाणु युद्ध का खतरा इतना नजदीक कभी नहीं आया था।
इस परमाणु युद्ध के खतरे को समझकर विश्व के अनेक विवेकशील नेताओं ने निरंतर प्रयत्न किया कि परमाणु शस्त्रों के निर्माण पर रोक लगाई जाए। 1945 में हिरोशिमा पर बम गिराए जाने के तीन महीने बाद ही परमाणु विस्तार को रोकने की पेशकश शुरू हो गई थी और तब से लेकर आज तक इस दिशा में तीस से अधिक प्रयत्न हो चुके हैं। 1978 में परमाणु शस्त्रों के विस्तार पर रोक संधि हुई थी। इस संधि पर 144 देश ने हस्ताक्षर किए थे। लगभग 50 राष्ट्र ऐसे थे, जिनको इस संधि में बड़ी शक्तियों का षड्यंत्र नजर आता था जो इस शक्ति को अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं। यह शक निराधार नहीं था, अन्यथा क्या कारण है कि अमेरिका ने इसके बाद भी अनेक राष्ट्रों को न्यूक्लियर ऊर्जा कार्यक्रम में सहयोग देने की संधियां की हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया है। सभी बड़ी ताकतें धड़ाधड़ विस्फोट करती है। हां, अन्य देशों को ऐसा करने के लिए घुड़की अवश्य देती रही है।
निष्कर्ष यह है कि अब दुनिया ज्वालामुखी के ऐसे कगार पर बैठी हुई है कि जरा-सी चिंगारी उसमें विस्फोट कर सकती है। आज दुनिया ऐसे राष्ट्र और व्यक्तियों का अभाव नहीं है। जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दुनिया को परमाणु युद्ध की आग में झोंक सकते हैं। तीसरी दुनिया के गुट-निरपेक्ष देश ही एकमात्र आशा की किरण के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। इन्होंने पहले भी अनेक बार युद्ध के बादल को तितरबितर करने में सफलता पाई हैं। कोई कारण नहीं कि अब भी मानव के अस्तित्त्व बचाने में ईमानदारी से प्रयत्न करें। यद्यपि ताकतों को भी स्वविवेक को जागृत करना होगा। कहीं ऐसा न कि दूसरों के विनाश के लिए व्यग्र उन्हें भी विनाश के गर्त में नष्ट होने के लिए बाध्य होना पड़े। इसके बाद भी हमें मानव-विवेक के अति आस्था वान रहना चाहिए। हम परमाणु युद्ध के नजदीक पहुंच चुके हैं, पर यह होने नहीं देना चाहिए। बाद में पश्चात करने हुए इन पंक्तियों को दुहराना न पड़े-
मानव का रचा हुआ सूरज,
मानव को भाप बनकर सोख गया।