Hindi Essay-Paragraph on “Rashtriyakaran” “राष्ट्रीयकरण” 700 words Complete Essay for Students of Class 10-12 and Competitive Examination.
राष्ट्रीयकरण
Rashtriyakaran
बदलती हुई परिस्थितियों के साथ मानवीय विचारों में भी परिवर्तन होता रहता है। एक युग था जब देश की शक्ति छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त थी और जो स्वयं में अपने आपके पूरक थे, उनकी अपनी-अपनी एकक शासन-व्यवस्था थी। लेकिन आज हम स्वतंत्र हैं। भारत पुनः एक अटूट सूत्र से जुट चुका है, उसकी शक्ति अखंड है। अतः वैयक्तिक शासन या अधिकार की बात करना उसकी अखंडता को तोड़ना है। आज हम राष्ट्र के हैं और राष्ट्र हमारा है। राष्ट्रीय सरकार ही हमारे जीवन से संबंधित सभी वस्तुओं की नियामक है। लेकिन अभी इस कथन की सजता का प्रभाव हमारे दैनिक व्यावहारिक जीवन में नहीं मिलता। इसीलिए राष्ट्रीयकरण देश के समक्ष एक समस्या है। कारण, कुछ व्यक्ति इसके पक्ष में है और कुछ विपक्ष में। राष्ट्रीयकरण का आशय किसी वस्तु पर व्यक्ति के स्थान में राष्ट्र के अधिकार एवं नियंत्रण से है। तात्पर्य, उसके हानि-लाभ का प्रभाव व्यक्ति विशेष पर न होकर राष्ट्र के सामूहिक जीवन पर हो। इसका मंलव्य यह कदापि नहीं कि उससे संबंधित व्यक्ति का उस पर कोई अधिकार ही न हो, लेकिन इससे संबद्ध अन्य सामाजिकों के अधिकारों की रक्षा भी अपेक्षित है।
यों तो राष्ट्रीयकरण की योजना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संभव है। तात्पर्य मानव समाज की स्थिति के स्थान पर केवल मात्र राष्ट्र ही जीवन का नियामक बन जाए। लेकिन इस प्रकार तो मानव राष्ट्र के हाथ में बिक जाएगा। फलतः बिना सरकारी आज्ञा के वह कुछ कह ही न सकेगा और करना तो फिर दूर की बात होगी। फिर जीवन के कुछ ऐसे पहलू होते हैं जिन पर राष्ट्रीय नियंत्रण लाभप्रद ही सिद्ध होता है। भारत में आज कुछ अंश तक इसे कार्यान्वित किया जा सकता है।
उदाहरणार्थ-शिक्षा का राष्टीयकरण। इसका आशय यह है कि स्कल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षा का प्रबंध राष्ट्रीय सरकार के हाथों में रहे। उसी के द्वारा अध्यापकों की नियुक्ति एवं वेतन का समझौता हो और उसी के द्वारा पाठ्य पुस्तकों का नियंत्रण हो। यद्यपि यह प्रयोग मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं पंजाब आदि प्रांतों में हो रहा है। लेकिन शिक्षा का समग्र राष्ट्रीयकरण क्या उपादेय होगा? यह प्रश्न वास्तव में विचारणीय है। कारण, इसके पक्ष-विपक्ष दोनों रूपों में विविध समस्याएं स्वयंमेव अमेद्य दीवार बन जाती है। जहां राष्ट्रीय प्रबंध से शिक्षा संस्थाओं में किसी प्रकार की धांधली को मौका न मिलेगा, अध्यापकों की नियुक्ति निणक्ष होगी, उनके वेतन आदि के संबंध में अन्याय न होगा और तदुपरि शिक्षा के समय-समय पर निरीक्षण से दोषों का निवारण भी होता है। पुस्तकों का भार अभिभावकों के लिए सिर दर्द न बनेगा तथा प्रकाशकों की नीति से पूंजीवाद को प्रोत्साहन न मिल सकेगा। वहीं दूसरी ओर जनता का शिक्षा-प्रसार बन उत्साह आर्थिक अनुदान की सेवा भावना, अध्ययन कार्य में भावी सफलता के लिए लगन और फलतः शिक्षास्तर की उन्नति आदि बातों को भी धक्का लगेगा। फिर भी इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हम राष्ट्रीयकरण की बात को भुला दें। शिक्षा के क्षेत्र में इसकी अपेक्षा है, लेकिन आंशिक रूप में अध्यापकों की नियुक्ति एवं वेतन आदि का प्रबंध और कुछ अंश तक पाठ्य-पुस्तकों की स्वीकृति का नियंत्रण अवश्य सरकारों के हाथों में रहना चाहिए।
इसी प्रकार संपत्ति का प्रश्न भी आज विशेष रूप से देश के समक्ष हैं। जब उत्पादन में पूंजी और श्रम दोनों अर्जित शक्तियों का प्रयोग होता है, तब दोनों को उससे लाभांवित होना चाहिए। पूंजीपति वर्ग दूसरे के श्रम का उपभोग करता है और वह दीन मजदूर रक्त पसीना एक कर उसके आश्रित बना रहता है। जबकि वैधानिक रूप से दोनों ही वर्गों को समानाधिकार प्राप्त है। अब प्रश्न यह है कि यदि देश के संपूर्ण उद्योग-धंधों का राष्ट्रीयकरण हो जाता है, तब प्रस्तुत सरकार के पास उनके नियंत्रण के लिए पर्याप्त पूंजी होगी या नहीं। राष्ट्रीयकरण के मामले में सबसे विचारणीय बात यह है कि अच्छी सरकार सभी मामलों में राष्ट्रीयकरण को प्राथमिकता नहीं देती है। कुछ प्रमुख मामलों में राष्ट्रीयकरण आवश्यक भी होता है। जैसे-बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारत सरकार की सफल नीति मानी जाएगी। लेकिन शिक्षा जैसे क्षेत्र में राष्ट्रीयकरण देश के लिए अहितकर होगा।
आज देश में समग्रतः राष्ट्रीयकरण संभव नहीं है। देश के समक्ष अन्य समस्याएं भी है। जिनका हल आंतरिक सामूहिक शक्ति पर ही निर्भर है तथा इस योजना से तो उसके विच्छिन्न हो जाने का सदा भय है। फिर भी जीवन के कुछ क्षेत्रों में सरकार इसके लिए गतिशील तो है वह अधिकांश जनता के हितार्थ ही होगा। बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण तथा बहुत कुछ कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित कपड़ों पर राष्ट्रीय आधिपत्य आर्थिक दृष्टि से सफलता के परिचायक हैं।