Hindi Essay on “Shiksha aur Pariksha”, “शिक्षा और परीक्षा” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
शिक्षा और परीक्षा
Shiksha aur Pariksha
परीक्षा का अर्थ : परीक्षा से तात्पर्य है-परि अर्थात् चारों ओर अर्थात् पूर्ण रूप, ईक्षा अर्थात् दर्शन। आशय यह है कि किसी भी वस्तु की चारों ओर से अर्थात पूर्ण रूप से आलोचना करना, जाँच-पड़ताल करना ही उसकी परीक्षा’ है। बिना परीक्षा के कोई भी वस्तु अथवा मनुष्य की योग्यता-अयोग्यता, गुण-अवगुण का निर्णय नहीं किया जा सकता । परीक्षा एक प्रकार की तराजू है जो किसी पदार्थ को उसके भार के अनुसार तौलती है। इसी परीक्षा का एक विशेष प्रकार का ढंग जो कि मानव-समाज में प्रचलित है ‘परीक्षा पद्धति’ कहलाता है।
परीक्षा की अनिवार्यता : यह विश्व मानव के लिए एक परीक्षा-स्थल ही है। मानव अपने जीवन में न जाने कितनी परीक्षाओं में से होकर गुजरता है। जीवन के कटु क्षण मानव की पग-पग पर परीक्षा लेते हैं। यदि वह उन कटु क्षणों को हँसते-हँसते गुजारता है, पास कर जाते हैं, उसमें धैर्य, साहस, उत्साह व कर्मशीलता भर जाते हैं; अन्यथा उसका जीवन काँटों ही काँटों से भर जाता है। अत: परीक्षा का बहुत महत्त्व है। विद्यार्थी जीवन में तो योग्यता का प्रमाण-पत्र परीक्षा लेने के उपरान्त ही दिया जाता है।
परीक्षा पद्धति के गुण : यदि हम इतिहास को उठाकर देखें, तो ज्ञात होगा कि प्राचीन काल में गुरुकुल-पद्धति द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थी 25 वर्ष की आयु तक गुरुकुल में रहकर कठोर परिश्रम करता था। वहाँ उसे दिन-रात अपने गुरु के चरणों में रहना पड़ता था। कहने का तात्पर्य यह है कि वह हर समय गुरु की निगरानी में रहता था और गुरु तब 25 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् उसे दीक्षा देकर बिदा करता था। इन 25 वर्षों में उसकी अनेक बार परीक्षाएँ होती थीं। आज उस पुरानी गुरुकुल शिक्षा को लागू करना अत्यन्त ही कठिन है; क्योंकि न तो वैसे गुरु रह गये हैं और न ही शिष्य जो कि गुरुकुल की कठोर, नियमबद्ध परीक्षा-प्रणाली को अपना सकें। यह संसार परिवर्तनशील है।
जहाँ विश्व की अन्य सभी चीजों में परिवर्तन हुआ वहाँ परीक्षा प्रणाली को भी वर्तमान रूप दिया गया। और उसमें अनेक परिवर्तन किये गए। इस वर्तमान परीक्षा-प्रणाली की भी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं–
प्रथम, यह विद्यार्थी की योग्यता को स्वतन्त्रतापूर्वक परखती है।
दूसरे, गुरुकुल की भाँति दीर्घकाल तक नहीं चलती।
तीसरे, अपने विचारों को संक्षिप्त रूप से प्रकट किया जा सकता है।
चौथे, समय की महत्ता पर ध्यान दिया जाता है।
पाँचवे, भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान परीक्षा-परिणाम के आधार पर शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है।
छठे, यह परीक्षा-पद्धति शीघ्र निर्णायक है।
सातवे, विद्यार्थी को अपना कार्य निर्धारित समय तक पूरा करना पड़ता है; अन्यथा उसकी असफलता निश्चित होती है।
आठवे, श्रेणियों के विभाजन में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी परिश्रम करने की होड़ लगाते हैं। इस प्रकार वह वर्तमान परीक्षा-पद्धति काफी लाभदायक है।
परीक्षा पद्धति के दोष : यदि हम वर्तमान परीक्षा-पद्धति के दूसरे पक्ष को लें, तो ज्ञात होगा कि इस पद्धति में अनेक त्रुटियाँ भी हैं।
प्रथम, तीन घण्टे की परीक्षा में विद्यार्थी को योग्य प्रमाणित कर देना उचित नहीं है।
दूसरे, विद्यार्थी द्वारा केवल परीक्षा के भय से ही कार्य किया जाता है और वह भी परीक्षा का समय निकट आ जाने पर।
तीसरे, विद्यार्थियों का उद्देश्य ज्ञान अर्जन करना नहीं, बल्कि परीक्षा पास करके डिग्री इत्यादि प्राप्त करना है। चाहे उसके लिए नकल और घुस आदि। अनुचित साधन ही क्यों न प्रयोग में लाए जाएँ।
चौथे, परीक्षा को पास करने हेतु विद्यार्थी सस्ती व बेकार किताबों का अध्ययन करते हैं जो कि उनकी योग्यता को कभी नहीं बढ़ा सकती।
पाँचवे, गुरुजन भी विद्यार्थियों की भाँति केवल परीक्षा के लिये पुस्तकें पढ़ाते हैं। विद्यार्थियों के स्वार्थ की अपेक्षा वे अपने स्वार्थ का अधिक ध्यान रखते हैं। विद्यार्थी को योग्य बनाने के लिए वे प्रयत्न नहीं करते।
छठे, परीक्षा का यह मापदण्ड एक जुए के समान है। परीक्षा प्रश्नपत्रों के आधार पर विद्यार्थी के भाग्य अर्थात् भविष्य का निर्णय हो जाता है। बुद्धिमान् व्यक्ति इस जुए में फेल भी हो जाते हैं और रट्टू तोते पास हो जाते हैं।
सातवे, केवल लेखन-कला द्वारा ही विद्यार्थी की योग्यता नहीं मापी जा सकती। आठवे, इस परीक्षा-पद्धति में केवल किताबी बातें पूछी जाती हैं, विद्यार्थी की अन्य आवश्यक बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता, उसका चरित्र बने या बिगड़े इससे परीक्षा-पद्धति का सम्बन्ध नहीं होता।
परीक्षा पद्धति में सुधार : वर्तमान परीक्षा-पद्धति को हटाना असम्भव हैं। किसी अन्य परीक्षा-पद्धति के अभाव में इसे मान्यता देना ही ‘ठीक है, फिर भी इस पद्धति के कई दोषों को दूर किया जा सकता है। गुरु शिष्य के बीच उचित स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित किए जाएँ, जिससे वे परस्पर-सहयोग व प्रेम भावना से ओत-प्रोत हों, मिलकर कार्य करें। पाश्चात्य देशों में अपनायी गई यह भावना अब यहाँ भी अपनायी जा रही है। परीक्षा के भय को निकाल कर वर्ष भर पर परिश्रम किया जाना चाहिए। व्यर्थ के ‘नोट्स’ पढ़ने से विद्यार्थी को रोका जाए। परीक्षा लेते समय उसकी पुस्तक सम्बन्धी बातों पर ही ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। उसके नैतिक आचार-विचार, लगन उत्साह व श्रम के प्रति ध्यान आकर्षित करना चाहिए। वर्ष भर अनेक बार छोटी-छोटी परीक्षा लेकर विद्यार्थी को अधिक अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाए । केवल वार्षिक परीक्षा को ही सफलता का मापदण्ड न समझा जाए।
उपसंहार : यदि उपर्युक्त प्रयत्न किये जाएँ, तो निश्चित ही वर्तमान परीक्षा पद्धति में सुधार होगा। विद्यार्थी सच्चे अर्थों में योग्य बन सकेंगे । जीवन को आनन्दमय बनाने वाले, अपने विद्यार्थी जीवन को अधिक-से -अधिक योग्य बनाने के बाद, विश्व की किसी भी परीक्षा में स्वयं को सहज ही योग्य प्रमाणित कर सकेंगे, इसमें सन्देह नहीं।