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Hindi Essay on “Bharat-Sri Lanka Sambandh” , ”भारत-श्रीलंका संबंध ” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

भारत-श्रीलंका संबंध 

Bharat-Sri Lanka Sambandh

निबंध नंबर :- 01

आज का हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका अतीत काल से कभी विशाल भारत का ही एक भाग हुआ करता था। खैर, आज अतीत के उन भूले-बिसरे खंडों में झांकने की आवश्यकता नहीं। ऐसा करने का प्रयास ही व्यर्थ है। आज श्रीलंका भी भारत के समान ही एक प्रभूसत्ता संपन्न स्वतंत्र देश है। उसका अपना स्वतंत्र संवधिान और अपनी ही स्वतंत्र शासन व्यवस्था है। आधुनिक काल में भारत के साथ वह तीन-चार प्रकार से जुडृाहुआ है। श्रीलंका एक निकटतम पड़ौसी देश तो है ही, हमारी देश की ही तरह राष्ट्रमंडल का भी सदसय है। इसी प्रकार वह गुट-निरपेक्ष देशों और आंदोलन का भी एक हिस्सा है और एशियाई देश तो है ही। वहां का वातावरण बाह्य दबावों से मुक्त, शांत और समृद्ध है। यहां उसके अपने देश के लिए हितकर है ही, पड़ौसी देश भारत के लिए भी हितकर है। एक और तथ्य ने भी श्रीलंका को भारत के साथ जोड़ रखा है। वह यह कि ववहां की कुल आबादी का एक बड़ा भाग तमिल भाषा होने के कारण भारतीय मूल का है। ये सारी बातें, रिश्ते-नाते इस ओर संकेत करने हैं कि सूदूर अतीत काल से ही श्रीलंका और भारत निकट संबंधी रहे हैं। ऐसा कौन व्यक्ति है जो निकट संबंधी के साथ सदभावना और मेल-जोल बनाए रखना नहीं चाहता होगा?

श्रीलंका और भारत के संबधों में उसकी स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही वस्तुत: तनाव आने लगा था। पं. जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंश्रीकाल में ही श्रीलंका में यह आवाज उठाने लगी थी कि भारत मूल के लोगों को वहां से निकालकर वापिस भारत भेजा जाए। तब दोनों देशों में हुए समझौते के अनुसार नागरिकता की समीक्षा की गई थी। जो लाखों लोग यहां नए पहुंचे थे उन्हें अप्रवासी मानकर भारत वापिस आना पड़ा था। समझौते के अनुसार ही जो भारतीय मूल के लोग शताब्दियों से वहीं रह रहे थे, उन्हें वहीं रहना था। उन्हें वहीं का मूल नागरकि मान लेने का प्रावधान था। ऐसा मान भी लिया गया और बाहर से लगा कि यह मामला अब समाप्त हो गया है। पर वस्तुत: ऐसा हुआ नहीं।

बाद में श्री बंडारनायके की मृत्यु की बाद जब श्रीमती बंडारनायके रीलंका की प्रधानमंत्री बनी एक बार फिर से वहां के तमिलभाषी भारतवंशयों को सताया जाने लगा। वहां तमिल और सिंहली भाशाओं का मामला गर्म किया गया। वस्तुत: श्रीलंकावासी अब भाषा के आधार पर बंट से गए। सिंहली और बौद्ध एक तरफ हो गए, जबकि तमिलभाषी दूसरी तरफ। धीरे-धीरे इनमें अलगाव की प्रवृति बढ़ती ही गई। इसी प्रवृति ने वहां उस भयावह-बंटवारे की समस्या को जन्म दिया, कि जिसे अभी-अभी भारत की सहायता और गारंटी के सााि किया गया है। पर वास्तव में समाप्त न होकर आज भी जारी है। श्रीमती बंडारनायके प्रधानमंत्री तो न रहीं, पर जाते-जाते भी अपने देश को तो सुलगती आग में झोंक ही गई। भारत के लिए मुसीबतें खड़ी कर गई।

श्रीलंका में सिंहली बौद्ध क्योंकि बहुमत से थे, इस कारण वे तमिलों को अकारण सताने लगे। उन्हें देश के बाहर निकाल देने की भरसक चेष्टा करने लगे, जबकि वहां रह गए तमिल उन्हीं के समय ही श्रीलंका को अपना देश मानते थे। जब उन्हें चैन से नहीं रहने दिया गया , तो उनमें उग्रवाद ने जन्म लिया। तमिल हितों के रक्षक कई गुट सशस्त्र होकर सामने आने लगे। उधर सिंहली उन्हें कुचलकर रा देने के लिए डट गए। तमिलों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाने लगे। हजारों लोग और परिवार चोरी-छिपे भागकर समुद्र के रास्ते हमारे देश में (तमिलनाडु में) शरणार्थी बनकर आने लगे तब भारत का चिंतित हो उठना स्वाभाविक ही था। इतना ही नहीं, कट्टर राष्ट्रीयता की सनक में पडक़र सिंहली सैनिक तमिलों का सशस्द्ध सेनाओं के बल पर व्यापक संहार तो करने ही लगे, उनके प्रदेश जफना में नाकेबंदी करके दवा-दारू, दूध-पानी  ओर उपभोक्ता सामग्रियों पर प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि तमिल भी उग्र होकर शस्त्र उठा चुके थे। उन्हें कुचलने के लिए सिंहली सेना तो थी ही, श्रीलंका सरकार ने इस्राइल, इमेरिका, पाकिस्तान और चीन ने भी सहायता लेनी आरंभ कर दी। स्पष्ट था कि अब भारत चुन नहीं बैठ सकता था। चुप तो वह पहले भी नहीं था पर अब तो खतरा पैदा हो गया था कि इस प्रकार एशिया का यह छोटा सा देश श्रीलंका विदेशी निहित स्वार्थियों का अड्डा बन जाएगा। भारत और आसपास का सागर विदेशियों से घिर जाएगा। यह स्थिति देखकर ही भारत ने सहायता-सामग्री पहुंचाने के रूप में श्रीलंका के मामले में सक्रिय हस्तक्षेप किया। सुपरिणाम हमारे सामने आया। तमिल उग्रवादी भारतीय शांति सेना की देख-रेख में अपने शस्त्र समर्पित करने लगे। सिंहली सैनिक अपनी छावनी में लौट गए और लगने लगा कि हवा में शांति तैरने लगी है। किंतु भारतीय शांति-सेना के लोटते ही वहां आपसी संघर्ष फिर तेज हो गया। अब दोनों ओर से मारक एंव उग्र प्रभाव सामने आ रहा है। इस तथ्य से सभी भलीभांति परिचित है।

जो हो, इस प्रकार श्रीलंका की अपनी ही अंदरूनी समस्या के कारणभारत के साथ संबंधों में जो एक गहरा तनाव आ गया था, संबंध टूटने तक की नौबत आ गई थी, वहां के राष्ट्रपति जयवर्धने की साहसिक दूरदर्शिता और हमारे नेताओं की सूझ-बूझ के कारण वह स्थिति समाप्त हो चुकी है। भारत मानता है कि आस-पड़ोस के शांति-समृद्धि रहने से ही हमारे यहां भी शांति-समृद्धि रह सकती है। अपनी इस नीति के तहत उसने श्रीलंका के साथ एक नए युग का सूत्रपात किया है। इसका स्थायित्व आवश्यक है- श्रीलंका के लिए भी और भारत के लिए भी। बल्कि समूचे एशिया के लिए भी। इसी कारण फिलस्तीनी नेता श्री अराफात ने इस घटना को पूरी बीसवीं सदी की एक अदभुत घटना कहा है। लेकिन इसके लिए वहां तमिल-सिंहली-संघर्ष समाप्त होकर शांति स्थापित होना परम आवश्यक है। श्रीलंका की अपनी विकास-यात्रा भी शांति स्थापित होने पर ही संपन्न हो सकती है।

निबंध नंबर :- 02

भारत-श्रीलंका सम्बन्ध

Bharat Sri Lanka Sambandh

भारत के आस-पास छोटे-बड़े जितने भी निकटतम पड़ोसी देश हैं, उनमें श्रीलका भी एक प्रमुख देश है। यह एक पौराणिक-ऐतिहासिक तथ्य है कि श्रीलका के समुद्र-तटीय देश होने के बावजूद भी अत्यन्त प्राचीन काल से भारत के साथ उस के बड़े अच्छे सम्बन्ध चले आ रहे हैं। इन सम्बन्धों का इतिहास त्रेतायुग के राम राज्य के समय से मिलने-जुड़ने लगता है। एक विशेष तथ्य है कि भारत में प्रचलित पुरा-कथाओं और लोक-कथाओं पर जिस सिंहल द्वीप और वहाँ की भव्य प्राकृतिक सुन्दरता का प्रचुर वर्णन मिलता वह आज का श्रीलंका ही है। भक्तिकाल की निर्गुण भक्तिधारा के अन्तर्गत चलने वाले प्रेममार्गी प्रतिनिधि कवि और साधक मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने ‘पदमावत’ नामक महाकाव्य की राजकुमारी पद्मावती को सिंहलद्वीप की राजकुमारी ही बताकर, उसकी तथा द्वीप की सुन्दरता का व्यापक वर्णन किया है।

आज का जमीनी सत्य यह भी है कि श्रीलंका के तमिल भाषी नागरिक मूलतः भारत के भूभाग तमिलनाडु के ही वासी हैं। आज भी यहाँ-वहाँ समान रिश्तेदारियाँ हैं । यो सिहल या श्रीलंका की मूल भाषा सिंहली है; पर वहाँ तमिल का भी विशेष प्रचलन है। वहाँ की समूची वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज और परम्पराएँ भी बहुत कुछ तमिलनाडु जैसी ही हैं। हाँ, सिंहलियों और तमिलों के शारीरिक रंग-रूप और आकार पुकार में कुछ अन्तर अवश्य है। श्रीलंका को स्वतंत्रता भी भारत के स्वतंत्र होने के कुछ बाद ही मिल सकी। श्रीलंका और भारत दोनों निर्गुट आन्दोलन के अंग तो रहे ही, बाडुग सम्मेलन जैसी कुछ संस्थाओं के भी सह सदस्य रहे और आज भी हैं। फिर भी स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद दोनों देशों में पहली टकराहट अनिवासी या प्रवासी भारतीयों को लेकर उत्पन्न हुई। श्रीलंका सरकार ने वहाँ बसे सभी भारतीयों को वहाँ से चले जाने का आदेश तो दिया ही, अनेक उच्च व्यापारियों की सम्पत्तियाँ तक जब्त कर ली। बाद में राजनीतिक स्तर पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने मिल कर इस समस्या के समाधान के प्रयास किए, ताकि नव स्वतंत्रता प्राप्त दोनों राष्ट्रों में वैमनस्य उत्पन्न न हो। दोनों के अत्यन्त प्राचीन काल से चले आ रहे सम्बन्धों में टूटन और बिलगाव की स्थिति न आए? दोनों अपने नव-निर्माण के कार्य भी निश्चिन्त होकर कर सकें। समझौते के अनुसार श्रीलंका के सम्बन्ध उपर्युक्त मामलों को लेकर शेष बातो में सामाना रहे या आज भी सामान्य है, तो ऐसा कहना-मानना सच न होकर अपने-आप भूलावे में रखना होगा। क्योंकि आरम्भ से ही जाने किस कारण और किस भय के कती भूत, या फिर वरगलावे में आकर वहाँ का शासक वर्ग यह मान कर चलता आ रहा है कि बड़ा और शक्तिशाली देश होने के कारण भारत उसे अपने दबदबे में रखना चाहता है। इस कारण कभी श्रीलंका का झुकाव पाकिस्तानी प्रापेगण्डा के प्रभाव में आकर उसकी ओर होता रहा है, कभी साम्यवान के प्रभाव एवं बहकावे में आकर चीन की ओर होता रहा है। आज भी उसकी स्थिति नीतियों का झुकाव पूर्णतया स्पष्ट नहीं है। बीच में एक युग-कुछ काल के लिए अवश ऐसा आया, जब लगने लगा था कि अब भारत-श्रीलंका के अच्छे सम्बन्धों का युग शम हो गया है। यह वह जमाना था जब भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी और श्रीलंका की श्रीमती माओ भण्डार नायके थीं। उसके बाद राष्ट्रपति जयवर्द्धन के शासनकाल में भी ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे दोनों देशों के सम्बन्ध अच्छे हो गए हैं। तभी तो श्रीलंका के राष्ट्रपति के अनुरोध पर भारत के प्रधानमंत्री स्व० राजीव गान्धी ने वहाँ खड़े हुए जातीय संघर्ष या लिट्रे-उग्रवाद को शान्त करने के लिए भारत की शान्ति-सेनाएँ वहाँ भेजनी स्वीकार ही नहीं की, बल्कि भेज भी दीं। वहाँ की जनता एवं राजनीतिज्ञों दोनों ने इस बात को विदेशी हस्तक्षेप मान और खुल कर भारतीय सेना की वहाँ उपस्थिति का विरोध भी किया है। सच तो यह है कि इस कदम का विरोध भारत में भी हुआ और कुछ जानें चली जाने के अतिरिक्त कुछ लाभ भी नहीं हुआ।

श्रीलंका के तात्कालिक राष्ट्रपति प्रेमदास भारतीय सेना के आगमन के सब से बड़े विरोधी रहे। यह विरोध किस सीमा तक हुआ और कितना उग्र था, एक उदाहरण तो तब सामने आया जब प्रधानमंत्री राजीव गान्धी को वहाँ जाकर सलामी गारद का निरीक्षण करते समय एक सिहली सैनिक ने अपनी राइफल के बट से उनके सिर पर प्रहार करना चाहा, दूसरे लिट्टे के तमिल उग्रवादियों ने प्राणघाती मानव-बम का प्रयोग कर श्री गान्धी की हत्या ही कर डाली। ऐसी स्थिति में भारत-श्रीलंका के बीच औपचारिक राजनयिक सम्बन्धों के अतिरिक्त किन्हीं हार्दिक सम्बन्धों की बात कह कर हम धोखे में नही रहना चाहते।

आज के सन्दर्भो में जब से श्रीलंका की बागडोर नए शासकों के हाथ में आई है तब से भारत-श्रीलंका के सम्बन्धों को मात्र औपचारिक कह कर सामान्य स्तर पर सामान्य ही कह सकते हैं। दोनों में किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विवाद भी नहीं है। सामान्यतया दोनों राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे का विरोध भी नहीं करते। पहले की तरह पाकिस्तान या चीन के दबाव में आकर आज का श्रीलंका भारत का नाहक विरोधक या बदनाम करने वाली बातें भी नहीं उछालता रहता। भारत भी कई प्रकार से आर्थिक एवं योजनाएँ पर्ण करने में उसकी यथासाध्य सहायता भी करता रहता है। ऐसी दशा में सम्बन्धों में प्रगाढ़ता तो नहीं कही जा सकती, हाँ, सामान्यतः मानवीय दृष्टि रखने की बात अवश्य मानी जा सकती है।

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