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Aadhuniktawad aur Parampara “आधुनिकतावाद और परंपरा” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 10, 12 and Graduate Students.

आधुनिकतावाद और परंपरा

Aadhuniktawad aur Parampara

भारत की आधुनिकता एक दोधारी तलवार सिद्ध हई है। एक ओर, प्रगति से असंख्य लोगों के जीवन-स्तर में सुधार आया है। दूसरी ओर, इससे सांस्कृतिक वातावरण पर विध्वंसक प्रभाव पड़ा है। यह सच है कि कुछ आधुनिकतावादी यह दलील दे सकते हैं कि आधुनिकतावाद, जो वैयक्तिक तर्कणा तथा स्वायत्तता को गौरवान्वित करता है और इसलिए यह प्रचलित सामाजिक व्यवस्था तथा सत्ता को चुनौती देता है, यह इतना शक्तिशाली है कि प्रचलित मूल्य प्रणाली इसके बगैर न तो प्रतिरोध कर सकती थी और न अभी भी कर सकती है। वस्तुतः यह तर्क दिया जाता है कि आधुनिकतावाद से एक वैश्विक सभ्यता, एक वैश्विक संस्कृति जन्म ले रही है।

सतत परिवर्तन ही आधुनिक को पुरातन तथा प्राचीन से अलग करता है। आधुनिकतावाद की कसौटी धार्मिक हठधर्मिता से दूर रहने की क्षमता रही है। आधुनिकतावाद संबंधी सभी वाद-विवादों में विशेषतया धर्म को आरंभिक बिन्दु के रूप में अभिलक्षित किया जाता है क्योंकि अभिलिखित इतिहास से यह प्रकट होता है कि परिवर्तन लाने की पहली प्रेरणा उन लोगों द्वारा जगाई गई जिन्होंने धार्मिक हठधर्मिता का विरोध किया। उदाहरण के तौर पर इन हठधर्मी धार्मिक मतों कि गृह पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं अथवा पृथ्वी गोल है, का खण्डन केवल नई जानकारी तथा ऐसी जानकारी के प्रति बुद्धि प्रयुक्त करने से ही किया जा सका। जानकारी के प्रति बुद्धि का प्रयोग करने से युग की प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों के कार्यान्वयनों, मुद्रण की प्रौद्योगिकी इत्यादि के जरिए ज्ञान का प्रसार हुआ।

इनमें से कुछ परिवर्तन सकारात्मक होते हैं, जिसमें प्रौद्योगिकी में विकास द्वारा लाई जाने वाली वद्धिगत जानकारी, जैसे कि मुद्रण की प्रौद्योगिकी के मामले में, शामिल होती है। इसका कार्य पहले धर्म का प्रसार करना था तथा तत्पश्चात और भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुद्रण के आगमन से राजनीति, विज्ञान, कला, संस्कृति, दर्शन इत्यादि में विचारों का प्रसार हुआ। ज्ञान का आदान-प्रदान किया जाने लगा। इनमें से कुछ विचारों द्वारा धर्मतंत्र तथा राजतंत्र पर सवाल उठाया जाने लगा जिससे आधुनिक युग का आगमन तेजी से संभव हुआ। समकालीन मांगों के आधार पर नई संस्थाएं सृजित हुई, विकसित हुई, अनुकूलित हुई, परिवर्तित हुई अथवा नष्ट हो गई। आज सूचना, संचार तथा मनोरंजन प्रौद्योगिकियों से तीन ज्यामितिक प्रगति हुई है। उदाहरणार्थ प्रमुख घटनाओं को रेडियो तथा टी.वी. द्वारा किसी अन्य साधन की अपेक्षा तीव्र गति से घरों में खबरों के रूप में पहुंचाया जाता है। इंटरनेट से सूचना के प्रचार-प्रसार में पूर्णतया एक नया आयाम जुड़ गया है। जिनके पास इन प्रौद्योगिकियों तथा सुविधाओं की उपलब्धता है उनके पास ‘सूचना का अतिभार’ अथवा अत्यधिक सूचना की उपलब्धता संबंधी समस्या होती है। घृणा तथा क्रोध का प्रसार करना उतना ही सरल है जितना कि प्रेम तथा सहानुभूति का प्रसार करना। प्रौद्योगिकी वस्तुतः मूल्य तटस्थ है।

नैतिक तथा संरचनात्मक दृष्टिकोण से, समुदाय की श्रेष्ठता का अर्थ है कि समुदाय से ही सामाजिक तथा सांस्कतिक क्षेत्र संबंधी संदर्भ निर्मित होता है जिसमें व्यक्ति अपने आप को पूर्णतया समझता है। दूसरे शब्दों में, समुदाय व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है जहां तक कि इसके ऐसे माध्यम होने का संबंध है जिसके जरिए कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य, जीवन संबंधी योजनाएं, अपने मुल्य तथा प्रयोजन तय करता है और इन्हें चुनता है। कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के द्वारा अनिवार्यतः अनुभूत सामाजिक संबंधों द्वारा बनता है। भारतीय समाज में भूमण्डलीकरण के कारण व्यापक परिवर्तन हो रहा है। डेसेचर्स का कहना है, “सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दो प्रमुख लक्ष्य हैं- एक आर्थिक तथा दूसरा राजनीतिक, जो इसकी सांस्कृतिक वस्तुओं के लिए बाजारों पर नियंत्रण करने तथा जनजागरूकता पैदा कर प्रभुत्व स्थापित करने पर लक्षित है। सांस्कृतिक आधिपत्य वैश्विक स्वार्थसाधन की किसी सतत प्रणाली का एक समेकित आयाम है।” साम्राज्यवादी वर्गों के हितों को अनुकूल बनाने हेतु उत्पीड़ित लोगों के मूल्यों, व्यवहार, प्रथा तथा पहचान को पुनः व्यवस्थित करने के लिए पाश्चात्य जगत के शासक वर्गों द्वारा जनसमूहों के सांस्कृतिक जीवन पर एक क्रमबद्ध सांस्कृतिक प्रभाव तथा प्रभुत्व स्थापित किया जाता है। भारतीय पारंपरिक रूप से संयुक्त परिवार प्रणाली का अनुसरण करते आए हैं। इन पारिवारिक संस्थाओं में समसामयिक कालों में परिवर्तन हुए हैं और एकल परिवार प्रणाली मानक बनती जा रही है। अब तक एकल जनकता की संकल्पना भारतीय संस्कृति में प्रचलित नहीं हुई है। तलाक की दरों में वृद्धि हो रही है। शहरीकरण से भारतीय संस्कृति में अनेक बदलाव हुए हैं। बहुत से विवाह अनेक कारणों, जैसे कि आधनिक जीवन-शैलियों, व्यावसायिक महत्वाकांक्षाएं तथा यथार्थवादी आशाओं से टूट रहे हैं। वर्तमान समय में भारत में आधुनिकीकरण के कारण विवाह की प्रतिबद्धता समाप्त हो रही है।

शहरों में युवा वर्ग अपने जीवन साथियों को स्वयं चुनने लगा है। तथापि, व्यवस्थित (Arranged) विवाह अभी भी प्रचलित हैं। टी.वी. तथा औद्योगिकीकरण के प्रभाव के परिणाम स्वरूप भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के लोगों तथा शहरी भारतीयों के सांस्कृतिक मूल्यों में अत्यधिक परिवर्तन हुए हैं। उपभोक्तावाद समकालीन भारतीय समाज में व्याप्त हो चुका है और इसने इसकी संरचना में परिवर्तन किए हैं। भारत में फैशन बढ़ रहा है। पारंपरिक भारतीय पोशाक विशेषतया शहरी युवा लोगों में बदल रही है। इन सभी चीजों से भारतीय लोगों के परम्परागत मतों तथा रिवाजों का क्षय हुआ है। अहिंसा तथा अपरिग्रह हमारे भारत की विरासत तथा संस्कृति थी।

अच्छी बात यह है कि इनमें से कुछ परिवर्तन उपयोगी हैं। महिलाओं ने अपनी आवाज उठाई है और वे कुछ सांस्कृतिक प्रत्याशाओं में परिवर्तन लाई हैं। विगत पांच दशकों में हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति तथा भूमिका में कुछ मूल परिवर्तन हुए हैं। नीतिगत दृष्टिकोण सत्तर के दशक में ‘कल्याण’ की संकल्पना से परिवर्तित हो कर अस्सी के दशक में ‘विकास’ तथा अब 90 के दशक में ‘अधिकारिता’ हो गया है। इस प्रक्रिया को और तेज किया गया है, जहां महिलाओं के कुछ वर्ग पारिवारिक तथा सार्वजनिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में उनके प्रति किए जाने वाले भेदभाव के प्रति अधिकाधिक जागरूक हो रहे हैं। वे उन मुद्दों पर स्वयं को संघटित करने की स्थिति में है जो उनकी समग्र स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। परन्तु अचानक होने वाले अनेक बड़े परिवर्तन समाज के लिए कभी-कभी सहायक सिद्ध नहीं होते हैं। प्रत्याशा के द्वन्द तथा वर्तमान मनोदशा में परिवर्तन के अभाव से कुछ वगों में संघर्ष होता है जो दोनों पक्षों को नुकसान पहुंचाता है। उदाहरणार्थ, विवाह में कोई औरत को कुछ अधिक प्रत्याशा होती है परन्तु उसका पति पुरानी मनोवृत्ति का होता है तो संघर्ष होने से विवाह टूट जाता है अथवा अत्यधिक संघर्ष होने से घर की सामान्य शान्ति प्रभावित होती है जहां बच्चों की सबसे अधिक क्षति होती है।

आधुनिकीकरण तथा शहरों के विकास से परानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था स्थापित हो गई है। जाति प्रथा, जिसका आज भी गांवों में सख्ताई से पालन किया जाता है, प्रभावशाली रूप से समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही है। पूर्व में एक ही जाति के लोग किसी क्षेत्र विशेष में प्रबल रहते थे तथा साथ-साथ निवास करते थे परन्तु शहरों में न केवल विभिन्न जातियों के लोगों का, वरन विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का समग्न मेलजोल होता था। बड़े शहरों में ऐसा धीमा परन्तु सुनिश्चित समाकलन हुआ है जहां भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पड़ोसियों के रूप में रहते हैं और इसलिए उनमें परस्पर बेहतर समझ है। यह कुछ ऐसी घटना है जो ग्रामीण पृष्ठभूमि में कभी भी नहीं हो सकी, जहां पड़ोसी राज्यों के लोगों के साथ प्रायः विदेशी की तरह बर्ताव किया जाता है, बड़े शहरों में भारत के सभी क्षेत्रों के लोग पड़ोसियों के रूप में रहते हैं और इसलिए उनमें परस्पर बेहतर समझ होती है। भारत में व्याप्त भाषायी तथा सांस्कृतिक मतभेदों के कारण, इन लोगों में मेल-मिलाप तथा उनके मध्य सामंजस्य और समझ-बूझ पैदा करना प्रायः एक असंभव कार्य ही होगा, सिवाय बड़े शहरों की वृद्धि को छोड़कर, जहां पर लोग विभिन्न कारणों से रहते हैं। परिवहन में सुधार तथा जीविकोपार्जन के बदलते रूझानों से ग्रामीण भारत पर वैसे ही प्रभाव दिखाई देने लगे हैं जैसे प्रभाव पहले-पहल शहरों में दिखाई दिये थे। अब दूरस्थ क्षेत्रों में भी नई व्यवस्थाएं स्थापित हो रही हैं और उन्हें वर्षों पुराने मजबूरी भरे जीवन से मुक्त किया जा रहा है। एक नई तरह की सामाजिक स्वतंत्रता उभर कर सामने आई है। अनुचित सामाजिक प्रतिबन्ध तथा ऊंची जातियों के प्रभुत्व अब ग्रामीण लोगों के लिए विकटपूर्ण समस्या नहीं है।

ये हमारे शहरों तथा शिक्षा एवं परिवहन के आधुनिक साधनों तथा कार्यस्थलों एवं बाजारों, जहां अछूत अब अभिज्ञेय नहीं है, के कारण हैं, न ही अब अछूतों का प्रवेश सार्वजनिक स्थानों पर वर्जित है, जो सहिष्णुता तथा अछूतों की समाज में पूर्व स्वीकृति को दर्शाता है। अब गंगा को शुद्धिकरण के लिए कम इस्तेमाल किए जाने की जरूरत है, जैसे कि पहले अछुतों से आकस्मिक सामना होने के पश्चात ‘गंगा जल’ से छिड़काव करके शुद्धिकरण की आवश्यकता होती थी। प्रतिदिन अछूतों का सामना होने से इस रिवाज की नवीनता समाप्त हो गई।

हम एक परिवर्तनशील सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य के बीच रह रहे हैं और यहां प्रतिवाद तथा सामंजस्य एवं कुसामंजस्य और पुनर्सामंजस्य होना भी अवश्यंभावी है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम वर्तमान युग के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को अंगीकार करके पुराने युग के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को अक्षुण्ण रखें। मनुष्य परिवर्तनों से कभी भयभीत नहीं हुआ है और बाधाओं के बावजूद अधिकांशतः वह विजयी होकर उभरा है। नई व्यवस्था में सर्वदा ही नुक्सानों की अपेक्षा अधिक फायदे रहे हैं। कुछ शताब्दियों के पश्चात वह सभी कळ हमारे पारंपरिक मूल्यों का हिस्सा होगा जो आज नया है, इसलिए भयभीत न हों।

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