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Samaj ke prati Sahityakaar ka Dayitva “समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12

समाज के प्रति साहित्यकार का दायित्व

Samaj ke prati Sahityakaar ka Dayitva

साहित्य को सत्यम् शिवम् एवं सुन्दरम् का त्रिवेणी स्वरूप कहा जाता है। इस त्रिवेणी का आह्वान साहित्यकार का प्रथम दायित्व माना गया है। साहित्य सहित की भावभूमि पर आधारित एक ऐसी विशिष्ट मानवीय सर्जना है जिसमें समाज का बहुविध रूपायन चित्रांकन अथवा शब्दांकन होता है। साहित्य के विविध रूप हैं-कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी इत्यादि। इन समस्त विधाओं में समाज का प्रतिबिम्ब विभिन्न रूपान्तर्गत रूपायित होता है। साहित्य सर्जन में तत्कालीन परिवेश एव साहित्यकार की मनःस्थिति विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करती है। इसलिए साहित्य में परिवेश का आवेश सहज दृष्टिगत होता रहता है। सूर्य की किरणों की भांति साहित्य की समाज में चेतना का संचार करता है। साहित्य ज्ञान के अंधकार को दूर करके समाज को आलोकित करता है, साहित्य के उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करना साहित्यकार का दायित्व है।

साहित्य का प्रयोजन साहित्य का निर्माण क्यों तथा किसके लिए यह एक विचारणी प्रश्न है। इसका उत्तर हमारे संस्कृत साहित्यकारों ने दिया है। आचार्य भामह के अनुसार धर्म, अर्थ काम, मोक्ष-पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति साहित्य का प्रयोजन है। काव्य प्रकाश कार आचार्य मम्मट ने काव्य के द्वारा यश, अर्थ, व्यवहार, परिज्ञान, अशिव से रक्षा अलौकिक आनन्दानुभूति तथा कान्ता सम्मत उपदेश आदि प्रयोजनों को संसिद्धि माना है। स्वप्रयोजन सिद्धि को गौण स्थान प्रदान करते हुए जन-मानस को साहित्यानुभूति द्वारा आप्लावित करके साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह करता है।

साहित्यकार का दायित्व है कि वह वर्तमान पस्थितियों की सापेक्षता में साहित्य सृजन का कार्य करे और अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में अन्तः स्वचेतना जाग्रत करे। समाज में विद्यमान विसंगतियों, असमानताओं, और विद्रूपताओं का निरूपण कर जनमानस में इनके प्रति सजगता विकसित करे और साथ ही समाज की सही दिशा दिखाने हेतु एक आदर्श चरित्र की संयोजना करे और इस प्रकार समाज के बहुविध विकास में सहयोगी बने ।

कबीर, तुलसी, सूर आदि ने अपने साहित्य सर्जन से समाज को एक नवीन दिशा प्रदान की। देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो चुका था। जनता पर अत्याचार चरमोत्कर्ष पर था उसके समक्ष ही देव मन्दिर गिराए जाते थे। महापुरुषों का अपमान जारी था, जनता निरूपाय थी, समाज में हिन्दू-मुसलमान परस्पर कर विरोधी वर्ग बन गए थे, जनता संत्रस्त थी और दिशाहीन संक्रमण काल में इन संत कवियों का प्रादुर्भाव एक विशिष्ट घटना थी। सन्त कवियों ने अपनी साहित्य सर्जना के माध्यम से न केवल युगीन परिस्थितियों का चित्रण किया, अपितु तत्कालीन समाज के सापेक्ष ‘राम’ और ‘कृष्ण’ जैसे सहनीय सर्वगुण सम्पन्न चरित्र नायकों की अवतारणा कर समाज को एक सशक्त सम्बल प्रदान किया जिससे समाज में नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ, सन्त कबीर ने अपनी फक्कड़ाना भाषा से विशृंखलित होते समाज को एक सूत्रता प्रदान करने का स्तुल्य प्रयास किया।

इसके उपरान्त देश में अंग्रेजी राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को तलवार के रूप में प्रयुक्त किया और जंग-ए-आजादी का उद्घोष किया। कहना न होगा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साहित्यकारों के प्रदेय से ओत-प्रोत है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रादुर्भाव से जिस आधुनिक भावधारा का विकास हुआ तद्युगीन साहित्य पूर्णतः सामाजिक चेतना से संपृक्त है। कवियों का वर्ण्य विषय ही सामाजिक कुरीतियों का उद्घाटन करना, अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार करना, मातृभूमि-प्रेम, विदेशी का बहिष्कार, शिक्षा प्रचार-प्रसार आदि या राष्ट्रीय चेतना का उदय इस काल के साहित्यकारों की अनन्य विशेषता है। इस युग के कवियों ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए देश के उत्कर्षोपकर्ष के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए जनमानस में राष्ट्रीय भावना जाग्रत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। देशभक्ति की जो भावना आगे चलकर मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘भारत-भारती’ में परिलक्षित हुई, उसकी पृष्ठभूमि भारतेन्दु, प्रेमधन, प्रताप नारायण मिश्र, राधाकृष्ण धाम आदि की कविताओं में द्रष्टव्य है। अंग्रेजों की शोषण नीति का एक उदाहरण भारतेन्दु जी की निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है-

भीतर भीतर सब रस चूसे।

हंसि-हंस के तन मन धन मूसै।

जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन! नहिं अंगरेज।

स्वतंत्रता के पश्चात् साहित्यकारों के दायित्व में न्यूनता नहीं आई अपितु वर्ण्य-विषय किंचित परिवर्तन के साथ और अधिक व्यापक हो गया। नवीन राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य व सन्तुलन स्थापन तथा संक्षेप में द्रष्टव्य है- सामाजिक वैषम्य दूर करने का नवीन दायित्व अत्यधिक व्यापक होता जा रहा है जो

आज इस परमाणुविक युग में साहित्यकार का दायित्व है कि सशक्त रचना के माध्यम से विज्ञान और समाज का सम्बन्ध स्थापित करे। इसके अतिरिक्त विज्ञान की दुरूह बातों को सरल साहित्य द्वारा सुगम व बोधगम्य बनाया जा सकता है। नैतिकता किसी भी समाज की श्रेष्ठता का मानदण्ड होता है। उसी के द्वारा राष्ट्र समुचित विकास व उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। आज नैतिकता के अभाव में भ्रष्टाचार का चतुर्दिक बोलबाला है, इसका निराकरण भौतिकतायुक्त धर्माधृत साहित्य के द्वारा ही किया जा सकता है। निश्चय ही यह कार्य साहित्यकार ही कर सकता है। साहित्य द्वारा ही किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक गरिमा और सभ्यता को अक्षुण्ण रखा जा सकता है और उसमें युगानुरूप गुणात्मक विकास व परिवर्तन परिवर्द्धन किया जा सकता है।

आज राजनीति जीवन का अभिन्न अंग है। कोई भी व्यक्ति जो सामाजिक प्राणी है, वह एक राजनीतिक प्राणी भी है। इसलिए राजनीति के समस्त पहलुओं का सम्यक विवेचन साहित्य के माध्यम से जन-जन तक सुलभ किया जा सकता है। साहित्यकारों का दायित्व है कि वे ऐसे साहित्य का सृजन करे जिससे नागरिक अपने अधिकार, कर्तव्य न्यायिक व्यवस्था, राजनीतिक स्थिति इत्यादि से परिचित हो सकें। और राजनीति के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो सके तभी लोकतंत्र की सफलता भी सुनिश्चित होगी। साहित्य की उपाक्षेयता तभी सम्भव है जब वह राष्ट्रीय चेतना से संपृक्त हो, जिससे राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की रक्षा हो सके। सर्व धर्म समभाव का विकास हो सके। इसी के साथ ही प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम हेतु प्रौढ़ साहित्य का सृजन भी आवश्यक है, इसके लिए स्थानीय स्तर पर प्रौढ़ साहित्य का निर्माण किया जाना चाहिए।

आज के बालक भविष्य के निर्माता हैं। उनके अपरिपक्व मस्तिष्क के समुचित विकास के लिए उत्कृष्ट बाल-साहित्य भी प्रभूत आवश्यकता है। दीनबंधु एण्ड्रज के अनुसार और कुछ करो न करो, बालकों के लिए साहित्य लिखने का काम अवश्य करो।” यद्यपि आज बाल साहित्य की सर्जना हो रही हैं तथापि वह पर्याप्त नहीं है।

साहित्य मानव-जीवन को सुसंस्कृत एवं परिष्कृत करने का एक सशक्त माध्यम है और समाज के पथ-प्रदर्शन साहित्य का क्षेत्र जीवन की तरह अति विस्तृत है। देश के निर्माण और उन्नति में साहित्यकार का दायित्व बहुविधि, असीमित एवं अप्रमेय है। हर्ष का विषय है कि हमारे साहित्यकार जीवन व जगत् के साथ पूर्णतः जुड़े हुए हैं। वे परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ निरन्तर अपने को जोड़े रखकर अपेक्षित साहित्य के सृजन में तत्पर हैं। वे परम्परा के वट-वृक्ष का सहारा लेकर प्रगति फूल बिखेरते अपने दायित्व का निर्वाह सम्यक् प्रकार कर रहे हैं।

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