Rabindranath Thakur “रवीन्द्रनाथ ठाकुर” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Rabindranath Thakur
भारत की पावन भूमि सदैव ऋषि-महर्षि, कलाकार, साहित्यकार, दर्शन-वेत्ता और युगीन महापुरुषों की जन्म-भूमि रही है। आधुनिक युग में कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ का वही स्थान है। जहाँ महात्मा गांधी ने राजनीति को अपना क्षेत्र बनाकर अपने महान् व्यक्तिव से संसार के गर्व का खण्डन किया है वहीं कवीन्द रवीन्द्रनाथ ने गीत साहित्य के रूप में उसे आश्चर्य निमग्न किया है। पं. नेहरू के शब्दों में “भारत के ये दोनों महापुरुष हमारे युग की महान् विभूतियाँ है ।’ यदि एक राजनीति की अन्तिम सीमा है, तो दूसरा साहित्य और संस्कृत का अन्तिम छोर। विश्व कवि रवीन्द्र भारत के ही नहीं विश्व के उत्कृष्ट कवि कलाकार थे। भारतीय साहित्य, संगीत, और कला के वह उन्नायक थे और राष्ट्र भूमि तो ऐसे आदर्श पुत्र को पाकर जैसे धन्य हो गई थी।
कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता के लब्ध प्रतिष्ठ ठाकुर परिवार में हुआ था। परिवार की परम्परानुगत, साहित्यगत और कलात्मक प्रतिमा ने अपने जीवन में उत्कर्ष दिखाया। आपके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर तत्कालीन ब्रह्म समाज के प्रमुख समर्थकों में से। कवीन्द्र के शैशव का अवशेष जोड़ासाकू स्थित भव्य प्रसाद अब भी उनकी सरस गीतियों का संगीतमय स्वर अलापता है। पढ़ने में आपकी अभिरुचि न थी । हाँ, कविता करने में अवश्य आलौकिक आनन्द की मधुर अनुभूति होती थी। पढ़ाई का नाम सुनते ही पेट दर्द, सिर दर्द की शिकायत आपको हो जाती थी। लेकिन जीवन पर कड़ा नियंत्रण था। उस समय कलकत्ता में न आज की भांति विद्युत की चकाचौंध थी, न मिट्टी के तेल की गैस या लालटेन लोग मिट्टी के दीपक जलाया करते थे। रवि बाबू अपने नौकर के निकट आकर अक्सर कहानियाँ सुनते थे।
महर्षि देवेन्द्रनाथ का बोलपुर से दो मील दूर प्रकृति की सुरम्य भूमि में एक आश्रम था। रवि बाबू 11 वर्ष की अवस्था में अपने पिता के साथ ग्रीष्मावकाश में यहाँ रहे। ‘आप्मावै जायतेपुत्र!’ के अनुसार मर्हिष के जीवन का उन पर पूर्ण प्रभाव था। इसके पश्चात् आपने भारत में कई स्थानों की यात्राएं की। हिमगिरि की प्रकृति ने आपके कवि भाव को बहुत ही प्रभावित किया। पुनः कलकत्ता आकर कला और संगीत का अध्ययन किया। संगीत के लिए बंगभूमि अब भी भारत प्रसिद्ध है। जब आप 14 वर्ष के थे तभी से ही आपकी कविताएं कलकत्ते के भारतीय नामक पत्र में प्रकाशित होने लगी। बंगला-साहित्य में अभिरुचि का जन्म उनके शैशव में ही हो चुका था। इसी तरह वह शिशु साहित्यकार माँ की ममता से वंचित हो गया। जीवन की निष्ठुरता का अनुभव आपको इसके बाद ही हुआ। इसके उपरान्त सन् 1878 में आपके बड़े भाई, जो लन्दन में जज थे, पढ़ाने के लिए वहाँ से गए। लन्दन विश्वविद्यालय में आपने डेढ़ वर्ष तक अंग्रेजी का अध्ययन किया और तदुपरि भारत लौट आए तथा साहित्य-साधना में जुट गए।
साहित्य-सृजन की दृष्टि से इनके जीवन का सन् 1881 से 1887 तक का काल अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस मध्य आपने बंगला के अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनकी ‘प्रभाती’ तथा ‘सांध्य गीत’ कृतियाँ इसी काल में प्रकाशित हुई और फिर ‘सोनाइतटी’ नाम से गीत-संग्रह निकला। आपकी प्रतिमा का संस्पर्श पाकर साहित्य की विधाएं अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गईं। क्या काव्य, नाटक, उपन्यास और कहानियां कुछ भी इनसे अछूता नहीं रहा। बंगला में तो लिखा ही; साथ ही अंग्रेजी में भी आपकी लेखनी ने सिद्धहस्त सफलता प्राप्त की। काव्यों में ‘उर्वशी’ ‘साधन’ और ‘गीतांजलि’ प्रसिद्ध है चित्रांगद और विसर्जन दो नाटक भी आपने लिखे। गीतांजलि का अपने अंग्रेजी में अनुवाद किया। चूंकि आपके जीवन पर प्राचीन भारतीय मनीषियों के दर्शन एवं अध्यात्म का पूर्ण प्रभाव था अतः उसी की रहस्योन्मुखी अभिव्यक्ति इसमें हुई है। संगीत की सफलता और मादकता आपके काव्य की विभूति है। इसी पर आपको सन् 1913 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। आप पहले एशियावासी थे, जिन्हें यह विश्व पुरस्कार उपलब्ध हो सका। तब से तो आपकी साहित्यिक प्रतिमा विश्व कीर्ति का मूल बन गई। सचमुच आप विश्व मानवता के प्रतीक साहित्यकार थे। जीवन के यथार्थ रूप पर आपने अधिक बल दिया है। आपने इसी में सच्ची आराधना के दर्शन किए और प्रभु के निवास के लिए कहा भी :
तिनी गेछेन येथाम भाटि भेंगे करछे चाबा चाब ।
पाथर भेंगे कोरछे येथाय पथ, खाटछे बारोमास ॥
(अर्थात् वे जहाँ है वहाँ किसान हल चला रहा है और मजदूर पत्थर फोड़कर बारह महीने कठिन परिश्रम करके सड़क बनाते हैं।) गुरुदेव के जीवन पर वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास, दयानन्द, कबीर, सूर, तुसली, मीरा, उमर, खैयाम, और यूरोप के होमर, शेक्सपीयर, मिल्टन आदि का पूर्ण प्रभाव था। वह कर्म में आस्था रखते थे अतः मुक्ति की भी याचना नहीं की। वह कहते थे-
मुक्ति और मुक्त से कोथाय पाबि
मुक्ति कोथाय आछे ।
वैराग्य-साधने मुक्ति से आभार नय
असंख्य बंधन माझे महानन्दमय
लचिव मुक्ति स्वाद ।
(अर्थात् मैं वैराग्य-साधना से मुक्ति नहीं चाहता हूँ, असंख्य बन्धनों में ही महानन्दमय मुक्ति का आनन्द प्राप्त करना चाहता हूँ।)
स्वदेश प्रेम उनकी कविताओं में भरा हुआ है। दासत उनके कोमल हृदय को सदैव पीड़ पहुँचाती थी। वह कामना करते थे-
सवार परशे पवित्र करा तीर्थ नारे।
आजि भारतेर महामानवे सागर तीरे….
स्वतंत्रता संग्राम में अपने लोकमान्य तिलक तथा दादाभाई नौरोजी के साथ स्तुल्य कार्य किया। सन् 1901 में शान्ति निकेतन (विश्व भारती) की स्थापना की। जो कला, साहित्य और संगीत की दृष्टि से सर्वोरकृष्ट अनूठी संस्था है। 1994 में आपको भारत सरकार ने ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। लेकिन स्वदेश प्रेम के कारण आपने उसे लौटा दिया। राष्ट्र का स्वाभिमान आप में कूट-कूटकर भरा था। सचमुच कवीन्द्र रवीन्द्र हमारे समक्ष साहित्यकार और कलाकार के ही रूप में नही आते प्रत्युत एक अमर राष्ट्र नायक और भारतीय संस्कृति के साथ विश्व मानवता के अग्रगण्य समर्थक के रूप में भी प्रस्तुत होते हैं ।
निस्सन्देह कवीन्द्र रवीन्द्र साहित्य के अद्वितीय द्रष्टा और मानवता के स्रोत थे। उनका साहित्य और कृतित्व इन दैवी गुणों से भरपूर है। वे बंगला भाषा के कारण केवल बंगाल के ही नहीं थे, सम्पूर्ण भारत को तथा विश्व को भी उन पर गर्व है। उनके कृतित्व का भाव-पक्ष कवि हृदय की कोमलता और सफलता का द्योतक है। संगीत के वह प्रकाण्ड आचार्य और दर्शन शास्त्र के मनीषी थे। उनकी स्मृति का प्रतीक शान्ति निकेतन तथा कलकत्ता में जोड़ासामू स्थित प्रासाद का संगीत विद्यालय अब भी उस आलौकिक व्यक्तित्व की गुण-गीता का गान रहे हैं।