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Nijikarn – Gun evm Dosh  “निजीकरण: गुण एवं दोष” Hindi Essay, Nibandh 1200 Words for Class 10, 12 Students.

निजीकरण: गुण एवं दोष

Nijikarn – Gun evm Dosh

निजीकरण एक बहुअर्थी अवधारणा है। इससे विभिन्न प्रकार के अर्थ निकलते हैं। संकीर्ण अर्थ में, निजीकरण का अर्थ राज्य के स्वामित्व वाली ईक्विटी को निजी शेयरधारकों को बेचना, राज्य संस्थाओं से निजी क्षेत्र के उत्पादन की इकाइयों के स्वामित्व का हस्तांतरण और निजी प्रबंधन और नियंत्रण की शुरूआत है। व्यापक अर्थ में, इसका अर्थ सार्वजनिक क्षेत्र के लिए स्वायतत्ता का विस्तार, सार्वजनिक क्षेत्र का गैर-नौकरशाहीकरण, प्रावधानों और प्रशासनिक निर्देशों का विरूपण, योजना और क्रियान्वयन पर निर्णय के लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण, प्रतिस्पर्धा का विकास, सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण, इत्यादि है।

निजीकरण एक भूमंडलीय घटना है और इसे विभिन्न राज्यों के सामाजिक-राजनीतिक सिद्धांतों से परे सारे विश्व में लोकप्रियता मिली है। इसने अंततः आर्थिक स्तर पर च लिए एक मंच प्रदान करते हुए जन-कल्याण का मुखौटा पहनकर भारत की भूमि पर कदम रखा है। प्रारंभ में 1979 में अपनी कंजर्वेटिव पार्टी का अभियान शुरू करने वाली कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारिट हिल्डा थैचर ने निजीकरण शब्द का प्रतिपादन किया। इसके बाद, फ्रांस ने 1981 में 29 बैंकों एवं चार बड़े उद्योगों का निजीकरण किया। इसके बाद जर्मनी ने 958 कम्पनियों को निजी स्वामित्व को सौंप दिया। इसके बाद बृहद् पैमाने पर निजीकरण के लिए ‘निजीकरण’ शब्द पाकिस्तान, थाइलैंड, मलेशिया, ब्राजील, मैक्सिको, चिली, जापान और चीन सहित सभी देशों में विश्वव्यापी हो गया।

स्वतंत्रता के बाद, जवाहरलाल नेहरू के अधीन भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था के रूसी मॉडल या प्रारूप को अपनाया गया था। इसने कृषि में आत्म-निर्भरता प्राप्त करने और आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था के निर्माण में हमारी सहायता प्रदान की है। इतना ही नहीं, निजी क्षेत्र ने उपभोक्ता वस्तुओं का आयात करने में हमारी सहायता की है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र ने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) में 25 प्रतिशत का योगदान कर आधारभूत संरचना और आधारभूत उद्योगों के अभाव की पूर्ति की है। भारतीय अर्थव्यवस्था की कायापलट में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाए जाने के बावजूद कई वर्गों से और कई कारणों से इस क्षेत्र की कटु आलोचना की गई है। इसलिए, चारों तरफ यह महसूस किया जा रहा है कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र अपने वांछित लक्ष्य की प्राप्ति में बुरी तरह से असफल हो गए हैं। अतः, निजीकरण के प्रति लोगों में उत्साह है।

गैर-सामरिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण के पक्ष में सर्वाधिक शक्तिशाली तर्क इस तथ्य में निहित है कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को प्रतिवर्ष हानि होती रही है जबकि निजी स्वामित्व वाली इकाइयाँ सभी कठिनाईयों का सामना करते हुए लगातार लाभ अर्जित करता रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए संसाधनों पर अधिक दबाव और प्रबंधन सीमा के अंदर इसे रखने की वांछनीयता की माँग है कि भारत उद्यमियो और सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों पर काफी छोटे प्रारूप द्वारा संसाधनों के बृहद् संचालन पर अधिक जोर दे। सार्वजनिक क्षेत्र में हुई हानि को बट्टे-खाते में डालने के बाद निजीकरण से बचे भारी धन का उपयोग यातायात, दूरसंचार, तकनीकी शिक्षा और इस तरह के अन्य आधारभूत संरचना के क्षेत्रों में अधिक लाभप्रद उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। अतिरिक्त बिजली के प्रेषण और वितरण की माँग को देखते हुए नौवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक केवल बिजली क्षेत्र में 3,00,000 करोड़ रुपए के निवेश की आवश्यकता है जो बढ़ते संवेदनशील आधुनिकीकरण का सामना कर सकता है। विद्युत अधिनियम 2003 के द्वारा बिजली उत्पादन लाइसेंस मुक्त कर दिया गया है और निजी प्रतिष्ठानों को अपना उत्पादन करने की अनुमति दे दी गयी है। लेकिन पन बिजली परियोजनाओं को केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की सहमति लेनी होगी। इसके अलावा, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गरीबों के लिए रोजगार उत्पन्न करने वाली योजनाओं में पर्याप्त कोष लगाए जा सकते हैं।

निजीकरण के जरिए रुग्ण सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईयों के कार्यों का नियंत्रण अनुशासनहीन नौकरशाही तंत्र की जगह बाजार-तंत्र के अनुशासन द्वारा किया जा सकता है। दूसरे, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण से उत्पादन के समाजवादी पैटर्न में अव्यवहार्य रुग्ण इकाइयों के निकलने का मार्ग प्रशस्त होगा। तीसरे, यह सरकार के कहने पर संसाधनों की भारी मात्रा उपलब्ध कराएगा और यह बजटीय घाटे को कम करने के लिए सरकार की बजटीय सहायता के रूप में कार्य करेगा। सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण वित्तीय सहायता या अनुदान ऋण के बदले व्यावसायिक अर्थ में विदेशी निवेश आकर्षित करने के विचार से भी वांछनीय है। इसके अलावा, इससे कुछ क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त होगा।

विश्व अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण में शामिल होने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षित करना जरूरी है। यदि भारत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दूर रखता है तो इसका अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को दूर रखना होगा। बहुराष्ट्रीय होकर अधिक समय तक निर्यात वृद्धि से अलग रहना संभव नहीं है। भारतीय कम्पनियों को भी बहुराष्ट्रीय (जापानी और कोरियाई कम्पनियों के समान) होना चाहिए या भारत को बृहद पैमाने पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षित करना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ. डी. आई.) अर्थव्यवस्था के निजीकरण का एक आवश्यक भाग है। भारत की समाप्त हो रही आत्म-निर्भरता को वास्तव में विदेशी निवेश मजबूती प्रदान करेगा। विदेशी ऋण पर भारत की निर्भरता इसे ऋण जाल की ओर ले गई है। इसे विदेशी ऋण और ईक्विटी के उचित मिश्रण की आवश्यकता है। पूरी तरह से ऋण पर निर्भर लैटिन अमेरिकी देशों ने अपनी पूरी आत्म-निर्भरता खो दी है। विदेशी ईक्विटी आकर्षित करने वाले एशियाई देश अधिक शक्तिशाली और अधिक आत्मनिर्भर हैं। इसके अलावा, इक्विटी पर लाभ प्राप्त होता है और ऋण पर ब्याज भी नहीं होता है। विदेशी ईक्विटी से विशिष्ट दक्षता और प्रौद्योगिकी भी प्राप्त की जा सकती है जो पूर्णतया खरीदी नहीं जा सकती है।

इस आलोचना का खंडन करने की आवश्यकता है कि निजीकरण और बाजारोन्मुखी भूमंडलीकरण गरीब और अलाभान्वित लोगों की स्थिति को बदतर कर देगी। इसके विपरीत, गरीबों की कोई इतनी सहायता नहीं कर सकता है। पश्चिमी देशों के बाजार के अर्थव्यवस्था का मापदंड पूर्व सोवियत संघ से काफी बेहतर है। स्वीडन और जर्मनी के लोकतंत्रवादियों ने प्रमाणित कर दिया है कि सामाजिक न्याय बाजार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पूर्णतः संगत होता है और वास्तव में दोनों एक-दूसरे की सहायता करते हैं।

इसके विपरीत, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की वकालत बाजार अर्थव्यवस्था की चमक-दमक द्वारा निर्देशित नहीं होना चाहिए बल्कि अन्य समाजवादी देशों में इसके परिणामों का अनुसरण भी करना चाहिए। निजी उद्यमियों के हाथों में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों की अचानक सुपुर्दगी ने सार्वजनिक क्षेत्र को दिवालिया कर दिया है, बृहद् पैमाने पर बेरोजगारी फैला दी है और गरीबी, बुरा स्वास्थ्य तथा जनसाधारण के शोषण जैसी सामाजिक अशांति का भय पैदा कर दिया है। यह उपचार रोग से भी बुरा हो सकता है। अतः निजीकरण के गुण और दोषों को विवेकपूर्ण विश्लेषण द्वारा हल किया जा सकता है।

नागरिक विमानन, डाक सेवा, यातायात और विद्युत क्षेत्र भारी घाटे वाली इकाईयाँ हैं और राष्ट्रीय राजकोष पर बोझ है। इस बीमारी को दूर करने का एकमात्र उपाय निजीकरण है। कोयला खनन भी घाटे का क्षेत्र हैं। किंतु इसे पूरी तरह निजी क्षेत्र में नहीं सौंपना चाहिए। केवल इसका प्रबंधन निजी क्षेत्र को सुपुर्द किया जा सकता है। स्टील, बैंकिंग और बीमे का संचालन निजी एवं सार्वजनिक, दोनों क्षेत्रों द्वारा किया जा सकता है ताकि निजी लाभ के लिए सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग को रोका जा सके।

भूमंडलीकरण के लिए अपने व्यापार वातावरण में विश्व अर्थव्यवस्था के अनुरूप परिवर्तन किया जाना चाहिए। निर्यात उत्पादन के विरुद्ध भेदभाव को दूर किया जाना चाहिए। भारत में उनके पूरक सहित, सामग्री एवं पूंजी अंतर्राष्ट्रीय मूल्य पर, सभी भारतीय निर्यातकों को उपलब्ध होनी चाहिए। विविधता और विस्तार के लिए कम्पनियों को अपनी योजना बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। इसका अर्थ भारतीय कम्पनियों को सुरक्षा से वंचित करना नहीं है। चूंकि जन्य एशियाई देशों में अपने उद्योगों को सुरक्षा प्रदान की जाती है, इसलिए सुरक्षा सीमित होनी चाहिए और साथ में सर्वविदित। अक्षम फर्मों को दंडित करने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा नहीं होनी चाहिए।

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