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Munshi Premchand “मुंशी प्रेमचन्द” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

मुंशी प्रेमचन्द

Munshi Premchand

सच्चा साहित्यकार चाहे वह कवि हो या गद्यकार अपने युग का प्रतिनिधि होता है। उस काल की सभी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों एवं समस्याओं का उसकी कृतियों में पूर्ण विवरण होता है। लेकिन वह अपने कर्म की यहीं इतिश्री नहीं कर देता, उन समस्याओं का हल भी प्रस्तुत करता है, यथार्थ की भूमि पर आदर्श के सहारे जीवन में एक दिव्य ज्योति को छिटकाता है। स्व. प्रेमचन्द जी ऐसे ही अमर साहित्यकार थे। हिन्दी उपन्यास के सम्राट थे, उनके उपन्यास समय की परिस्थितियों के सजीव चित्र हैं। विशेषकर ग्रामीण जीवन का जो रूप उनमें मिलता है वह अद्वितीय है। लेकिन नागरिक जीवन की प्रत्येक गुत्थी को भी उन्होंने सुलझाएं बिना नहीं छोड़ा है। अपनी औपन्यासिक कला से उन्होंने हिन्दी उपन्यास जगत् को एक नूतन मोड़ दिया, वह कल्पना का वायवीय चित्रण न रहकर मानव-जीवन का यथा तथ्य सजीव चित्र बन गया। इस दृष्टि से इनके उपन्यास हिन्दी साहित्य की अनूठी कृतियाँ हैं।

प्रेमचन्द जी ने अपने सम्पूर्ण उपन्यासों के विषय और कथानक जीवन की यथार्थ भूमि से ही चुने। उनमें समाज के सामान्य जीवन की जीती-जागती विवेचना और धरती की गन्ध है। जीवन के ही सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव तथा उत्कर्ष – अपकर्ष और आदान-प्रदान का उनमें विश्लेषण हुआ है। कहीं वे ‘गोदान’ में ग्रामीण जीवन के अनूठे, स्वरूप बन गए है तो कहीं ‘सेवासदन’ में नारी की दुर्गति के उद्घोषक । कहीं उनमें राजनैतिक क्रान्ति का स्वर व्याप्त हो रहा है तो कहीं भारतीय संस्कृति की गूंज आपूरित है। कहीं नागरिक वातावरण के दूषित चित्र है तो कहीं धर्म और अर्थ के कारण समाज के विशृंखलित-रूप की झांकी। कहीं कारखानों में पसीने से लथपथ मजदूरों की दिनचर्या का विवेचन है तो कहीं मिल मालिकों और पूंजीपतियों के विलासमय जीवन की सजीव झांकी। कहीं समाज की मर्यादा का आकलन है तो कहीं दीनों पर होने वाले असह्य अत्याचार का विश्लेषण। कहीं शोषण की समस्या है तो कही पोषण का गम्भीर प्रश्न। कहीं कराह-कराहकर प्राणांत के कारुणिक दृश्य है तो कहीं दूसरे के धन पर भोग की उत्कट लालसा के निंदनीय चित्र है। तात्पर्य यह कि जीवन का कोई ऐसा पक्ष या ऐसा कोना नहीं है जिस पर कथा सम्राट् की दृष्टि न पड़ी हो। उन्होंने कहीं मध्यम वर्ग की आर्थिक समस्याओं को उभारा है तो कहीं मजदूरी के समर्थन में विप्लव का तूर्थनाद किया है। कहीं समाज में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए, कहीं विधवाओं की अपेक्षा के लिए, कहीं जातिवाद के लिए, कहीं रिश्वत खोरी के लिए, कहीं छुआछूत के लिए, कहीं गैर जिम्मेदारी के लिए भारी अफसोस प्रकट किया है और केवल अफसोस ही नहीं प्रकट किया है बल्कि तमाम समस्याओं के समाधान के लिए उचित मार्ग की ओर इंगित भी किया है।

कथाकार प्रेमचन्द समस्याओं को सामने लाते भी हैं और उन समस्याओं के समाधान का मार्ग भी दर्शाते हैं। उनका कथा साहित्य यथार्थ की धरती पर टिका है लेकिन केवल यथार्थ चित्रित करना ही उनका अभीष्ट नहीं है। वे यथार्थ में आदर्श की जरूरत महसूस करते हैं इसलिए श्रेष्ठ आलोचकों ने उनके कथा-साहित्य में आदर्शोन्मुख यथार्थ के दर्शन किए हैं। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में (चाहे कहानी हो या उपन्यास) कभी दहेज-प्रथा के भीषण परिणाम को स्पष्ट किया है तो कभी हिन्दू-मुसलमानों के पारस्परिक द्वेष को दूर करने के लिए मानवता को वाणी प्रदान की है। कभी यथार्थ की भूमि पर जीवन का रहस्योद्घाटन किया है तो कभी पूर्वजन्म के संस्कारों के आलौकिक तारतम्य को जोड़ा है। वर्तमान जीवन की सभी समस्याओं को लेकर उन्होंने अपने उपन्यासों के कथानक को रचा है। कहीं-कहीं उनके हल भी उपन्यासकार ने प्रस्तुत किए हैं। यद्यपि उनमें आदर्शवादी प्रवृत्ति का यहाँ बाहुल्य मिलता है लेकिन रूसी क्रान्ति के स्वर की भी जहाँ-तहां शोधक-शोषित की समस्या के समाधान लिए जगाया है। यथार्थ की भूमि पर प्रेमचन्द्रजी ने अपने सभी कथानकों को आदर्श की सीधी सुगन्ध को महकाया है। उनमें न विज्ञान की पूर्ण नग्नता है न कल्पना का वायवीय आकर्षण। बल्कि वह मानव-जीवन के कुशल चितेरे ही रहे। हैं। उसमें सत्य है, पर जीवन-निर्माण को प्रेरणा और कल्पना भी है।

उनके उपन्यासों के प्रायः सभी पात्र भूतल के ही है। उनमें जहाँ गुण हैं वही अवगुण का समावेश है। यही कारण है कि वे पाठक की सहानुभूति के आधार बन जाते है। साथ ही उनमें अधिकांश व्यक्ति (Individual) होकर जाति (Type) के प्रतिनिधि है। ‘गोदान’ का होरी गांव के कृषक-वर्ग का प्रतिनिधि है और राय साहब तथा ‘प्रेमाश्रम’ का ज्ञानशंकर आदि नागरिक वर्ग को प्रतिनिधि। दरोगा कृष्णचन्द्र ‘सेवासदन’ से पुलिस वर्ग का प्रतिनिधि है, इनके अतिरिक्त अखबार सम्पादक, मिल-मालिक, नेता, डॉक्टर, प्रोफेसर सभी तो उपन्यासों से भरे हैं। न उनमें विधवा – सधवा नारी का अभाव है न धनी निर्धन की कमी। उनके उपन्यास समाज के बोलते चेहरे हैं। क्या पुरुष क्या नारी, दोनों ही प्रकार के पात्र उनकी कला के अनेक आकर्षक हैं। चरित्र चत्रिण के लिए कहीं मनोविश्लेषणात्मक, कहीं मनोवैज्ञानिक और कहीं परिचयात्मक ढंगों को अपनाया है जिसमें उन पात्रों का अन्तः वाह्य दोनों ही पूर्णतः स्पष्ट रह गया है। वे आदर्शगामी होकर भी भूतल से पृथक नहीं हुए है। सच कहा जाए तो लेखक ने अपने पात्रों में धरा पर ही जिस देवत्व को भरा है, वह पाठक की सहानुभूति को ही जगाने का प्रेरक नहीं है अपितु कला की दृष्टि से भी उत्कृष्टता का द्योतक है। उनके कथोपकथन भी व्यावहारिक तथा स्वभावानुकूल हैं।

प्रेमचन्दजी के उपन्यासों की कला का स्वरूप सर्वाधिक उनके विषय चयन पर निर्भर हैं। कोई लेखक तभी अपनी कृति में कलात्मकता ला सकता है जबकि वह अपने युगीन जीवन को प्रत्येक संभव दृष्टिकोण से परखें। तभी उसके कृतित्व में प्रणवान् सत्ता विराजमान रह सकती हैं। मानव जीवन का जो रूप प्रेमचन्द जी ने दिया वह अनन्य किसी उपन्यास में मुश्किल है। समाज के सभी अंगों का वे सही रूप रच गये हैं। क्या मौलिक मनोवैज्ञानिक सभी धरातलों पर सूक्ष्मतम स्थिति तक पहुँच सके हैं। उनके उपन्यासों में इसलिए समाज के समस्त जीवन की झांकी मिलती है। उनकी कला प्रत्येक उपन्यास के सोपान पर निखार पाती गयी है। ‘गोदान’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है। यहाँ वह कला की दृष्टि से उत्कर्ष पर आसीन दीखते हैं। क्या कथानक का गठन और पक्षों का चरित्र, क्या विवेचन की शैली और क्या समस्याओं का उभार, क्या कथोपकथन और क्या उद्देश्य, उपन्यास के सभी अंगों पर उनका पूर्ण अधिकार है। भाषा की सरलता एवं व्यावहारिकता उनकी कला की विशेषताएँ हैं, लेकिन उच्च साहित्यता के भी दर्शन होते हैं।

उनके उपन्यासों की एक और विशेषता है आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। वे न तो जीवन की गर्हित झाँकी द्वारा पाठक को पथभ्रष्ट करना चाहते थे न कोरे आदर्शवाद के सहारे उसे कल्पनाजीवी बनाना। उनका उद्देश्य तो समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत कर उनकी समस्याओं को उभारकर समाधान करते हुए भूतल पर स्वर्ग की अवतारणा करना था। तभी तो वे इतने लोकप्रिय हो सके। उनके लिखे हुए उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, प्रतिज्ञा, निर्मला, कायाकल्प, कर्मभूमि, रंगभूमि, गबन, गोदान और मंगलसूत्र उल्लेखनीय हैं। मंगलसूत्र उनका अधूरा अन्तिम उपन्यास है।

निष्कर्ष यह है कि प्रेमचन्द जी जनता के साहित्यकार थे, समाज सुधार और सच्चे पथ-निर्देशक थे। अपने उपन्यासों से उन्होंने इसी जनवाणी को मुखरित किया, उसी के विविध जीवन सम्बन्धित पहलुओं के चित्र अंकित किये जो कला की दृष्टि से अद्वितीय हैं। निसन्देह उनकी उपन्यास-कला अमर है। उनका कृतित्व हिन्दी साहित्य का गौरव है। वे अपने उपन्यासों के माध्यम से सच्चे युग प्रतिनिधि बन मानवता का अमर सन्देश दे गये हैं, जो सदैव ही भारतीय जीवन में मानवता का संचार करता रहेगा।

सन् 1850 विश्व भर में प्रेमचन्द जन्मशती वर्ष के रूप में मनाया गया। देश-विदेश में प्रेमचन्द के साहित्य पर गम्भीर चर्चा हुई।

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