Manavadhikar “मानवाधिकार” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 10, 12 and Graduate Students.
मानवाधिकार
Manavadhikar
जर्मनी में नाजीवाद पहले साम्यवादी माने जाते थे और मै कुछ नहीं बोला क्योंकि में एक साम्यवादी नहीं था। फिर उन्हें यहूदी कहा गया तब भी मैं नहीं बोला क्योंकि में एक यहदी भी नहीं था। फिर उन्हें श्रमिक संघी कहा गया। तब भी में नहीं बोला क्योंकि में श्रमिक संघी भी नहीं था। फिर उन्हें रोम के ईसाई कहा गया तब भी मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं रोम का ईसाई भी नहीं था।
— मार्टिन नीमोलर,
पेस्टर जर्मन एवेन्जलीकल (ल्यूथरन) चर्च
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 10 दिसम्बर को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में बिना किसी मत विभाजन के अपनायी गई। यही वह पहली बहराष्ट्रीय घोषणा है जिसमें मानवाधिकारों को नाम दिया गया है और मानवाधिकार आन्दोलन ने व्यापक रूप में इसे एक घोषणापत्र के रूप में अपनाया है। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रतिज्ञापत्र पूर्ण विध्वंस के दुष्परिणामों के मद्देनजर लिखे और क्रियान्वित किए गए। दुष्परिणाम जैसे न्यूरेमबर्ग, युद्धापराध के मुकदमे, बतान मृत्यु यात्रा, परमाणु बम, और दूसरी भयावहताएँ जो आकार में तो छोटी थी, लेकिन उन लोगों पर जिन्हें इन्होंने प्रभावित किया, भयानक प्रभाव डाला। कई देशों के बहुत से लोग, जब तानाशाह उनके पड़ोसियों को कारागार में डाल रहे थे, उन्हें उत्पीड़ित कर रहे थे और मार रहे थे, यह सोचने पर उस समय मजबूर हो गए जब कोई रास्ता उन्हें नजर नहीं आया।
और बहुत से लोगों ने भी यह महसूस किया कि सामाजिक संरचनाओं में आये बदलाव ने युद्ध को बचे हुए लोगों के अस्तित्व के लिए एक खतरा बना दिया है। बहुत से देशों में बड़ी संख्या में लोग तानाशाहों के नियंत्रण में रहते थे और उनके पास रहन-सहन की इन प्रायः असहनीय परिस्थितियों से छुटकारा पाने का युद्ध के सिवाय कोई चारा नहीं बचता था। यदि इन लोगों के भाग्य को सुधारने का कोई रास्ता नहीं मिलता तो वे बगावत कर सकते थे और एक दूसरे व्यापक पैमाने के सम्भवतः परमाणु युद्ध के उत्प्रेरक बन सकते थे। दुनिया की सरकारों में ज्यादातर के प्रतिनिधि शायद पहली बार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि न केवल इसमें शामिल लोगों और देश की खातिर, बल्कि मानवता को बचाने के लिए भी, मानवाधिकारों की सुरक्षा बहुत जरूरी है।
मानवाधिकारों की अवधारणा, कई शताब्दियों से कम से कम इग्लैण्ड में राजा जॉन के समय से कई नामों से अस्तित्व में है। इग्लेण्ड के राजा के द्वारा बहुत से पुराने कानून और रीति-रिवाज तोड़े जाने के बाद, जिनसे इग्लैण्ड की सरकार चलती थी, वहां की प्रजा ने राजा को मैग्ना कार्टा या महाधिकारपत्र पर, जिसमें बहुत सी बातों का उल्लेख है जिन्हें बाद में मानवाधिकारों का नाम दिया गया, हस्ताक्षर करने लिए बाध्य किया। इनमें सरकार के हस्तक्षेप के बिना आजादी से गिरजाघर जाने का अधिकार, सभी नागरिकों के लिए निजी सम्पत्ति वंशागत करने का अधिकार, और अत्यधिक करों से मक्त रहने के अधिकार शामिल थे। इस महाधिकारपत्र ने उन विधवाओं के अधिकार की स्थापना भी की जिनके पास सम्पत्ति थी और जिन्हें दुबारा शादी करना पसन्द नहीं था और कानन के समक्ष समान प्रक्रिया और समानता के सिद्धान्तों की भी स्थापना की। इसमें वे उपबन्ध भी शामिल थे जिनके तहत घुस (रिश्वत) देना और दफ्तरों में कदाचार करने पर पाबन्दी थी।
संसार के दूसरे भागों में राजनीतिक और धार्मिक रिवाजों ने ऐसे प्रावधानों की उदघोषणा की जिन्हें मानवाधिकारों के नाम से जाना गया है और जो शासकों को न्यायसंगत और सहानुभूतिपूर्ण ढंग से शासन करने के लिए बाध्य करते हैं, और जीवन, सम्पत्ति व अपने नागरिकों की गतिविधियों पर उनकी शक्ति की सीमाओं का वर्णन करते हैं।
यूरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दियों में कई दार्शनिकों ने “प्राकृतिक अधिकारों” की अवधारणा का प्रस्ताव रखा- ऐसे अधिकार जिनका सम्बन्ध व्यक्ति के किसी देश विशेष की नागरिकता या किसी धार्मिक या अधार्मिक समूह का सदस्य होने से नहीं बल्कि प्रकृति से एक इंसान होने से था क्योंकि वह एक इंसान था। इस अवधारणा पर गर्मजोशी से बहस हुई और कुछ दार्शनिकों ने इसे एक निराधार संकल्पना मानकार खारिज कर दिया। कई और दार्शनिकों ने इसे उस मूल सिद्धान्त के सूत्रीकरण के रूप में देखा जिस पर नागरिक अधिकारों और राजनीतिक व धार्मिक स्वतन्त्रता के विचार आधारित थे।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में दो ऐसी क्रांतियां हुईं जिन्होंने इस अवधारणा की ओर काफी ध्यान आकर्षित किया। 1776 में उत्तरी अमेरिका में ज्यादातर अंग्रेजी उपनिवेशों ने अंग्रेजी साम्राज्य से अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा एक ऐसे दस्तावेज में की जो अभी तक हमारी भावनाओं को भड़काता है और बहस के लिए उकसाता है। वह दस्तावेज है “अमेरिका की आजादी का घोषणा पत्र।”
1789 में फ्रांस के लोगों ने राजसत्ता को उखाड़ फेका और सर्वप्रथम फ्रांसीसी गणराज्य की स्थापना की। इस क्रांति से ही “मानव के अधिकारों की घोषणा” का उदभव हुआ। प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोती गई लेकिन सार्वभौमिक अधिकारों की अवधारणा जोर पकड़ती गई। थामन पेनी जान स्टुआर्ट मिल और हैनरी डेविड थोरू जैसे दार्शनिकों ने अवधारणा को और बढ़ावा दिया। थोरू ही वह पहला दार्शनिक है जिसने “मानवाधिकार” शब्द का प्रयोग किया। और ऐसा ही प्रयोग उसने अपनी ‘कृति’ “सिविल डिस्ओबिडिएन्स” में भी किया है। इस कृति ने कई व्यक्तियों, जैसे लियो टाल्सटाय, महात्मा गांधी, राजा मार्टिन लूथर को बहुत प्रभावित किया है। विशेषकर गांधी और राजा मार्टिन ने, अनैतिक सरकारों के क्रियाकलापों के खिलाफ अहिंसात्मक प्रतिरोध के विचारों को इसी कृति से ग्रहण किया। मानवाधिकारों के और दूसरे शुरूआती समर्थक थे अंग्रेजी दार्शनिक जान स्टुआर्ट मिल जिन्होंने “ऐसे आन लिबर्टी” लिखी और दूसरे थे अमेरिका के राजनीतिक सिद्धान्तवादी थामस पेनी जिन्होंने “राइट्स आफ मैन” निबन्ध लिखा।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य और अन्त में बहुत से मुद्दे केन्द्र में रहे उनमें से कई मद्दों को हमने बीसवीं शताब्दी में मानवाधिकारों के मद्दे माने। इनमें दास प्रथा, कृषकदास प्रथा, काम करने की अमानवीय परिस्थितियां, बिना भोजन दिए मजदूरी करवाना, बाल श्रम और अमेरिका में ‘भारतीय समस्या’ इसी नाम से इसे वहां जाना जाता था, के मुद्दे शामिल थे। संयुक्त राज्य में एक भयानक युद्ध छिड़ गया जिसकी परिणति एक ऐसे देश के सर्वनाश में हुईं जिसकी स्थापना अभी आठ वर्ष पहले ही, “सभी मनुष्य समान रूप से पैदा हुए है” के सिद्धान्त के आधार पर हुईं थी। रूस ने अपने कृषकदासों को उसी वर्ष मुक्त करा लिया था जिस वर्ष युद्ध शुरू हुआ था। बहरहाल, न तो आजाद अमेरिकी दासों ने, और न ही रूस के आजाद हुए कृषकदासों ने, सही मायनों में आजादी या मूल अधिकारों का स्वाद कई दशाब्दियों (दशकों) तक चखा।
उन्नीसवी शताब्दी के अन्त और बीसवी शताब्दी के मध्य तक मानवाधिकारों का सक्रियतावाद व्यापक रूप में राजनीतिक और धार्मिक समूहों और मान्यताओं से जुड़ा रहा। क्रांतिकारियों ने सरकारों की क्रूरताओं को बतौर सबूत दिखाया ओर कहा कि उनकी विचारधारा सरकार की बुराइयों को खत्म करने और उनमें बदलाव लाने के लिए जरूरी है। बहुत से लोगों को सत्ताधारी सरकारों के क्रियाकलापों से नफरत होने लगी और इसी वजह से पहली बार वे क्रांतिकारी समूहों में शामिल हुए। सरकारों ने, तत्पश्चात, बमबारी, समाज में अव्यवस्था के कारणों को समझने की पहल की ओर यह जाना कि ‘असहमति’ के लिए एक कठोर नजरिया क्यों जरूरी था।
किसी भी समूह का एक दूसरे पर कोई भरोसा नहीं था और ज्यादातर संगठन असम्मिलित लोगों में अपना विश्वास खो चुके थे। यदि भरोसा था भी तो न के बराबर, क्योंकि इनके उद्देश्य मानवतावादी न होकर राजनीतिक होते थे। राजनीति में, विभाजन के विरोध अक्सर उत्पीड़न को और बढ़ा दिया करते थे और तटस्थ लोग, जो इस आपसी लड़ाई में फंस जाते थे, आमतौर पर, दोनों पक्षों को कोसते थे और किसी के भी द्वारा दिए गए कारणों को सुनने के लिए कोई प्रयास नहीं करते थे।
इतना होते हुए भी, इस दौरान कई नागरिक अधिकार और मानवाधिकार आन्दोलन बड़े समाजिक परिवर्तन लाने में सहायक रहे। मजदूर संघों ने अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में ऐसे कानून बनाए जिनमें कामगारों को हड़ताल करने का अधिकार, कार्य करने के लिए न्यूनतम उपयुक्त परिस्थितियां, बाल श्रम का निषेध या नियमन करना और सप्ताह में केवल 40 घण्टे कार्य करने का प्रावधान रखा गया। नारी अधिकार आन्दोलन महिलाओं के लिए मत डालने का अधिकार प्राप्त करने में सफल हुआ। कई देशों में, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन औपनिवेशिक ताकतों को बाहर खदेड़ने में सफल रहे। सबसे प्रभावशाली आन्दोलन महात्मा गांधी का रहा जिससे उन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलायी। युगों से पीड़ित, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों के आन्दोलन भी दुनिया के कई हिस्सों में सफल हुए। उनमें से अमेरिका में नागरिक अधिकार आन्दोलन भी एक था।
1961 में, वकीलों, पत्रकारों, लेखकों, और दूसरे बहुत से लोगों ने, जो पुर्तगाल के महाविद्यालय के दो विद्यार्थियों को 20 वर्ष के कारावास की सजा सनाए जाने से नाराज और खिन्न थे सिर्फ इसलिए कि उन्होंने एक शराबखाने में आजादी की खुशी में अपने जाम टकराये थे, “अपील फार एमनेवस्टी” 1961 का निर्माण किया। अपील की घोषणा 28 मई को लंदन आब्जर्बर्स सन्डे सप्लीमेंट में की गई। इस अपील में, विभिन्न देशों के और विभिन्न राजनीतिक या धार्मिक पृष्ठभूमि के छ: “चेतना कैदियों” की कहानी बताई गई। इन सभी को इस लिए जेल में डाला गया क्योंकि ये लोग शान्तिपूर्ण ढंग से अपने राजनीतिक व धार्मिक विश्वासों को व्यक्त कर रहे थे, और सरकारों से सभी जगह ऐसे कैदियों को आजाद करने के लिए कहा गया। इसने एक सरल कार्य-योजना सामने रखी जिसमें इन सभी कैदियों, और उन लोगों की बिनाह पर, जो उनकी ही तरह शान्तिपूर्ण ढंग से अपनी मान्यताओं को व्यक्त करने के लिए जेल में डाले गए थे, बिल्कुल पक्षपातरहित और समर्थक याचिकाए लगाने की मांग रखी गई।
इस याचिका को उम्मीद से ज्यादा समर्थन मिला। एक वर्षीय याचिका, एक वर्ष से आगे तक के लिए बढ़ा दी गई और इस प्रकार एमनेस्टी इन्टरनेशनल व आधुनिक मानवाधिकार आन्दोलन दोनों का जन्म हुआ।
आधुनिक मानवाधिकार आन्दोलन ने किन्ही नए सिद्धान्तों को जन्म नहीं दिया। यह अपनी उस पुरानी सोच से, जिसमें स्पष्ट रूप से राजनीतिक विचारधारा और समर्थनवाद का खण्डन किया गया था और अपनी मांग जिसमें इसने सरकार से अपनी विचारधारा की परवाह किए बगैर, नागरिकों के प्रति अपने व्यवहार में मानवाधिकारों के कुछ निश्चित मूल सिद्धान्तों से जड़े रहने की मांग की थी. बिल्कल अलग था। इस विचारधारा ने, उन बहुत से लोगों के समूहों को आकर्षित किया जिनमें से बहुत से राजनीति में सक्रिय नहीं थे, और न ही राजनीतिक आन्दोलन में रूचि रखते थे, और न ही वैचारिक रूप से प्रेरित थे।
और जिनकी एक समाज या अच्छी सरकार की स्थापना करने में कोई रूचि नहीं थी। वे तो केवल किसी सरकार के कुछ कार्यकलापों से ही नाराज थे जैसे लोगों के साथ दुर्व्यवहार, उन्हें जेल में डालना, उत्पीड़ित करना, और अक्सर उन्हें मार देना, जिनका अपराध अपनी सरकार की विचारधारा से अलग विचारधारा में विश्वास करना या ऐसा ही जनता में प्रचार करना था। उन्होंने (निष्कपटता से, बहुत से बदनाम करने वालों के अनुसार) सरकारों को पत्र लिखें और इन लोगों की दुर्दशा से जनता को अवगत कराया। इस उम्मीद में कि शायद इन अत्याचारी सरकारों को अच्छा आचरण करने के लिए राजी किया जा सके या इन्हें बाध्य किया जा सके।
पिछले कई आन्दोलनों के शुरूआती वर्षों की तरह ही इस आधुनिक मानवाधिकार आन्दोलन के शुरूआती वर्षों में भी बहुत सी बाधाएं सामने आई। केवल 1961 के ‘अपील फारएमनास्टी’ में ही सबसे ज्यादा आधारभूत संगठन था। आधुनिक संगठन, जिसे एमनेस्टी इन्टरनेशनल का नाम दिया गया, ने अपने ढांचे में गलतियों से सीख कर ही सुधार किया। संगठन के पहले सदस्य दुरदर्शिता से संचालन नहीं करते थे और इससे पैसे की बरबादी होती थी। इस वजह से वित्त में कड़ी जवाबदेही की स्थापना की गई। पूर्ववर्ती सदस्य और स्वयंसेवक, जब वे अपने देशों में मानवाधिकारों के लिए कार्य कर रहे होते तो समर्थनराजनीति में शामिल हो जाते थे। इस बात को देखकर यह सिद्धान्त बनाया गया कि एमनेस्टी इन्टरनेशनल के सदस्यों को जहां तक व्यवहार की बात है, अपने देश के मामलों पर कार्य करने के लिए न ही कहा जाता था और न ही उन्हें अनुमति थी। शुरूआती अभियान केवल इसलिए असफल रहे क्योंकि एमनेस्टी को कुछ कैदियों के बारे में गलत सूचना दी गई। इस वजह से एक प्रभावशाली अनुसंधान अनुभाग और छानबीन की एक पूरी अवधि के बाद ही, चेतना-कैदियों को “अपनाने” की प्रक्रिया की स्थापना हुई।
सबसे बड़ा सबक जो एमनेस्टी ने सीखा और जो कईयों के लिए इस संगठन की अनोखी विशेषता थी वह यह थी कि संगठन उन्हीं बातों से जुड़ा रहे जो इसे मालूम हो, और यह अपने घोषणापत्र से बाहर जाकर कार्य न करें। एमनेस्टी को एक ऐसा संगठन कहा जाता है जो केवल एक दो चीजे ही करता है लेकिन उन्हें करता बहुत अच्छी तरह से है। एमनेस्टी इन्टरनेशनल कई मुर्दो पर मोर्चा नहीं संभालता है, जिन्हें लोग मानवाधिकारों से संबंधित मानते हैं (जैसे गर्भपात) और न ही यह सरकार के किसी रूप का समर्थन या आलोचना करता है। जब यह संगठन सभी राजनीतिक कैदियों को एक न्यायसंगत मुकदमा सुनिश्चित करने के लिए कार्य करता है तो ऐसे किसी भी व्यक्ति को चेतना- कैदी के रूप में नहीं अपनाता जिसने किसी भी कारण से हिंसा की हो या इसकी वकालत की हो। मानवाधिकार की खामियों पर शायद ही यह कोई सांख्यिकीय आंकड़े उपलब्ध करता हो और किसी एक देश में मानवाधिकार संबंधी विवरणों को दूसरे देश के विवरणों से कभी तुलना नहीं करता। यह अलग-अलग कैदियों की बिनाह पर ही कार्य करने पर बल देता है और कुछ विशेष प्रकार के रिवाजों, जैसे उत्पीड़न और मृत्यु-दण्ड, को ही जड़ से मिटाने के लिए कार्य करता है।
बहुत से लोगों को यह बहुत प्रतिबन्धात्मक लगा। जब संगठन ने नेल्सन मंडेला का नाम, रंगभेद को नीति से पीड़ित लोगों के खिलाफ एक हिंसात्मक संघर्ष को समर्थन देने के कारण अपनी अपनाए गई कैदियों की सूची से हटा दिया तो कई लोकतन्त्र समर्थकों को यह बहुत बुरा लगा। (उस समय वह एक काला दक्षिण अफ्रीकी रंगभेद नीति विरोधी सक्रियतावादी था जिसे हत्या के झूठे मामलों में फंसाकर जेल में डाला गया था) दूसरे लोग इसलिए दुखी थे कि एमनेस्टी सरकार के किसी भी स्वरूप की आलोचना नहीं करती थी, ऐसी सरकार की भी नहीं (जैसे रूसी पद्धति का साम्यवाद, या फांसीसी पद्धति का फासीवाद) जो आन्तरिक रूप से मूल मानवाधिकारों के प्रति सम्मान के संबंध में प्रायः बुरी और परस्पर-विरोधी थी। कई सक्रियतावादियों ने यह महसूस किया कि मानवाधिकारों को एक विस्तृत कार्य क्षेत्र के तहत ही बेहतर ढंग से प्राप्त किया जा सकता है।
कई वर्षों तक इन सरोकारों और दूसरों के संयोजन की वजह से मानवाधिकारों के दूसरे समूहों का सृजन हुआ। इन समूहों में वे समह थे जिनसे मिलकर बाद में ‘ह्यमन राइटस वाच’ बने। इनमें सबसे पहला था 1978 का ‘हेल्सिन्की वाच’ । क्षेत्रीय मानवाधिकार निगरानी समह अक्सर बहुत ही मश्किल परिस्थितियों में कार्य करते थे। विशेष रूप से वे समूह जो ‘सोवियत ब्लाक में थे। “हेल्सिन्की वाच” जो बाद में ह्यूमन राइट्स वाच के निर्माण के लिए दूसरे समूहों में मिल गया, कुछ रूसी सक्रियतावादियों के रूप में शुरू हुआ
और जिन्होंने हेल्सिन्की की इच्छानुसार सोवियत संघ की मानवाधिकारों के प्रावधानों से समरूपता की जांच की। इसके कई सदस्य इसके बनने के कुछ ही दिनों बाद गिरफ्तार कर लिए गए और फिर सक्रिय होने का कोई मौका नहीं मिला। दूसरे क्षेत्रीय समूहों का निर्माण तभी हो पाया जब सैनिकों ने जिम्मेदारी संभाल ली। 1973 में चिली में, 1975 में पूर्वी तिमोर में, 1976 में अर्जेटिना में और 1979 में चाईनिस डेमोक्रेसी वाल मूवमेंट के बाद ही इन समूहों का निर्माण हो पाया। हालांकि इन समूहों के दर्शन, कार्य में ही बिताते थे और बहुत से मानवाधिकार सक्रियतावादी कई समूहों से जुड़े होते थे।
मानवाधिकार आन्दोलन विशेष रूप से ‘एमनेस्टी इन्टरनेशनल’ की पहचान 1970 के दशक में बढ़ी। एमनेस्टी को यूनाइटेड नेशनस संयुक्त राष्ट संघ में एक एन.जी.ओ. के रूप में एक स्थायी पर्यवेक्षक का दर्जा मिल गया। इसकी सूचनाओं को अब पूरे विश्व में, विधि-निर्माण, राज्य विभाग और विदेश मंत्रालयों में, आदेश के रूप में माना जाने लगा। इसकी प्रेस विज्ञप्तियों पर अब उस समय भी आदर से ध्यान दिया जाता था जब सरकार इसकी सिफारिशों को अनदेखा कर देती थी। 1977 में इसे इसके सराहनीय कार्य के लिए नोबेल शन्ति पुरस्कार से नवाजा गया।
युनिवर्सल डिक्लेयरेशन आफ ह्यूमन राइट्स (यू एन डी एच आर) की प्रस्तावना में बताया गया है किः इस मानव परिवार के सभी सदस्यों की अन्तनिहित प्रतिष्ठा और समान व अहस्तांतरणीय अधिकारों की मान्यता पूरे संसार में स्वतन्त्रता, न्याय और शान्ति की आधारशिला है, जहां मानवाधिकारों के प्रति असम्मान और नफरत से ऐसे निर्दयी घटनाओं की परिणित हुई है जिन्होंने मानवजाति की चेतना को ठेस पहुंचाई हो, ऐसे संसार का आगमन होगा जिसमें मानव, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, और भय से स्वतन्त्रता का आनन्द उठा सकेंगे और जिसमें चाहत को, आम लोगों की सबसे ऊंची महत्वाकांक्षा के रूप में घोषित किया गया है।
इस दृष्टि से यह जरूरी होगा कि, यदि आदमी तानाशाही और उत्पीड़न के खिलाफ बगावत को अन्तिम आश्रय या रास्ता समझने के लिए मजबूर नहीं है, मानवाधिकारों की काननी नियम द्वारा रक्षा की जाए। इस दृष्टि से यह भी जरूरी होगा कि राष्ट्रों के बीच दोस्ताना संबंधों के विकास को प्रोत्साहित किया जाए।
जिसमें, महाधिकार पत्र में संयुक्त राष्ट्र के लोगों ने मौलिक मानवाधिकारों में इन्सान की गरिमा और महत्व में, और पुरूष व महिलाओं के समान अधिकारों में, पुनः अपना विश्वास व्यक्त किया है और व्यापक स्वतन्त्रता में सामाजिक उन्नति को, और जीवन के अच्छे मानदण्डों को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया
जिसमें और स्वतन्त्रताओं की एक आम समझ ‘इस कसम’ इन अधिकारों को पूरी तरह साकार करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
यू.एन.डी.एच आर में बहुत से अधिकार पत्र हैं:- लोगों और राष्ट्रों के नागरिक और राजनीति अधिकारों का सविस्तार वर्णन करता है। राष्ट्रों के अधिकारों में है:-
स्वयं संकल्प का अधिकार
स्वामित्व का अधिकार
अपनी सम्पत्ति के स्वतंत्रतापूर्वक खरीद फरोख्त करने का अधिकार और जीवन निर्वाह करने के साधनों से वंचित न करने का अधिकार।
व्यक्ति के अधिकारों में है:
- जब व्यक्ति के अधिकारों का हनन हो तो कानूनी रास्ता अपनाने का अधिकार, चाहे अतिक्रमणकारी ने अधिकारिक तौर पर ही क्यों न ऐसा किया हो।
- जीवन का अधिकार
- स्वतन्त्रता और कहीं भी इच्छानुसार आने-जाने की आजादी का अधिकार
- कानून के समक्ष समानता का अधिकार
- अपराध साबित होने तक बेगुनाह मानने का अधिकार
- दोष सिद्धि के लिए याचिका फाइल करने का अधिकार
- कानून के समक्ष एक इंसान माने जाने का अधिकार
- गोपनीयता रखने और कानून के अनुसार उसकी रक्षा करने का अधिकार
- विचार, चेतना और धर्म की आजादी
- राय व्यक्त करने और अभिव्यक्ति की आजादी
- सभा करने और संगठन बनाने की आजादी
यह अधिकारपत्र यातना देने, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार करने, गलामी या जबरन सेवा मनमानी पूर्ण गिरफ्तारी, नजरबन्दी, और कर्जदार को कारावास में डालने की मनाही करता है। यह ऐसे किसी प्रकार की भी मनाही करता है जो जाति,धर्म, राष्ट्रीय मूल या भाषा पर आधारित किसी युद्ध या नफरत को बढ़ावा देता हो।
यह लोगों को यह अधिकार भी प्रदान करता है कि वे आजादी से उस व्यक्ति को चुन सके जिससे वे विवाह करना चाहते है। यह लोगों को आजादी से अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार, परिवार बनाने का अधिकार प्रदान करता है और इसमें यह अपेक्षा है कि दोनों दंपत्ति युगल के बीच शादी और परिवार के प्रति कर्तव्यों और जिम्मेदारियों की सहभागिता है। यह सन्तान पैदा करने के अधिकारों की गारंटी देता है और जाति, लिंग, रंग, राष्ट्रीय मूल या भाषा पर आधारित भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाता है।
यह मृत्युदण्ड पर भी प्रतिबन्ध लगाता है, चाहे अपराध कितने भी गम्भीर क्यों न हों। और दण्डित लोगों को सजा में परिवर्तन की याचिका फाइल करने के अधिकार की गारण्टी देता है और 18 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिए मृत्यु-दण्ड को पूरी तरह से निषद्ध करता है।
यह सरकारों को इन अधिकारों में से कुछ अधिकारों को केवल सिविल आपातकाल में ही स्थगित करने की अनुमति देता है और उन अधिकारों के बारे में भी बताता है जिन्हें किसी भी कारणवश स्थगित नहीं किया जा सकता। यह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की भी स्थापना करता है।
सन्धिवार्ताओं और पुर्नलेखन के लगभग दो दशकों के बाद ही नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के सार्वभौमिक अधिकारपत्र पर 1966 में सहमति बनी 1976 में, अपेक्षित 35 राज्यों द्वारा अनमोदित किए जाने के बाद, यह एक अन्तरराष्ट्रीय कानून बन गया।
एक वैकल्पिक विज्ञप्ति भी, “नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के इस अधिकार पत्र” को व्यक्तियों और हस्ताक्षर करने वाले देशों के द्वारा मानवाधिकारों का हनन किए जाने पर की गई शिकायतों की मानवाधिकार आयोग द्वारा जांच पड़ताल करने और उन पर न्याय करने का अधिकार प्रदान कर, इस अधिकार पत्र को न्यायिक बल प्रदान करती है।
आधिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का अधिकार पत्र व्यक्ति और राष्ट्रों के मूल आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का ब्यौरा देता है जिसमें निम्नलिखित भी शामिल है।
- स्व-संकल्प
- वह मजदूरी जो न्यूनतम जीवन स्तर की पर्याप्त गारन्टी देती हो
- समान कार्य के लिए समान वेतन
- उन्नति के समान अवसर
- श्रम संघ बनाने की अनुमति
- हड़ताल करने की अनुमति प्रसूति के समय भुगतान या किसी दूसरी क्षति-पूर्ति सहित छुट्टी निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा और सभी स्तरों पर सुलभ शिक्षा की व्यवस्था बौधिक सम्पत्ति के लिए स्वामित्व, पेटेन्ट सुलभ, और ट्रेडमार्क रखने की अनुमति।
इसके अतिरिक्त यह समझौता बाल-शोषण पर प्रतिबंध लगाता है और सभी राष्ट्रों से अपेक्षा करता है कि वे दुनियां में भुखमरी को समाप्त करने में सहयोग करें। प्रत्येक देश के लिए, जिसने भी इसे अनुसमर्थित किया है, यह अपेक्षित है कि वह जनरल सेक्रेटरी को इन अधिकारों की उन्नति और इन्हें उपलब्ध कराने संबंधी वार्षिक रिपोर्ट भेजें। जनरल सेक्रेटरी इन रिपोर्टों को आर्थिक और सामाजिक परिषद। इस अधिकार पत्र के मूल-पाठ को 1966 में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अधिकार-पत्र के साथ ही अन्तिम रूप दिया गया। लेकिन अभी तक इसे अनुसमर्थत नहीं किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र की सशस्त्र सेना में जख्मी और बीमार सैनिकों की दशा से संबंधित समझौते को प्रथम जेनेवा समझौता भी कहा जाता है। प्रथम जेनेवा समझौता, यद्ध के दौरान व्यक्तियों, लड़ाकुओं और गैरलड़ाकुओं के अधिकारों पर केन्द्रित है। यह लम्बी और विस्तृत है, शायद इसलिए कि मानवाधिकारों को युद्ध की स्थिति के अलावा किसी समय खतरा नहीं होता है, विशेष रूप से, इसमे युद्ध-कैदी या शत्रु के बंधक सैनिक शामिल हैं।
जनसंहार विरोधी समझाते ऐसे कृत्यों पर अंकुश लगाता है जिनका इस्तेमाल किसी राष्ट्रीय, मानवजातीय, जातीय या धार्मिक समूह को आंशिक या व्यापक रूप में बर्बाद करने के लिए किया गया हो। जनसंहार को इसमें अन्तरराष्ट्रीय कानून के तहत एक अपराध माना गया है चाहे जनसंहार युद्ध के दौरान किया गया हो या शान्तिकाल में। और इस पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को अपने अधिकार क्षेत्र में नरसंहार संबंधी कृत्यों की रोकथाम और सजा संबंधी उपाय करने के लिए बाध्य करता है। यह कानून किसी भी जातीय, मानवजातीय, राष्ट्रीय या धार्मिक समूह के सदस्यों को उनके केवल किसी समूह विशेष का सदस्य होने के कारण मौत के घाट उतारने, किस भी समूह के सदस्यों को गम्भीर शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुंचाने, या इन सदस्यों को जीवन की ऐसी परिस्थितियों में डालने, जिसमें इन्हें बर्बाद करने का इरादा किया गया हो, किसी समूह पर ऐसे मानदण्ड थोपे जाने, जिनमें जन्म पर रोक लगाई गयी हो, और समूह के सदस्यों के बच्चों को इनसे दूर ले जाकर किसी दूसरे समूह को देने पर भी प्रतिबंध लगाता है।
इस कानून के तहत जनसंहार, षडयंत्र या जनसंहार के लिए भड़काने, जनसंहार करने के प्रयास और जनसंहार करने में सहापराधिता अवैध माने जाएंगे। इन कृत्यों के लिए व्यक्तियों को ही जिम्मेदार ठहराया जायेगा, चाहे उन्होंने ये कृत्य आधिकारिक तौर पर किये हों या निजी तौर पर। इस समझौता पर हस्ताक्षर करने वाले देश अपने राष्ट्रीय कानून के तहत अधिनियम 3 में इन्हें अवैध घोषित करने संबंधी उपयुक्त कानून बनाने के लिए और अतिक्रमणकारी को उपयुक्त दण्ड देने के लिए बाध्य हैं।
जनसंहार के कृत्य करने वाले लोगों पर, एक राष्ट्रीय न्यायपीठ द्वारा उस क्षेत्र में जहां ये कृत्य हुए हैं या समुचित रूप से स्थापित अन्तर्राष्ट्रीय न्यायपीठ, जिसका क्षेत्राधिकार राज्य या शामिल राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो, द्वारा मुकदमा चलाया जा सकता है। प्रत्यर्पण के लिए, (अपराधी का) जनसंहार के आरोप को एक राजनीतिक अपराध नहीं मान जा सकता और राष्ट्रीय कानूनों और सन्धियों के नियामानुसार सन्धि का कोई भी सदस्य देश में जनसंहार के कृत्यों को रोकने और उन पर सजा सुनाये जाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में मदद के लिए जा सकता है।
समझौता के शेष भाग में राज्यों के बीच इस विवादों को सुलझाने का ब्यौरा दिया गया है कि क्या कोई विशेष अधिनियम (या अधिनियमों) में जनसंहार से संबंधित कानून है, और समझौते के अनुसमर्थन हेतु प्रक्रियाएं प्रदान की गई हैं।
‘उत्पीड़न के विरूद्ध समझौतें में सभी परिस्थितियों में उत्पीड़न पर प्रतिबंध है और उत्पीड़न के खिलाफ संयक्त राष्ट्र समिति की स्थापना की गई है। विशेष रूप से यह उत्पीड़न को परिभाषित करता है और सभी देशों से मांग करता है कि वे उत्पीड़न को रोकने के लिए प्रभावशाली कानूनी और अन्य कदम उठायें और यह घोषणा भी करता है कि न तो किसी भी आपातकालीन स्थिति अन्य बाह्य चुनौतियों और न ही किसी उच्च अधिकारी या प्राधिकरण के किसी आदेश द्वारा उत्पीड़न को न्यायसंगत ठहराया जाएगा। यह समझौता देशों को इस बात की भी मनाही करता है कि वे किसी शरणार्थी को उसके देश को तब न सौंपे यदि इस बात पर विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि उसे वहां उत्पीडित किया जा सकता है और इसमें मेजबान देशों से यह अपेक्षा है कि वे इस निर्णय को लेने में व्यक्ति के मल देश के मानवाधिकारों पर विचार करें।
कैट में देशों से उत्पीड़न को गैर-कानूनी करार देने, और उत्पीड़न करने वालों के लिए उपयुक्त सजा देने की अपेक्षा है। इसमें देशों से यह भी अपेक्षा है कि जब उनके अधिकार क्षेत्र में कोई उत्पीड़न किया गया हो तो वे अपना क्षेत्राधिकार भी बतायें और या तो स्वयं जांच पड़तार करें और मकदमा चलाये जा या किसी समचित प्रार्थना पर संदिग्ध व्यक्तियों को किसी दूसरे योग्य न्यायालय के समक्ष मुकदमें का सामना करने के लिए उनका प्रत्यर्पण करें। यह देशों से किन्ही भी नागरिक कार्यवाहियों में सहयोग देने की भी मांग करता है। उत्पीड़न को रोकने के लिए कानून की बाध्यता और सैनिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना, पूछताछ के तरीकों की समीक्षा करना और इन आरोपों की तुरन्त जांच करना कि इसके कर्मचारियों ने अपने आधिकारिक कर्तव्य के दौरान उत्पीड़न किया है, प्रत्येक देश का कर्तव्य है। ये इस बात को भी सुनिश्चित करें कि जिन लोगों ने यह आरोप लगाया है कि किसी ने उनका उत्पीड़न किया है उन्हें आधिकारिक रूप से शिकायत करने और इसकी जांच पड़ताल करवाने की अनुमति हो और यदि शिकायत सही साबित हो, तो उन्हें ऐसा हरजाना मिले जिसमें पूरा चिकित्सकीय इलाज और यदि उत्पीड़ित व्यक्ति उत्पीड़न के परिणामस्वरूप मर जाता है तो उसके उत्तराधिकारियों को पैसा दिया जाए। यह राज्यों को उत्पीड़न के दौरान या इसके परिणामस्वरूप चलाये गये मुकदमे के दौरान किसी अपराध स्वीकृति या किसी बयान को सबूत मानने पर भी प्रतिबंध लगाता है। यह ऐसी गतिविधियों को भी निषेध करता है जिन्हें उत्पीड़न तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिसमें निर्दयी या अपमानजनक व्यवहार निहित हो।
समझौते के दूसरे भाग में उत्पीड़न के खिलाफ समिति की स्थापना की गई है और यह इसके सदस्यों और गतिविधियों संबंधी नियम निर्धारित करता है।
यह समझौता पारित कर दिया गया और 1985 में फरवरी में इसे अनुसमर्थन के लिए प्रकट किया गया। उस समय बीस राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर किए तथा एक महीने के भीतर पांच और राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर किए। वर्तमान में पैंसठ राष्ट्र इस उत्पीड़न के विरूद्ध समझौता को अनुमोदित कर चुके हैं और सोलह और न इस पर हस्ताक्षर तो कर दिये हैं लेकिन अभी तक अनुमोदित नहीं किया है।
महिलाओं के खिलाफ भेदभाव से संबंधित समझौता महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है। बाल-अधिकार की समझौता बच्चों के खिलाफ भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है और अवयस्कों के अनुकूल विशेष सुरक्षा और अधिकार प्रदान करता है।
इन सभी में नवीनतम और संभवतः जो सर्वाधिक खतरनाक प्रतीत होती है वह है मानव क्लोनिंग। हालांकि लगभग सभी वैज्ञानिकों और मानवाधिकार सक्रियतावादियों ने वांछित लाभों हेतु पशुओं की क्लोनिंग करने के विचार का समर्थन किया है, तथापि जैसे ही कोई मानव क्लोनिंग के संबंध में कार्य करता है वैसे ही सबकी भौहें तन जाती है। प्रो. हिलेरी पटनम के अनुसार, मानव क्लोनिंग द्वारा किसी भी बच्चे को “अपने माता-पिता के लिए पूर्ण आश्चर्य होने के” उसके अधिकार से वंचित रखा जाता है। ऐसी संभावनाओं से निश्चित रूप से कुछ ऐसी चिंताजनक नैतिक और राजनीतिक दुविधाएं उत्पन्न होती हैं कि जल्द ही विज्ञान उस चरम तक प्रगति कर लेगा जहां चिकित्सीय नियति की पहले ही अविश्वसनीय रूप से विस्तृत जानकारी सुलभ होगी।
परिणामस्वरूप, यूनेस्को ने वर्ष 1997 में मानव जीनोम और मानवाधिकार संबंधी वैश्विक घोषणा जारी की। तत्पश्चात नवम्बर, 99 में एक उच्च अधिकार प्राप्त राष्ट्रीय जैवनैतिक समिति गठित की जिसने कतिपय दिशानिदेश तैयार किए। इससे मात्र यही सिद्ध होता है कि मानवाधिकारों को समकालीन वास्तविकताओं की परिवर्तनशील पृष्ठभूमि के विरूद्ध निरंतर पुनर्मूल्यांकन तथा पुनःपरिभाषित किए जाने की आवश्यकता है। जैसी विकास की नियति रही है ऐसी ही नियति मानवाधिकारों की है। दोनों ही संघर्षरत है। मानवाधिकार सभी देशों में अधिक से अधिक विकास की अवस्था में है और यह सुनिश्चित करने के लिए इसे और अधिक निश्चय तथा स्पष्ट सोच की जरूरत है कि हमारी अधिकांश जनसंख्या सम्मानजनक स्थिति में जीवनयापन करे तथा सुरक्षित महसूस करे।
संयुक्त राष्ट्र के महाधिकार-पत्र में संगठन को एक ढांचे के अतिरिक्त मानवाधिकारों के कुछ महत्वपूर्ण एकीकृत उपबंधन भी हैं।
भारत में मानव के अधिकारों की रक्षा करने की अवधारणा प्राचीन समय से ही विद्यमान है। भारत में ऋगवेद में तन (शरीर) स्क्रीधि (आवास) तथा जिबासी (जीवन) जैसे 3 नागरिक स्वतंत्रता संबंधी सदों का उल्लेख मिलता है। तत्पश्चात महाभारत में राजनैतिक राज्य में व्यक्ति की नागरिक स्वतंत्रता का उल्लेख है। वस्तुतः वर्गों, समुदायों तथा जातियों में समाज के विभाजन का स्पष्टतया लक्ष्य लोगों के अधिकारों तथा कर्तव्यों को परिभाषित करना है। धर्म की संकल्पना राजा अथवा रंकों पर समान रूप से लागू होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजाओं को आदेश दिया गया है कि वह अपेक्षित वर्गों जैसे कि अनाथों, वृद्ध तथा अशक्त, पीड़ितों तथा असहायों और असहाय गर्भवती माताओं और उनके बच्चों के लिए सुविधाएं प्रदान करे।
इसके अतिरिक्त, अपने आधुनिक अवतार को प्राप्त करने के बाद भी यह पीछे नहीं रहा है। वस्तुत: संविधान सभा ने एक वर्ष के भीतर ही मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में अपनाए गए अधिकांश अधिकारों का सार संविधान में समाविष्ट किया। भारतीय संविधान के दो भाग- मौलिक अधिकारों तथा नीतिनिर्देशक तत्वों ने अपने बीच यू.डी.एच आर के प्रायः संपूर्ण क्षेत्र को कवर किया। इस तरीके से भारतीय संविधान ने एक ओर राजनीतिक तथा सिविल अधिकारों को तथा दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को संतुलित करने का प्रयास किया तथा साथ ही व्यक्तिगत अधिकारों तथा सामाजिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन कायम करने का प्रयास किया।
संविधान में सभी प्रावधान होने के बावजूद भी, एक ऐसा मानवाधिकार आयोग स्थापित करने की जरूरत महसूस की गई जिसकी शक्तियां स्पष्ट रूप से परिभाषित हो। इसका उद्देश्य एक ऐसे संगठन का निर्माण करना था जिसका एकमात्र उद्देश्य मानवाधिकारों की स्थापना करना और ऐसे मामलों की जांच करने की योग्यता प्रदान करना था जिनमें ऐसे अधिकारों का अतिक्रमण निहित हो। 1993 में मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम के तहत मानवाधिकार न्यायालयों की स्थापना की गई। मानवाधिकार आयोग के कार्यों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
“आयोग को सभी या निम्नलिखित में कोई भी कार्य करना होगा, जैसेः
(क) किसी भी पीड़ित व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से आयोग के समक्ष प्रस्तुत याचिका की पूछताछ करना और निम्नलिखित शिकायतों की जांच-पड़ताल करनाः
(i) मानवाधिकारों का अतिक्रमण या उन्हें दुरूत्साहित करना या
(ii) ऐसे अतिक्रमण की रोकथाम की उपेक्षा करना,
एक जन-सेवक द्वारा;
(ख) ऐसी कार्यवाही में हस्तक्षेप करना जिसमें मानवाधिकारों के अतिक्रमण के आरोप का मामला किसी न्यायालय में ऐसे ही किसी न्यायालय द्वारा स्वीकृति दिये जाने के बाद लम्बित हो,
(ग) राज्य सरकार को सूचित करने के बाद किसी भी कारागार या ऐसे किसी संस्थान में जाना जो राज्य सरकार के नियंत्रण में हों, और जहां लोगों को नजरबंद किया गया हो या इलाज, सुधार या साथियों की रहन-सहन की परिस्थितियों और उन पर सिफारिशें देने के उद्देश्यों से वहां रखा गया हो;
(घ) मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संविधान या उस समय प्रभावी किसी कानून के द्वारा या उसके तहत उपलब्ध कराये गये सुरक्षा-उपायों की पुर्नसमीक्षा करना और उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश करना,
(ङ) ऐसे कारकों की पर्नसमीक्षा करना, जिनमें ऐसे आतंकवादी क्रियाकलाप शामिल हैं, जो मानवाधिकारों के सुख को निषेध करते हैं, और उपयुक्त सुधारात्मक उपायों की सिफारिश करना,
(च) मानवाधिकारों से संबंधित सन्धियों व अन्य अंर्तराष्ट्रीय प्रपत्रों का अध्ययन करना और उन्हें प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित करने के लिए सिफारिशें भेजना;
(छ) मानवाधिकारों के क्षेत्र में अनुसंधान शुरू करना और इसे बढ़ावा देना;
(ज) समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकारों संबंधी शिक्षा का प्रसार करना और प्रकाशन, मीडिया, सेमिनारों और दूसरे उपलब्ध साधनों द्वारा मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए उपलब्ध सुरक्षाउपायों की जानकारी को बढ़ावा देना;
(झ) मानवाधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों और संस्थाओं के प्रयासों को प्रोत्साहित करना;
(0) ऐसे अन्य कोई भी कार्य करना, जिन्हें यह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी समझता हो।”