Jhanda Diwas – 25 November “झण्डा दिवस – 25 नवम्बर” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.
झण्डा दिवस – 25 नवम्बर (Jhanda Diwas – 25 November)
भारत में झण्डा दिवस प्रतिवर्ष 25 नवम्बर को मनाया जाता है।
राष्ट्रीय झण्डे की कहानी (Story of National Flag)
1857 के बाद स्वाधीनता संग्राम के पहले चरण में 35 वर्षों तक यूरोप की राजधानियों-लंदन, पेरिस, जेनेवा, वियना और बर्लिन में एक पारसी महिला की अजेय वाणी पूरी प्रखरता से गूँज रही थी, जो भारत की आजादी के लिए विश्व जनमत को तैयार कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को आतंक और आशंका से दहलाती रही थी। यह वाणी थी, मैडम भीकाजी कामा की जो वीर सावरकर, हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे ज्योतिपुंजों के विप्लवी प्रयासों के लिए भी प्रेरणा-स्रोत बन गई थी।
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक सम्पन्न पारसी परिवार में जन्मी यह दुबली-पतली कमजोर-सी बालिका एक दिन भारत से बाहर अपने नेतृत्व से क्रान्ति के
आंदोलन की अलख जगायेगी। (Will ignite the spark of movement.)
जर्मनी, स्कॉटलैण्ड, फ्रांस में घूमकर मैडम कामा 1905 में लंदन पहुँची। वहाँ पर वरिष्ठ नेता दादा भाई नौरोजी से उनका सम्पर्क हुआ। उनकी निजी सचिव के रूप में डेढ़ साल तक काम करते हुए मैडम कामा प्रवासी देशभक्तों और विद्वानों के सम्पर्क में आ गई थीं। इंग्लैण्ड में ही उनकी भेंट प्रसिद्ध भारतीय क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। उनके ओजस्वी भाषणों से उनकी सुषुप्त भावनाओं ने जाग कर इतना जोर मारा कि भारत लौटने का निर्णय बदल, उन्होंने वहीं से स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ दिया। श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ वह भी हाइड पार्क में खड़े होकर अपने ओजस्वी भाषणों से स्वतन्त्रता का नारा बुलन्द करने लगीं। अंग्रेजों ने उनके इस कृत्य से कुपित होकर उन्हें भारत लौट जाने को कहा, अन्यथा उन्हें कार्यवाही करने की धमकियाँ दी। पर मैडम कामा कहाँ मानने वाली थीं। उन्होंने आन्दोलन और तेज कर दिया।
1907 में उन्होंने जर्मनी के स्टूटगार्ड नगर में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भाग लेकर भारत का प्रथम राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इसके पीछे एक अद्भुत कहानी है। 1907 के जर्मनी के समाजवादी सम्मेलन में हजारों लोगों के सामने मैडम कामा को भाषण के लिए बुलाया गया। उन्होंने अपने भाषण के बीच में कहा, “मेरे राष्ट्र की परम्परा है, अपने देश के झण्डे तले बोलना, लेकिन इस समय मेरे पास देश का अपना झण्डा नहीं है और फिर आवेश में आकर उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे भारतीय झण्डे के रूप में गर्व से फहरा दिया।” पूरा पाण्डाल तालियों और नारों से गूँज उठा। साथ ही गूँज उठी मैडम कामा की यह पुरजोर अपील, “भारतवासियों! उठो और अत्याचार के विरुद्ध सिर ऊँचा कर, सीना तान कर खड़े हो जाओ।” भीड़-की-भीड़ उन्हें बधाई देने उमड़ पड़ी।
राष्ट्रीय झण्डे का प्रथम प्रारूप मैडम कामा, वीर सावरकर व उनके कुछ साथियों ने मिलकर 1905 में लंदन में तैयार किया था। सर्वप्रथम उसे बर्लिन में व फिर 1907 में बंगाल में भी फहराया गया था। इस प्रथम प्रारूप में हरा, लाल व केसरी तीन रंग की पट्टियों का समावेश था। ऊपरी लाल रंग की पट्टी में भारत के तत्कालीन आठ प्रदेशों के प्रतीक आठ खिलते हुए कमल अंकित थे। मध्य की केसरी रंग की पट्टी पर ‘वन्दे मातरम्’ लिखा था और निचली हरे रंग की पट्टी पर दाईं ओर अर्द्धचन्द्र व बाईं ओर उगता सूरज दर्शाया गया था। लाल रंग शक्ति, केसरी रंग विजय तथा हरा रंग उत्साह व स्फूर्ति का प्रतीक माना गया।
लंदन में अपने भाषणों का सिलसिला न बन्द करने पर अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें जबरदस्ती निकाल देने की धमकी दी, लेकिन वे डरी नहीं, परन्तु जब श्रीमती कामा को गुप्त रूप से खबर मिली की उनके खिलाफ कार्यवाही की जाने वाली है तो 1 मई, 1909 को वह इंग्लिश चैनल के रास्ते फ्रांस निकल गईं और पेरिस को उन्होंने अपना कार्यस्थल चुना। वहाँ से उन्होंने अपनी कलम और वाणी से ब्रिटिश क्रूरता का जुल्मी चित्र प्रस्तुत किया।
पेरिस में उनका घर क्रान्तिकारियों का आश्रय स्थल होने से एक क्रान्तितीर्थ बन गया था। वहाँ भारत, फ्रांस और रूस के सभी भूमिगत क्रान्तिकारी शरण पाते थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने उनकी गतिविधियों से बेहद आतंकित होकर, प्रयत्न किया कि वह भारत लौट जाएँ।
फ्रांस सरकार पर भी श्रीमती कामा को वापस भारत भेज देने के लिए दबाव डाला गया। इन प्रयत्नों में असफल रहने पर अंग्रेज अधिकारियों ने मैडम कामा के भारत व इंग्लैण्ड प्रवेश पर रोक लगा दी। श्रीमती कामा पेरिस में ही रह गईं। फ्रांस सरकार ने उन्हें शरण न देने के ब्रिटिश प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यदि फ्रांस द्वारा उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाता तो निश्चित ही वह गोली से उड़ा दी जातीं।
इस प्रकार फ्रांस सरकार से अभयदान पाकर उन्होंने सितम्बर, 1909 में ‘वन्दे मातरम्’ पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ कर दिया। पत्रिका के ओजस्वी और क्रान्तिकारी लेखों से उनकी ख्याति इतनी बढ़ी कि यूरोप के प्रमुख समाजवादी और क्रान्तिकारी उनसे मिलने के लिए पेरिस आने लगे।
इससे ब्रिटिश सरकार तिलमिला उठी। ‘वन्दे मातरम्’ के प्रकाशन की गुप्त खबर अंग्रेजों पर जाहिर हो जाने के बाद उसका प्रकाशन हॉलैण्ड से किया जाने लगा। श्रीमती कामा से प्रभावित होकर लेनिन ने उन्हें रूस आने के लिए कई बार निमंत्रण दिया, लेकिन परिस्थितिवश वह इस निमंत्रण को स्वीकार न कर सकीं।
1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस, ब्रिटेन का सहयोगी था।
अतः युद्ध की पूरी अवधि में मैडम कामा को अपनी गतिविधियाँ बन्द कर एक तरह से कैद में रहना पड़ा, क्योंकि मर्सीलीज की सैन्य छावनी में जाकर उन्होंने भारतीय सैनिकों को इस युद्ध से दूर रहने के लिए भड़काया था, तो फ्रांस सरकार ने उन पर कई प्रतिबन्ध लगा दिए थे।
‘वन्दे मातरम्’ के प्रकाशन द्वारा स्वतंत्रता का जयघोष और क्रान्तिकारियों की हर तरह से सहायता मैडम कामा के जीवन का मिशन बन गया था।
1908 में वीर सावरकर ने ‘प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम, 1857’ की स्वर्ण जयंती मनाई, तो आमजन में मदद तथा 1857 के शहीदों के उपेक्षित परिवारों की मदद के लिए धन मैडम कामा ने ही भेजा था। वीर सावरकर की किताब पर ब्रिटिश सरकार ने पाबन्दी लगा दी थी। बाद में सुभाषचन्द्र बोस, हरदयाल, भगतसिंह व अन्य क्रान्तिकारियों ने इसका पुनर्मुद्रण कराया। भारतीय क्रान्तिकारी इस पुस्तक को ‘गीता’ व ‘रामायण’ का दर्जा देते थे। पर सावरकर को गिरफ्तारी से बचाने का उनका गुप्ता अभियान असफल हो गया, जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ।
1 जुलाई, 1910 को एक जहाज पर गिरफ्तार हुए विनायक दामोदर सावरकर को भारत ले जाने के लिए लंदन से भारत की ओर रवाना हुआ। पेरिस में मैडम कामा और उनके एक साथी ने रास्ते में सावरकर को छुड़ाने की गुप्त नीति बनाई।
योजनानुसार 8 जुलाई की सुबह सिपाहियों की नजर बचा कर सावरकर चलते जहाज से समुद्र में कूद गए। तैरते हुए वह मर्सीलीज बन्दरगाह के किनारे पहुँचे। यहाँ मैडम कामा द्वारा सारी तैयारियाँ कर ली गई थीं। तट पर एक वाहन में क्रान्तिकारी उनकी प्रतीक्षा में थे, वे उन्हें वाहन में बिठा कर द्रुत गति से ले जाने के लिए तैयार थे, पर क्रान्तिकारियों का यह सपना बिखर गया, उन्हें थोड़ी देर हो गई थी। इस बीच किनारे पहुँच कर फ्रांस की भूमि पर गैर-कानूनी ढंग से भागते हुए सावरकर को जहाज के कर्मचारी गिरफ्तार करके पुनः जहाज पर ले गए थे।
मैडम कामा घोर निराशा में डूब गईं। लेकिन फिर से अपने में साहस का संचार किया और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगीं।
35 वर्ष तक विदेशों में निष्कासित जीवन बिताते हुए, निरन्तर काम में जुटी इस निर्भीक महिला की वृद्धावस्था में स्वदेश लौटने की इच्छा बलवती हुई। ब्रिटिश सरकार उन्हें राजनीति में भाग न लेने की शर्त पर ही यह अनुमति दे सकती थी।
मैडम कामा ने न चाहते हुए भी यह शर्त मान ली, क्योंकि वे अब एक थकी, रुग्ण और क्षीण काया वाली वृद्ध नारी मात्र थीं। नवम्बर, 1935 में मुम्बई आने पर उनकी दशा खराब हो गई और उन्हें सीधा एम्बुलेंस से अस्पताल ले जाया गया। वहाँ आठ महीने बाद 13 अगस्त, 1936 को उनका देहान्त हो गया। उन्होंने अपने अन्तिम प्रेरणास्पद वाक्य इस प्रकार कहे-
मेरा हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो ।
मेरे हिन्दुस्तान में गणतन्त्र की स्थापना हो ।
हम एक हों।
हमारी भाषा एक हो ।
और उनका आखिरी शब्द था-
‘वन्दे मातरम्‘ ।
राष्ट्रीय ध्वज : राष्ट्र का गौरव और हमारी आजादी व प्रभुता का प्रतीक
राष्ट्रीय ध्वज हमारे देश के नागरिकों की आशाओं और अभिलाषाओं का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सार्वभौम अनुराग व सम्मान है। भारत ध्वज संहिता 2002 की शर्तों में किसी भी सामान्य नागरिक, निजी संगठन व शैक्षणिक संस्थानों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर प्रतिबन्ध नहीं है। तथापि, ऐसा करते समय राष्ट्रीय ध्वज के सम्मान व मर्यादा को बनाए रखने हेतु निम्नलिखित मार्गदर्शी सिद्धान्तों की अनुपालना की जाए-
-ध्वज का किसी भी वाणिज्यिक उद्देश्य हेतु प्रयोग नहीं किया जाए।
-ध्वज सदैव सम्मान की स्थिति में एवं स्पष्ट लगा हो।
-क्षतिग्रस्त अथवा अस्त-व्यस्त ध्वज नहीं फहराया जाए।
-जहाँ तक सम्भव हो ध्वज, भारत ध्वज संहिता में दिए निर्धारित विनिर्देशनों के अनुरूप होना चाहिए।
-ध्वज के क्षतिग्रस्त अथवा मैले हो जाने की स्थिति में जलाने को वरीयता देते हुए इसे एकान्त में पूरा नष्ट कर दिया जाए, अथवा ध्वज के सम्मान को ध्यान में रखते हुए किसी अन्य पद्धति से ।
-महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय, सांस्कृतिक व खेल अवसरों पर नागरिकों द्वारा कागज से बने ध्वजों का प्रयोग किया जा सकता है। तथापि, इस प्रकार के ध्वज इन अवसरों के पश्चात् जमीन पर नहीं फेंक दिए जाएँ। जहाँ तक सम्भव हो ध्वज को सम्मान के साथ एकान्त में नष्ट किया जाए।
यह सूचित किया गया है कि कागज के स्थान पर प्लास्टिक से बने ध्वजों का प्रयोग किया जा रहा है। चूंकि प्लास्टिक के ध्वज कागज के ध्वजों के समान प्राकृतिक रूप से सड़नशील (बायोडिग्रेडेबल) नहीं है अतः यह लम्बे समय तक नष्ट नहीं होते हैं तथा जमीन पर कूड़ा-करकट पड़े रहते हैं। यह ध्वज के सम्मान को प्रभावित करता है। इस कारण प्लास्टिक के झण्डों का प्रयोग टाला जाए।
राष्ट्रीय ध्वज की बेइज्जती करना अथवा उसके प्रति असम्मान प्रदर्शित करना, राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम, 1971 के तहत दण्डनीय अपराध है।
झण्डा गायन/गीत
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा!
सदा शक्ति बरसाने वाला प्रेम सुधा बरसाने वाला॥
वीरों को हर्षाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा ।
झण्डा ऊँचा रहे हमारा ॥
स्वतन्त्रता के भीषण रण में रखकर जोश बढ़े क्षण-2 में
कांपे शत्रु देखकर मन में मिट जाए भय संकट सारा ॥
झण्डा ऊँचा रहे हमारा ॥
इस झंडे के नीचे निर्भय ले स्वराज हम अविचल निश्चय
बोलो भारत माता की जय स्वतन्त्रता हो ध्येय हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा ।।
आओ प्यारे वीरों आओ देश धर्म पर बलि-बलि जाओ।
एक साथ सब मिलकर गाओ प्यारा भारत देश हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा ॥
इसकी शान न जाने पाये चाहे जान भले ही जाये।
विश्व विजय करके दिखलाये तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।
झंडा ऊँचा रहे हमारा। विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ॥