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Hindi Essay on “Pustak Mela”, “पुस्तक मेला” Complete Paragraph, Nibandh for Students

पुस्तक मेला

Pustak Mela

निबंध संख्या : 01

संकेत बिंदुस्थान और व्यवस्थामेले का स्वरूपलाभ और महत्त्व

प्रति वर्ष दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेला लगता है। इस मेले का आयोजन नेशनल बुक ट्रस्ट करता है। अब यह मेला राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है। इस मेले में देश के सभी भागों से सैकड़ो प्रकाशक भाग लेते हैं। वे नई-पुरानी सभी प्रकार की पुस्तकों का प्रदर्शन एवं विपणन करते हैं। इस मेले को देखने के लिए लाखों की संख्या में पुस्तक प्रेमी आते हैं तथा अपनी पसंद की पुस्तकें खरीदते हैं। मेले को अनेक खंडों में बाँटकर लगाया जाता है, जिससे मनचाहे विषय पर पुस्तक उपलब्ध हो सके। इस मेले की उपयोगिता बहुत अधिक है। इसमें पाठकों को एक ही छत के नीचे सभी प्रकार की अच्छी पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं। बाहर के प्रकाशकों की पुस्तकों का अच्छा प्रचार हो जाता है तथा उसे पाठक मिल जाते हैं।

पुस्तक मेला

Pustak Mela

निबंध संख्या : 02

पुस्तकें मानव की सहचरी-शिक्षक तथा मार्गदर्शिका हैं। अवकाश के क्षणों में इनसे बढ़कर हमारा कोई हितैषी नहीं। ये हमारा मनोरंजन करती है और आवश्यक होने पर मन को शीतल शांति प्रदान करती हैं। सच्चे मित्र की भांति वे हमारे हृदय की संवेदना को जगाती है तथा उसे उतनी उदात्ता प्रदान करती हैं कि हमारी सद् प्रवृत्तियां जाग उठती हैं और हम सही अर्थों में मनुष्य बनते हैं। पुस्तकें हमें हमारा खोया आत्मविश्वास दिलाती हैं और हमें हमारी अस्मिता के प्रति जागृत हो उठती हैं। पुस्तकों ने अनोखी जनक्रांतियां की हैं तथा इतिहास की यातिभोर दी है। राष्ट्र की प्रगति का मूल लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती की आराधना में निहित हैं। ज्ञान की देवी सरस्वती की कृपा का अभाव राष्ट्र को प्रभावित गुरुवा एवं सुख-शांति नहीं प्रदान कर सकता। यही कारण है कि कृषि-मेला, शिल्प-मेला आदि भांति पुस्तक मेला भी आयोजित किए जा रहे हैं। यों तो भारत अति प्राचीनकाल से संस्कृति मेला एवं समारोहों का अभ्यस्त रहा है, तथापि ये विशेष प्रकार के मेले मुख्यतः आधुनिक युग की देन हैं। ये युगीन मांग को पूरा करते हैं। इन्हें मेला न कहकर प्रदर्शनी भी कहा जाता है, किंतु इनमें इतनी अधिक भीड़-भाड़ होती है और पारस्परिक सौहार्द का आदान-प्रदान होता है।

पुस्तक मेले में आयोजन आरंभ में यूरोप-अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही होते रहें, किंतु दो दशकों से ये भारत में भी आयोजित किए जा रहे हैं। इन मेलों का स्वरूप अभी आंचलिक, कभी राष्ट्रीय, कभी अंतर्राष्ट्रीय भी होता है। इसके आयोजन एवं इसकी व्यवस्था हेतु झांकी अर्थ, परिश्रम एवं कुशलता की आवश्यकता होती हैं। मेले एक सप्ताह या दो सप्ताह से भी अधिक समय तक चलता रहता है।

सामान्यतः प्रकाशक संघ सरकारी सहायता से इन मेलों का आयोजन एवं संचालन करता है, इन मेलों में व्यवस्था के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों, भाषाओं तथा विषयों के देशी-विदेशी प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता, अपनी-अपनी दुकानें सजाते हैं। पुस्तकों के ग्राहकों को मूलय की छूट दी जाती है और करोड़ों रुपयों का व्यापार होता है, आयोजन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि मेला का क्षेत्र प्रकाशक, लेखक एवं पाठक का त्रिवेणी संगम बन जाता हैं। इन मेलों में तीनों के साक्षात्कार होते हैं तथा पारंपरिक अलाप-संलाप की सविधा प्राप्त होती है। मेले के दिनों में विचार-गोष्ठियां आयोजित की जाती है, जिनमें तीनों ही गुटों के प्रतिनिधि अपनीअपनी समस्याएं रखते हैं तथा उन पर विचार-विमर्श किया जाता है। इन्हीं समारोहों ने साहित्यिक, व्यावसायिक, लेखकीय एवं आर्थिक आदि दृष्टिकोणों से भावी नीतियों की ओर संकेत प्राप्त होता है। इन्हीं समारोहों के माध्यम से ख्याति प्राप्त लेखकों एवं प्रकाशकों को अभिनंदित कर समाज उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करता है। कभी-कभी मेले में अंतिम एक-दो दिनों के लिए मेला मीना-बाजार का रूप ले लेता है, जिसमें पुस्तक आधे या पौने मूल्य पर बेची जाती हैं, जिससे जनता साधारण काफी लाभांवित होती है।

पुस्तक मेले का राष्ट्रीय महत्त्व है। यहां ग्रंथों का आपार भंडार संचित होता है। कई असभ्य पुस्तकें भी सहज ही सुलभ हो जाती है। साधारण पाठ के मेले में लगी पुस्तक प्रदर्शन के माध्यम से अनेक नयी-नयी पुस्तकों से परिचित होता है। किसी बड़ी से बड़ी दुकान अथवा सार्वजनिक पुस्तकालयों में जिन पुस्तकों के उसे दर्शन होते हैं, वे पुस्तकें मेले में प्राप्त हो जाती हैं। मेले में नाना विषयों से संबंधित ग्रंथों को देखता है। कहीं कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, निबंध, काव्य आदि साहित्यिक प्रकाशक तो कहीं राजनीतिक अर्थनीति, समाजनीति, इतिहास, भूगोल आदि और कहीं वैज्ञानिक विधाओं से संबंधित तथा वाणिज्य, विधि, चिकित्सा, धर्म, ज्योतिष आदि विभिन्न शास्त्रों के शत-शत ग्रंथ सुसिज्जत देखकर व्यक्ति की आंखें चकाचौंध हो उठती हैं और जागृत हो उठती है, उसकी चिर-संचित, चिरदमित ज्ञान-पिपासा। अतः पुस्तक मेले सर्वसाधारण में पुस्तकों के प्रति सहज आकर्षण पैदा करते हैं, उसकी ज्ञान-पिपासा को जगाते हैं तथा अध्ययन के प्रति उनमें रुझान पैदा करते एवं उनकी रुचि का परिष्करण करते हैं। जिन प्रदर्शनियों में देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं के ग्रंथ सुसज्जित किए जाते हैं उनमें सम्मिलित होने वालों को ज्ञान-विज्ञान के व्यापार क्षेत्र कान केवल परिचय प्राप्त होता है, वरन् उनमें ज्ञानार्जन की प्यास जग उठती है। प्रदर्शन का भ्रमण करने मात्र से अथवा समारोहों में भाग लेने मात्र से उनमें अनेक पूर्वाग्रहों के प्रति संशय पैदा होने लगता है तथा वे कुछ अधिक जानने को बेचैन होने लगते हैं। आंचलिक पुस्तकालयों तथा स्थानीय शिक्षा-संस्थानों को सहज ही सुविधा मिल जाती है। कि वे अच्छी से अच्छी पुस्तकें अपने लिए खरीद सकें, घर बैठे देश-विदेश की श्रेष्ठ पुस्तकों के संकलन एवं संचयन का सुयोग तो पुस्तक मेलों में ही मिल सकता है।

पुस्तक मेला का आयोजन राष्ट्र की परम् आवश्यकता है। यही कारण है कि यह दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक लोकप्रिय होता जा रहा है, दिसंबर महीनों से प्रति वर्ष ये मेले शुरू हो जाते हैं और देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में दो-तीन महीनों तक क्रमशः होते रहते हैं। अब यह मेला आंचलिक और कस्बाई क्षेत्रों में भी आयोजित होने लगे हैं। इनका भविष्य उज्ज्वल है। यह मेला हमारी जन-चेतना को संपृक्त करते हैं।

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