Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Samaj Aur Kuprathaye”, “समाज और कुप्रथाएँ” Complete Essay 1000 Words for Class 9, 10, 12 Students.
समाज और कुप्रथाएँ
Samaj Aur Kuprathaye
हम जहाँ रहते हैं, जिनके बीच में रहते हैं, वह समाज है। समाज मनुष्यों के मिल-जुलकर रहने का स्थान है। व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता। आज व्यक्ति जो भी कुछ है, वह समाज के कारण हैं। तो व्यक्ति है, उसका विकास या पतन है। बिना समाज के व्यक्ति की कल्पना नहीं की की,जा सकती। सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि सब समाज की देन है। समाज में फैली हुई कुरीतियाँ या कुप्रथाएं भी समाज के विकार के कारण है।
समाज की संस्थापना मनुष्य के पारस्परिक विकास के लिए हुई है। मनुष्य इस कारण ही आपसी सहयोग कर सका है और ज्ञान तथा विकास की धारा का अक्षुण्ण बनाए रख सका है। मनुष्य के समूचे विकास का आधार समाज है।
मनुष्य में सदैव सद् तथा असद् प्रवृत्तियों में संघर्ष चलता रहता है। जब असद् प्रवृति वाले मनुष्य समाज के अगुवा बन गए तब सद् प्रवृति वालों को वे तरह-तरह के उपाय व नियमोपनियम बनाकर परेशान करने लगे। वे अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए नियमों को तोड़ने लगे और मानव जाति के सामने नवीन सामाजिक व्यवस्था को पेश करने लगे, जो समाज की विसंगतियों ओर अन्तर्विरोधों से संबंध होने के कारण समाज के विकास में व्यवधान पैदा करने वाली सिद्ध हुई। इसी से करीतियों को जड़ पकड़ने का अवसर मिला कुरीतियों या कुप्रथाओं को हवा देने का काम धर्म के पुरोधाओं ने शुरू किया। वे धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैलाने लगे और परस्पर भेदभाव की दीवार खड़ी करके मानव को मानव का विरोधी बनाने में सफल हुए।
समाज विरोधी तत्वों ने अपनी शक्ति को बढ़ावा दिया और सत्यमार्ग से व्यक्तियों को हटाने में सफलता प्राप्त की। इस तरह कुरीतियों से समाज घिरने लगा। कुरीतियों को सही सिद्ध करने के लिए ग्रन्थों में अदला-बदली की, नए ग्रन्थों को रचा और नवीन व्याख्या से कुरीतियों को उचित ठहराया। समाज के अशिक्षित होने का लाभ उन लोगों ने उठाया और अदृश्य शक्तियों का घटाटोप समाज में फैलाया। अनेक ऐसे अंधविश्वासों को उन लोगों ने पानी पिया कि समाज की स्वस्थ मानसिकता रोगग्रस्त होकर भयभीत रहने लगी और सामाजिक जीवन कमजोर होता गया।
जाति का आधार जो कर्म के अनुसार था, अब जन्म के अनुसार हो गया और यह मान लिया गया कि अमुक जातियों में जन्म लेने का अर्थ है कि वह व्यक्ति पूर्वकर्मों का फल पा रहा है। उसने पहले बुरे कर्म किए थे अत: उसे स्वेच्छा से सामाजिक अभिशाप भोगना पड़ेगा। इस कारण समाज में अछूत जातियों बनी जिसके दर्शन और स्पर्श से कभी उच्च जातियों के लोग परहेज करते थे। यहाँ तक हुआ कि ऐसी जातियों के वर्ग को शहर या गाँव से अलग या बाहर रहना पडा। आज भी हमारे समाज में अछूत लोग विद्यमान है। सरकार लाख प्रयत्न कर रही है परन्तु अभी तक इस कुपरम्परा को तोड़ने में वह पूर्णतया सफल नहीं हो सकी है।
कभी विधवा विवाह करना अपराध था। विधवा को अपना जीवन उपेक्षित-सा व्यतीत करना पड़ता था। वह श्रृंगार नहीं कर सकती थी, बहुत साधारण वस्त्र-धारण करती थी, रंगीन वस्त्र भी नहीं पहन सकती थी और किसी शुभ कार्य में सम्मिलित भी नहीं हो सकती थी उसका सारा जीवन पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता था। आज विधवा-विवाह होने लगा है। परन्तु गाँवों में आज भी विधवाओं को ठपेक्षित जीवन जीना पड़ रहा है।
बाल-विवाह जिन्हें कानुनन आज अपराध माना गया है, हो रहे हैं। अनमेल-विवाह अर्थात् युवती की बढे के साथ शादी की जा रही है। दहेज का चलन आज शिक्षित समाज में भयंकर रूप धारण किए हुए है। दहेज कम लाने के कारण बहुओं को जलाया जा रहा है। यदि कोई बहु जलने से बच गई तो उसे दूध में से मक्खी की तरह घर से बाहर कर दिया जाता है। इतना विकास हो जाने पर भी यह कुप्रथा दिनो-दिन तेजी से बढ़ती जा रही है।
इसी प्रकार श्राद्ध मृत्यु, भोज, सतीप्रथा, चूँघट प्रथा, स्त्रियों को शिक्षित नहीं होने देना, जादू-टोने, शगुन-अपशगुन विचार आदि अनेक ऐसी कुप्रथाएँ हैं जो समाज को निरन्तर तोड़ रही हैं। यह सब हमारी भयत्रस्त मनोवृत्ति का परिणाम है। विवेकशून्य मानसिकता के कारण इस प्रकार असामाजिक प्रवृतियाँ समाज में पाँव जमाए हुए हैं।
वे विचार या कुप्रथाएँ जो जीवन और सामहिक जीवन को । आगे बढ़ने से रोकती है, हमें त्याग देनी चाहिए लेकिन विवेकशील वर्ग आज अशिक्षितों की अपेक्षा ऐसी प्रथाओं से अधिक घिरा हुआ है वह ऐसी कुप्रथाओं को पानी दे रहा है। उसका कारण है कि वह शिक्षित होने पर भयमुक्त नहीं हो सका है और उसके चरित्र का विकास ढंग से नहीं हो सका है। दिन पर दिन समाज अर्थलोलुपता के चंगुल में फंसता जा रहा है। कबीर जैसे अशिक्षित महात्मा ने असामाजिक तत्वों को जिस प्रकार विवेकयुक्त चुनौती दी थी, आज वैसी चुनौती देने वाला कोई नहीं है। कुप्रथाओं के विरोध में जो संस्थाएँ काम कर रही हैं, वे भी प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं कर रही है, काम कम कर पा रही है क्योंकि वे स्वयं अनेक कुप्रथाओं की शिकार है। उनमें सत्य को जीने का साहस नहीं है। हमारी वर्तमान शिक्षा भी सामाजिक कुप्रथाओं से मुक्ति दिलाने में विशेष सहायक सिद्ध नहीं हो पा रही है क्योंकि उन्होंने शिक्षा संस्थाओं को स्वावलंबी बनाने, जीवन-मूल्यों और चरित्र-निर्माण के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। शिक्षा का अर्थ नौकरी तक सीमित रखा है। आज शिक्षित वर्ग इसलिए अंदर से कमजोर है क्योंकि उसमें विपरीत परिस्थितियों, असंगत सामाजिक स्थितियों
और अपराधजन्य व्यवस्था से संघर्ष करने का नैतिक साहस नहीं है। जब तक समाज कुप्रथाओं से मुक्त नहीं होता है तब तक सद-सामाजिक जीवन की कल्पना करना दूभर है। इस दिशा में सबकों एक जुट होकर अपने लिए प्रयस करना चाहिए और कुप्रथाओं का डटकर विरोध कर उनके अस्तित्व को नगण्य करना चाहिए। यह सब चरित्र-स्थापना के लिए किए गए प्रयत्नों से ही सम्भव हो सकेगा।