Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Rupye ki Atmakatha”, “रुपये की आत्मकथा” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
रुपये की आत्मकथा
Rupye ki Atmakatha
मैं रुपया हैं। मुझे सभी लोग प्यार करते हैं। मुझे पाने के लिए लोग सदैव सब कुछ करने तैयार रहते हैं। मेरा आकर्षण ही कुछ ऐसा कि लोग कुछ भी कर गुजरें। मैं अगर चाहूँ तो राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता हैं। हर जगह सिर्फ मेरा ही बोल-बाला है। आइए, मैं आज आपको अपनी कथा सुनाता हूँ।
मेरा जन्म धरती माता के गर्भ से हुआ है। मैं वर्षों तक धरती माता की गोद में ही विश्राम करता रहा। पहले का मेरा रूप आज के इस रूप से बिल्कुल भिन्न था। मेरा बहुत बड़ा परिवार हुआ करता था। हम सब साथ मिल-जुलकर रहते थे।
समय बीता, एकदिन कुछ मानव रूपी दानवने खान की खुदाई का कार्य शुरू कर दिया, जैसे ही उनकी खुदाई शुरु हुई मेरा तो दिल ही काँप उठा। उनसे बात न बनी तो बड़ी-बड़ी मशीनों से हमारी खुदाई शुरु कर दी गई। अंतः हमने हार मान कर ऊपर आना ही ठीक समझा।
फिर क्या मानव रूपी दानवों ने हमें बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लाद कर एक बहुत बड़े भवन की ओर ले जाने लगे। वहीं कुछ रसायन से हमारी धुलाई की गई। हम सब कुछ सहन करते गए।
फिर हमें टकसाल भेज दिया गया, वहाँ हमें मिट्टी में डाल पिघलाया गया और उसके बाद साँचों में डाल नया रूप दिया गया। हमारा नया नामकरण किया गयारुपया। हमें अपने इस नए रूप पर गर्व होने लगा था।
फिर हमें थैलों में डाल एक मजबूत कमरे में जिसे मानव बैंक कहता है, वहाँ पहुँचाया गया, यहाँ के बाद हमारे जीवन में भी आजादी आने वाली थी।
एक दिन हमारा नया मालिक एक सेठ बैंक पहुँचा तो हमें उसे सौंप दिया गया। मैं खुश हो गया कि अब मैं खुली हवा में सांस ले सकता हूँ पर यह क्या… |
सेठ तो बड़ा कंजूस निकला, उसने हमारी कैद और बढ़ा दी, हमें अपनी मजबूत तिजोरी में ताले में बंद कर दिया।
फिर क्या मैं अपने जीवन से निराश हो गया और प्रभु स्मरण करने लगा कि अचानक मैंने देखा कि कुछ डाकू उस सेठ के घर डाका डालने आ पहुँचे हैं उन्होंने मुझे उस सेठ की कैद से आजाद करवाया और खुले हाथों मझे खर्च करने लगे। मैं भी उन्हें अपनी इस आजादी के बदले सुख-चैन के सारे साधन दिलाता चला गया।
पर अफसोस, मेरे कुछ भाई-बंधु अभी भी किसी न किसी सेठ की कैद में रह गए थे।
मैं आपको एक बात जरूर बताना चाहूँगा, आप लोग जितना मुझे रोलिंग (चलन) में लोगे मैं उतना ही बढ़ता जाऊंगा, एक जगह मुझे कैद कर देने से मैं घटता जाता हूँ, मेरा स्वभाव ही है मैं जितना चलँगा, उतना ही बदूंगा।
समय के साथ मैंने अपने में बदलाव आया आज मैं सिर्फ सिक्के के रूप में ही नहीं कागज के रूप में आने लगा हूँ।
पर शायद किसी की मुझे नजर लग गयी कि लोग आज कल मेरी जगह क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड आदि नवीनतम् रूपों का इस्तेमाल करने लगे।
देखा, आपने मेरी करुण व साहसपूर्ण गाथा अब आप मेरे भाग्य पर हँसना नहीं, आप जितना मेरा ध्यान रखेंगे मैं वादा करता हूँ कि मैं भी आपका उससे दुगुना