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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Pen ki Atmakatha”, ”पेन की आत्म-कथा” Complete Hindi Nibandh for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes

पेन की आत्म-कथा

Pen ki Atmakatha

मैं लेखनी, अर्थात् वह साधन हूँ, जिसके द्वारा आप जो कुछ भी चाहें बड़ी सरलता से लिख सकते हैं लेखनी यानि लिखने वाली। वही, जो यह सब लिख कर आप तक पहुंचा रही हूँ। हाँ, मुझे कलम भी कहा करते थे और कुछ लोग तो आज भी मुझे इसी नाम से पुकारा करते हैं। बीच में मुझे होल्डर भी कहा जाने लगा था। तब मेरा रूप-रंग भी कुछ अन्य का-सा था। आजकल मेरा रूप-रंग तो युग के अनुसार और पश्चिम की नकल पर बदल ही चुका है, मेरा नाम भी पश्चिम से आया हुआ पुकारा जाता है। आजकल मझे पैन या फाउनटेन पैन नाम से पुकारा जाने लगा है।

लेखनी से लेकर फाउनटेन पैन बनने तक मेरे रूप-रंग, आकार-प्रकार में तो लगातार परिवर्तन-परिवर्द्धन आया ही है; मैं जो खा-पीकर लिखा करती हूँ, उसमें और उस के तरीके में भी परिवर्तन आ गया है। पहले मेरी चोंच यानि मुख को स्याही में बार-बार ड्बोया, कई बार झटका और फिर लिखा जाता था। फिर डुबोया और फिर लिखा जाता है। इस तरह थोड़ा-सा लिखने के लिए भी मुझे काली-नीली, लाल-हरी स्याही की दवात में बार-बार गोते खाने पड़ा करते थे। लेकिन फाउनटेन पैन बनने के बाद मुझे उस सब तरह की गोताखोरी से छुटकारा मिल चुका है। अब तो एक बार मेरे पेट में काफी स्याही भर दी जाती है और मैं कई-कई पृष्ठ उसी से लगातार लिख लिया करती हूँ। यही तो है समय का चक्र । समय के साथ-साथ मेरा रूप-रंग, आकार-प्रकार, खाद्य-खुराक सभी कुछ बदला है। वैसे मेरी जीवन-कथा भाषा और लिपि की खोज तथा आविष्कार की तरह ही पुरानी है। पहले मनुष्य ने भाषा का आविष्कार किया, फिर लिपि का। उसके बाद लिपि का सदुपयोग करने के लिए मेरा-यानि लेखनी का अन्वेषण-आविष्कार किया गया। जानते हैं, सब से पहले मेरा निर्माण किस चीज से हुआ था ? नहीं, सुन कर चौंकिए नहीं कि मेरे जीवन की कहानी पक्षियों के परों अर्थात पंखों का पिछला सिरा जो सख्त और काफी नुकीला भी हुआ करता है, उसी से लिखा जाने लगा, इसी कारण मेरा नाम लेखनी’ पड़ा। आवश्यकतानुसार पर या पंख के उस भाग को पैना या चपटा बनाने के लिए पत्थर पर रगड भी लिया जाता था। वह इसलिए कि कोई पतले-पतले अक्षर लिखना पसन्द करता है, जबकि कोई मोटे-मोटे अक्षर। सो अपनी रुचि और आवश्यकतानुसार पंख की नोक को कुछ रगड़ या घिस लिया जाता अथवा मूल रूप में ही रहने देकर लिख लिया जाता। यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि अधिकतर लेखनी के लिए मोर पंख का ही उपयोग किया जाता था।

जैसे-जैसे मानव-सभ्यता-संस्कृति और भाषा-लिपि आदि का विकास होता गया. पढाई-लिखाई की आवश्यकता बढ़ती गई और प्रचार होता गया, मुझ लेखनी के रूप-रग और निर्माण प्रक्रिया में भी अन्तर आया या विकास हुआ। अब मनुष्य मुझ लेखनी को बनाने के लिए कच्चे-पक्के सरकण्डों का प्रयोग करने लगा। नहरों-नदियों के तटों पर प्राकृतिक नियम से स्वयं उग आए सरकण्डे उखाडकर, उन्हें किसी तेज धार वाले औजार से घड कर लेखनी का रूप दे दिया जाता। बाद में चाकू और ब्लेड तक का प्रयोग सरकण्डे घड़ने के लिए किया जाने लगा। तब आम प्रचलन में मेरा नामकरण भी लेखनी के स्थान पर ‘कलम’ होने लगा। मानव सभ्यता के विकास के अगले चरण में एक नए रंग ढंग से मेरा निर्माण होने लगा। पीछे से कुछ पतली और आगे से तनिक मोटी लकडी पर टिन या लोहे का एक मोल्डिड खाँचा चढ़ा दिया जाता। उसके आगे विशेष ढंग से बनाई नाव जैसी चीज चढा दी जाती, जिसे निब कहा जाता है। इस तरह लगभग तीन टुकड़ों से तैयार मुझ लेखनी के इस नए रूप को होल्डर कहा जाने लगा। निब के मोटे-पतले कई रूप हुआ करते थे। जैसे-अंग्रेजी के आई (1) वाली निब, जी (G) वाली निब आदि। आजकल मुझे फाउनटेन पैन कहा जाता है। उसके रूप-रंग आदि से तो आप सब भली प्रकार से परिचित हैं ही, सो बताने की जरूरत नहीं। हाँ, अब लेखनी के रूप में जिस स्याही वाली पैन्सिल का प्रयोग किया जाता है, उसे बॉलपैन कहते हैं।

तो यह है मेरी यानि मुझ लेखनी की अब तक की आत्मकथा। आगे मुझ में कब, कैसा परिवर्तन आएगा; कह नहीं सकती। मुझे इस बात का गर्व है कि आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महर्षि वेदव्यास, महाकवि कालिदास, गोस्वामी तुलसीदास, कवि कुल गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शेक्सपीयर, मिल्टन, महात्मा गान्धी, पं० नेहरू तथा हजारों अन्य महापुरुषों ने मेरा उपयोग कर मेरे जीवन को सार्थक और धन्य किया। साहित्य, ज्ञान-विज्ञान-सम्बन्धी सभी तरह के महान् ग्रन्थ मुझ से ही लिखे जा कर आप लोगों तक पहुँच पाए हैं। सो अपने जन्म काल से ही मैं मानवता की सेवा करती रही हूँ, आगे भी हर दशा में करती रहूँगी।

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