Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Mera Priya Lekhak”, ”मेरा प्रिय लेखक” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
मेरा प्रिय लेखक
Mera Priya Lekhak
मानव जीवन में साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। साहित्य अपने में कई विधाएँ – गद्य, पद्य, नाटक, चंपू आदि समेटे है। हर भाषा में पद्य की रचना पहले होती है, गद्य साहित्य उसके पश्चात आता है। हिन्दी में भी यही परंपरा रही। यही कारण है कि हिन्दी का गद्य साहित्य आधुनिक काल की ही देन है। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव से हिन्दी साहित्य में कई प्रतिभाशाली लेखक उत्पन्न हुए। स्वः जयशंकर प्रसाद जी भी उनमे से एक हैं। इनकी प्रतिभा बहमखी की गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में आपकी कृतियां साहित्य की निधि हैं।
श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म सन 1892 में काशी में एक सम्मानित परिवार-संघनी साहु के घर हुआ था। शैशव मे ‘प्रसाद’ पर उनके माता पिता के धार्मिक संस्कारों का प्रभाव पड़ा। प्रसाद के पिता सेठ देवीप्रसाद के यहां साहित्यकारों का जमाव बना रहता था। इससे बचपन में ही प्रसाद जी की रुचि साहित्य में हो गई। उनकी शिक्षा क्वीन्स कालिन से प्रारंभ हुई। किन्तु माता पिता का साया बचपन में ही उठ जाने के कारण उनकी पढाई सातवीं कक्षा से आगे न चल पाई। घर पर ही उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा उर्दू की पर्याप्त योग्यता प्राप्त कर ली। तब तक इनके बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। अब पूरे परिवार का भार इन पर ही आ पड़ा। उनका पारिवारिक जीवन सुखी न था।
प्रसाद के स्वभाव में विनम्रता और सहनशीलता का अपूर्व योग था। गद्य और पद्य में आपने अनेकों श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना की। इनकी रचनाओं पर पुरस्कार भी मिले। पर वे साहित्य को व्यापारिक दृष्टि से नहीं देखते थे।
काव्य ग्रंथों के अतिरिक्त प्रसादजी ने ‘अजातशत्रु’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘चन्दगुप्त’, ध्रुव स्वामिनी नाटक ग्रंथ, प्रतिवनि और आकाश दीप कहानी संग्रह, तितली और कंकाल उपन्यास तथा काव्य कला विषय पर एक निबंध संग्रह लिखा था।
गद्य साहित्य में उनके नाटकों को बहुत प्रसिद्ध मिली। भारत की प्रचीन लुप्त संस्कृति को आपने नाटकों द्वारा नव जीवन दिया है। इतिहास की उन घटनाओं को जो भारतीय संस्कृति की धरोहर है अपने नाटकों द्वारा पुनर्जीवित किया है। भारत की राष्ट्रीय भावनाओं को ये नाटक उद्वेलित करते हैं। गुप्त काल, जो भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है, उसका चित्रण इनके नाटकों में हुआ है। इन नाटकों की भाषा साहित्यिक होते हुए भी ये भरपूर मनोरंजन करते हैं। रंगमंच पर खेलने योग्य है। उनकी रचनाएं देशप्रेम का संदेश देती है।
प्रसाद जी की हर रचना में गहरा अध्ययन और भावुकता का मणि-कांचन संयोग है। प्रेम का निर्मल रूप, मनोवृत्तियों की सहज गति, धार्मिक अभिरुचि उनकी शैली की विशेषताएँ है। ‘प्रसाद’ की रचनाएँ बुद्धि जीवी वर्ग को विशेष आनन्दित करती है।
प्रसाद के उपन्यास कंकाल और तितली बडे ही मनोरंजक है। एक बार प्रारंभ कर दिया तो पाठक उनको अन्त तक पढे बिना छोडना ही नही चाहता। वे एक और भी उपन्यास की रचना कर रहे थे इसका नाम था ‘ईरावती’। वे इस उपन्यास को पूरा नहीं कर सके। सन 1940 में राजयक्ष्मा रोग के कारण इनका देहावसान हो गया। इनके अधूरे उपन्यास को किसी साहित्यकार ने पूरा तो किया है, पर यह उत्तरार्द्ध उतना सशक्त नहीं बन पडा जितना कि प्रसाद द्वारा रचित पूर्वाद्ध है। प्रसाद हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य गद्यकारों के रूप में आदर पाते है। उनकी मृत्यु पर राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की यह उक्ति सर्वथा सार्थक है।
“जयशंकर” कहते अब भी काशी आवेंगे।
किन्तु ‘प्रसाद‘ न विश्वनाथ का मूर्तिमान हम पावेंगे।।