Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Majhab nahi Sikhata, Apas me bair rakhna ”, “मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
Majhab nahi Sikhata, Apas me bair rakhna
निबंध का शीषर्क महाकवि अलामा इकबाल की कविता से लिया गया है, वे ऊर्दू के एक प्रसिद्ध शायर भी थे।
यह पंक्ति एक राष्ट्रीय आंदोलन के समय पढ़ी गई थी। यह सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन तक ही सीमित न रहकर आज कई मायनों में सभी के लिए उपयोगी है। इस कविता, शायरी के एक एक शब्द समस्त देशवासियों के रग-रग में देशभक्ति का संचार करते हैं साथ ही एक अनोखी ऊर्जा प्रदान करते हैं जिसकी मदद से देशवासी साम्प्रदायिकता की भावना से ऊपर उठकर स्वतंत्रता-संग्राम में कूद पड़ते हैं।
मजहब एक पवित्र अवधारणा है। यह अत्यंत सूक्ष्म, भावनात्मक सूझ, विश्वास और श्रद्धा है। मूलतः अध्यात्म के क्षेत्र में ईश्वर, पैगम्बर आदि के प्रति मन की श्रद्धा या विश्वास पर आधारित धारणात्मक प्रक्रिया ही मजहब है। यह बाह्य-आडंबरों, बैरभाव, अंधविश्वास आदि से ऊपर है। इसी बात को ही इकबाल जी के अलावा तकरीबन सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने कहा है।
इस सूक्ति के माध्यम से हमें संदेश मिलता है कि धर्म परस्पर बैर रखने को प्रोत्साहित नहीं करता, अपितु परस्पर मेल-मिलाप और भाई-चारे का संदेश देता है। कोई भी मजहब हो, हमें वह यही सिखाता है कि लड़ाई-झगड़े से दूर रहकर आत्म-संस्कार के द्वारा प्राणियों का हिस-साधना करना। साथ ही मजहब यह भी स्पष्ट करता है कि भले ही कोई भी मज़हब वाले ऊपर वाले को किसी भी नाम से पुकारे, पर पुकार सब की वह एक ही सुनता है।
मजहब के नाम पर लड़ाना-भिड़ाना तो केवल कुछ स्वार्थी लोगों की चाल थी।
इतिहास पर अगर नजर दौड़ाएं तो हम देखेंगे कि लोग यह जानते थे कि हम सभी एक-दूसरे के साथ भाई-चारे के साथ रहेंगे तो ही अखण्ड रहेंगे, वे जानते थे कि एकता में ही बल होता है फिर भी मजहब के नाम पर कत्लेआम हुआ और भारत माँ को टुकड़ों में विभाजित कर दिया गया।
इतिहास से नजर हटाकर अगर हम वर्तमान में मनन करें तो क्या आज भी मजहब के नाम पर दंगे फसाद नहीं होते? सदियों पुराना अयोद्धा मामला आज तक नहीं सुलझ पाया है, इसका कारण क्या हमें पता नहीं।
देश को मजहब आदि का तमंचा दिखा कर कुछ स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु देश को खण्ड-खण्ड में बाँट देना चाहते हैं। ताकि वह समय आने पर अपनी स्वार्थ की सीमा को बढ़ा सकें।
हाल ही में मजहब के नाम पर देश-विभाजन की माँग किसी से छिपी नहीं है। इतिहास स्वयं साक्षी है कि किस प्रकार कुछ पथभ्रष्टों व स्वार्थी लोगों ने मजहब के नाम पर अंधविश्वास फैलाते हुए स्वयं ईसा को, सलीब को, कीले ठोककर सूली पर लटका डाला। फिर भी उन देवदूतों को सलाम करना चाहिए जो जाते जाते भी प्रभू से उन सूली पर चढ़ाने वालों के लिए ही सुख, समृद्धि और शांति की कामना करते रहे।
महात्मा गांधी, गुरु तेगबहादूर आदि महापुरुषों को भी मजहब का नाम लेकर ही मारागया था।
मजहब धीरे-धीरे एक ऐसा ज्वलंत विषय बनता जा रहा है कि उस पर कोई चर्चा करने से भी हिचकिचा रहा है। सलमान रुश्दी, तसलीमा नसरीन जैसे लेखक इस बात का प्रमाण ।
अगर हम किसी भी मजहब की कोई भी धार्मिक पुस्तक को उठा कर देखें तो उसमें अपने-अपने तरीकों से भले ही अपने-अपने पूजनीयों की वंदना की गई है पर अंततः सन मानते तो एक ही को हैं, चाहे उसके कितने भी नाम हो, वास्तविकता तो एक ही है। धर्म सदैव से सबको जोड़ने का काम करता आया है, न कि तोड़ने का। पूरी पंक्ति इस प्रकार है
मज़ब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।
हिन्दी हैं, हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा।।