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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Loktantra aur Chunav”, ”लोकतंत्र और चुनाव” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes

लोकतंत्र और चुनाव

Loktantra aur Chunav

चुनाव को लोकतंत्री शासन-व्यवस्था की रीढ़ माना गया है। इसके बिना लोकतंत्र की परिकल्पना कर पाना ही सभव नहीं हुआ करता। लोकतंत्र का अर्थ है- लोक यानि आम जनता द्वारा चलाई जाने वाली शासन-व्यवस्था। इसी दृष्टि से लोकतंत्र की परिभाषा सकार की जाती है- वह शासन-व्यवस्था, जिसका संचालन लोक यानि जन या जनता टारा चने गए प्रतिनिधि आम जनता के हित-साधन या लाभ के लिए संचालित किया करते हैं। इस परिभाषा में ही चुनाव करने-कराने का स्पष्ट प्रावधान किया गया है।

लोकतंत्र में क्यों कि लोक या जन जन द्वारा चुने गए प्रतिनिधि शासन-व्यवस्था का संचालन किया करते हैं और वे जनता द्वारा चुने जाते हैं, इसलिए चुनाव का महत्त्व और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। लोकतंत्र-प्रणाली के बुनियादी नियमानुसार हर पाँच वर्षों के बाद चुनाव कराना आवश्यक हुआ करता है। किन्हीं अपरिहार्य कारणों से ही संसद और राष्ट्रपति पाँच वर्षों के बाद भी कुछ समय के लिए चुनाव टाल सकते हैं। चुनाव में प्रत्येक वयस्क यानि कम-से-कम अठारह वर्ष का व्यक्ति अपना मतदान कर सकता है। इसी तरह लोकतंत्र में बिना किसी जाति-धर्म का भेद-भाव किए प्रत्येक वयस्क व्यक्ति चुनाव में एक उम्मीदवार बन कर भाग ले सकता है। ऐसा वह उसी स्थान से कर सकता है कि जहाँ की मतदाता-सची में उसका अपना नाम दर्ज हो और जिस क्षेत्र में वह रह रहा हो। चुनाव लड़ने के लिए जरूरी नहीं कि व्यक्ति किसी राजनीतिक दल का सदस्य, कार्यकर्ता या अधिकारी हो। यह भी आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति अपने दल या संस्था द्वारा अधिकृत एवं घोषित उम्मीदवार हो। उस का भारतीय नागरिक और वयस्क मतदाता हाना ही आवश्यक है। इसके बाद वह निर्दलीय या स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में भी चुनाव लड़ सकता है।

चुनावों का महत्त्व इस दृष्टि से भी रेखांकित किया जाता या जा सकता है कि जनता अपने जाने-माने और परीचित जन-हितैषी उम्मीदवारों को चुनकर नगर-पालिका, नगर-निगम, विधान परिषद या संसद आदि में भेज सकती है। अपनी सामूहिक एव साम्मलित शक्ति से उस उम्मीदवाद पर दबाव भी बनाए रख सकती है कि वह किसा अनुचित दिशा में न भटक जनता की प्रगति और विकास के लिए कार्य करता रहे। आम जनता का आवश्यकताएँ जान कर उसकी आवाज अपनी जन-संस्था के माध्यम से सरकार के कानों तक पहुँचाता रहे। यह ठीक है कि जन-हित की कसौटी पर खरे न उतरने वाले उम्मीदवार या दल को बीच में यानि पाँच वर्षों से पहले वापिस बुला लेने का कोई प्रावधान मतदाता के पास नहीं रहता; अच्छा-बुरा उम्मीदवार या दल जैसा भी हो, पाँच वर्ष तो उसे सहन करना ही पड़ता है। लेकिन पाँच वर्षों बाद नए चुनाव होने पर ऐसे उम्मी के विरुद्ध मतदान कर, या उसे चुनाव के लिए खड़े ही न होने देकर मजा चखाया जन-आक्रोश तथा विरोध से परिचित कराया जा सकता है। चुनाव के द्वारा मतदाता और जन-विरोधी नीतियाँ अपनाने वाली सरकार को भी नीचा दिखा और बदल है। लोकतंत्र में जनता या लोक को और कुछ मिले या नहीं, यह अधिकार तो प्राप्त कर ही करता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकतंत्र में चुनाव का महत्त्व केवल व्यक्ति के बदलने तक ही सीमित नहीं रहा करता; बल्कि समूची सरकार और व्यवस्था तक को बदल डालने का अधिकार रहा करता है। चुनाव या लोकमत का एक प्रकार का दबाव तो होता ही है कि निर्वाचित उम्मीदवार एवं उनके द्वारा गठित सरकार जन-हित के कार्यों में मन लगाए; अन्यथा अगली बार उसे सहन नहीं किया जाएगा बल्कि बदलकर रख दिया जाएगा। भारतीय लोकतंत्र में ऐसा दो-तीन बार हो चुका है कि जब अपनी गलत नीतियों के कारण स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद से शासन कर रहे दल की सरकार को मतदाताओं के कोप का भाजन बन जाना पड़ा। इस परिवर्तन का परिणाम यद्यपि कोई विशेष जन-हित-साधन नहीं रहा; फिर भी एक प्रकार का दबाव तो रहा ही और अगली बार सरकार बनने पर उस दल ने कुछ अच्छा कर गुजरने के प्रयास भी किए। प्रान्तों में तो इस तरह के परीक्षण कई बार हो चुके हैं, यद्यपि परिणाम उनके भी सन्तोषजनक नहीं कहे और माने जा सकते।

वास्तव में लोकतंत्र की अवधारणा और परीक्षण चुनावों का दबाव रहते हुए भी सफल प्रमाणित नहीं हो सका, आज इस तथ्य को लोग अच्छी प्रकार समझने लगे हैं। तभी तो बर्नार्डशाह जैसे लोकंतत्र के हामी तक करे अपने ‘एपल कार्ट’ नामक नाटक में लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए कहना पड़ा था कि इस व्यवस्था में घोड़ा गाड़ी के आगे नहीं बल्कि गाड़ी घोड़े के आगे जोती जाती है। आज लोकतंत्र की मूल भावना और अवधारणा ही वास्तव में लालफीताशाही, भ्रष्ट राजनीति और निहित स्वार्थी माफिया-राजनीतिज्ञ गठबन्धन का शिकार होकर प्रायः समाप्त हो गई है। चुनाव भी पैसे और लाठी का खेल बनकर रह गया है। इसी कारण सजग बुद्धिजीवी किसी अन्य अच्छी व्यवस्था की खोज करने लगे हैं। जब लोकतंत्र ही अपनी मूल अवधारणा से भटक चुका है, तब चुनावों का अभी भी कुछ महत्त्व रह गया है, ऐसा माना अपने आप को धोखा देने से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया।

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