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Hindi Essay on “Bharat me Loktantrata ki Sarthakta”, ”भारत में लोकतंत्र की सार्थकता” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes

भारत में लोकतंत्र की सार्थकता

Bharat me Loktantrata ki Sarthakta

 

संसार में शासन चलाने की जो अनेक प्रणालियाँ प्रचलित है, उनमें से लोकतंत्र जन-हित की दृष्टि से सब से श्रेष्ठ प्रणाली माना गया है। इसे जनतंत्र और गणतंत्र भी कहा जाता है। इस शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषता इस की परिभाषा के अनुसार यह मानी जाती है इसमें लोक या जन (जनता) द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा जनता के हित-साधन के लिए शासनतंत्र को चलाया जाता है। जन या लोक यदि पाता है उसके चुने हुए प्रतिनिधि भ्रष्ट या अयोग्य हैं, शासन व्यवस्था को ठीक ढंग से चला पाने में समर्थ दो पा रहे तो पाँच वर्षों के बाद मतदान कर उसे बदल या हटा सकती है। लोकतंत्र में प्रत्येक बालिग मतदाता को मत (वोट) देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का संवैधानिक अधिकार रहा करता है। प्रत्येक व्यक्ति चुनाव लड़ने का अधिकार भी रखता है यह अधिकार वह किसी दल-विशेष का सदस्य होने के कारण भी पाता है और स्वतंत्र या निर्दलीय रूप से भी रखता है। मुख्यतया इन्हीं कारणों से राजतंत्र, एकतंत्र या तानाशाही, साम्यवादी समाजतंत्र आदि की तुलना में लोकतंत्र या जनतंत्र-शासन प्रणाली को अचल माना गया है।

सन् 1947 में 15 अगस्त के दिन जब भारत स्वतंत्र हुआ था, तब तक यहाँ राजतंत्र के अन्तर्गत विदेशी सत्ता का शासन चल रहा था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस लोकतंत्री व्यवस्था को सब से अच्छा और जन-हितकारी मान कर ही यहाँ इस शासन व्यवस्था को लागू कर भारत को गणराज्य घोषित किया गया। हमारे विचार में ऐसा करते समय जिन दा बुनियादी बातों की आवश्यकता थी, उसकी तरफ कतई कोई ध्यान नहीं दिया गया। जनतत्र की अवस्था में जन में अनशासन और राष्ट्रीय चरित्र, नैतिक आधार आदि का 187 परम आवश्यक हुआ करता है। पर भारत के स्वतंत्र होने के बाद न तो राष्ट्रीय पत्र-निर्माण की तरफ किसी प्रकार का ध्यान दिया गया. न जनता को अनुशासन सिखाया गया और न कोई नैतिक आधार ही प्रदान किया गया। यहाँ तक कि स्वतंत्रता का वास्तविक अथ और आधार क्या होता है, स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को किस प्रकार के नियम, अनुशासन म रहने की आवश्यकता हुआ करती है जैसी बातें सिखाना तो क्या, बनाई तक नही गई। बस पश्चिम की अन्धाधुन्ध नकल करते हुए ‘यह करो, वह बनाओ’ का नारा लगा कर आद्यागीकरण आरम्भ कर दिया गया। लोगों को किसी भी तरह का अच्छा-बुरा करने के लिए स्वतंत्र छोड दिया गया। फलस्वरूप स्वतंत्रता पूर्व पीढ़ी के परिदृश्य स ओझल होते ही चारों तरफ आपा-धापी और लट-खसौट शुरू हो गई। फलस्वरूप लोकतंत्र और उस का बुनियादी भाव दोनों ही सार्थक तो क्या होने थे, उलटे एक प्रकार का मजाक बन कर रह गए हैं।

भारत की लोकतंत्री शासन व्यवस्था देख कर वास्तव में नाटककार बर्नार्ड का यह कथन सार्थक प्रतीत होता है कि इस व्यवस्था में घोडा गाड़ी के आगे नहीं, बल्कि गाडी घोडे के आगे जोती जाती है। अर्थात् जो होना चाहिए, वह न होकर सभी कुछ उलट-पुलट हुआ करता है। फलस्वरूप अच्छा कार्य भी सफल एवं लाभदायक न होकर आम जनता पर एक प्रकार का बोझ बन जाया करता है। अब जरा भारतीय लोकतत्र के आज तक के क्रिया-कलापों पर दृष्टिपात करके देखिए-उच्च और समर्थ लोगों की दृष्टि से नहीं, बल्कि आम वर्ग की दृष्टि से, उस वर्ग की दृष्टि से कि जिसका हित-साधन करने के लिए लोकतंत्र की अवधारणा अस्तित्व में आई थी, तो एक दम स्पष्ट हो जाएगा कि इस शासन-प्रणाली से गन्दी और बोगस अन्य कोई प्रणाली है ही नहीं। भारत में लोक-हित की भावना से जितनी भी योजनाएँ बनीं, कार्य किए गए, उन सब का वास्तविक लाभ या तो सरकारी तंत्र डकार गया है या फिर इस कार्य से सम्बन्ध ठेकेदार, इंजीनियर और उन्हें सप्लाई करने वाला उच्च व्यापारी वर्ग। ऐसे में भारत में लोकतंत्र को कैसे और किस प्रकार सार्थक एवं सफल अवरेखित किया जा सकता है ?

याद आ रही है भारतीय लोकतंत्र की दयनीयता को निहार कर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की, जिन्होंने कहा था कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कम-से-कम बीस वर्षों तक भारत में एकतंत्री व्यवस्था अवश्य रखी जाएगी। उन का आशय हिटलर शाही चलाना नहीं था, बल्कि यह था कि इतने समय तक लोगों को सख्ती से अनुशासन में रख कर उन्हें स्वतंत्रता में रहना सिखाया जाएगा। जनता में राष्ट्रीय चरित्र जगाया और बनाया जाएगा। उसमें नैतिकता जागृत की जाएगी। इस प्रकार बीस वर्ष में हर तरह से अनुशासित, नैतिक राष्ट्रीय चरित्र से सम्पन्न जो पीढ़ी तैयार होगी, वह लोकतंत्र को दृढ़ता से स्थापित कर देश में उसे सार्थक भी बना सकेगी। काश ! देश में लोकतंत्र की स्थापना से पहले ऐसा सब संभव हो पाता। वैसा न हो पाने के कारण ही आज भारत में आम आदमी का इस व्यवस्था से मोह भंग हो चुका है।

लोकतंत्र की बुनियाद ऊपर कही बातें होती हैं। उनके रहते ही स्वच्छ प्रशासन की संभावना हुआ करती है। आमूल-चूल भ्रष्टाचार में डूबी नौकरशाही और राजनीतिक दल, भ्रष्ट व्यापारी और समर्थ वर्ग, इन सबके रहते लोकतंत्र की सार्थकता की भला कल्पना ही कैसे की जा सकती है?

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