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Hindi Essay on “Yadi mein Shikshak Hota” , ”यदि मैं शिक्षक होता” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

यदि मैं शिक्षक होता

Yadi mein Shikshak Hota

निबंध नंबर : 01

हर युग में शिक्षा का महत्व रहा है। जब तक धरती पर मनुष्य का जीवन रहेगा, तब तक शिक्षा का महत्व भी बना रहेगा। इसमें तनिक सा भी संदेह नहीं। शिक्षा को प्रकाश तो कहा ही जाता है, मनुष्य की आंख भी माना जाता है। शिक्षा देने वाले व्यक्ति को शिक्षक कहा जाता है। प्रकाश और आंख होने के कारण यदि शिक्षा का भी बहुत महत्व है तो वह आंख और प्रकाश देने वाले शिक्षक का भी बहुत महत्व हुआ करता है। यह कहा और माना जाने लगा है कि आज के जीवन-समाज में शिक्षा का महत्व तो है, पर शिक्षक का मान और महत्व निरंतर घट गया और घटता जा रहा है। इसके लिए जहां आज की शिक्षा-पद्धति समाज की आदर्शनहीता आदि को दोषी माना जाता है, वहां अध्यापकों का भी कम दोष नहीं कहा जाता। शिक्षा को आज के शिक्षकों ने एक पवित्र, निस्वार्थ सेवा-कर्म न दहने देकर, एक प्रकार का व्यवसाय बा दिया है, इस कारण शिक्षक का पहले जैसा सम्मान नहीं रह गया। फिर भी मैं जीवन में यदि कुछ बनना चाहता हूं तो शिक्षक ही बनना चाहता हूं। क्यों बनना चाहता हूं, इसके कईं कारण और योजनांए हैं, जिन्हें मैं शिक्षक बन कर ही पूर्ण कर सकता हूं।

यदि मैं शिक्षक होता, तो सबसे पहले अपने छात्रों को पुस्तकों एक सीमित रखने वाली इस बंधी-बंधाई शिक्षा-पद्धति के घेरे से उन्हें बाहर निकालने का यत्न करता। वास्तविक शिक्षा के लिए उन्हें बंद कक्षा-भवनों से बाहर निकालने की कोशिश भी करता। उन्हें बताता कि हमें प्रकृति की खुली किताब भी खुले मन से पढऩी चाहिए। इसमें मिलने वाली शिक्षा को ही जीवन की सच्ची और वास्तविक शिक्षा मानना चाहिए। क्योंकि हम जिस युग में रह रहे हैं, उनमें परीक्षांए भी पास करनी पड़ती हैं। परीक्षांए पार करने के लिए किताबों का पढऩा जरूरी है, इस कारण में अपने छात्रों को किताबे भी पढ़ाता अवश्य, पर उस बंधे-बंधाए ढंग से नहीं कि जो विषयों का ऊपरी ज्ञान ही कराता है, उनकी तह तक नहीं पहुंचाया करता। तभी तो कुंजियां पढऩे वाले विद्यार्थी ज्यादा चतुर बन जाता है। परीक्षाओं में अंक भी अधिक पा लेता है पर उसे वास्तविक ज्ञान कुछ नहीं होता इस प्रकार स्पष्ट है कि आज की हमारी परीक्षा-प्रणाली भी दोषपूर्ण है। जो विद्यार्थी की वास्तविक योज्यता की जांच नहीं कर पाती। इस कारण यदि मैं शिक्षक होता तो इस बेकार हो चुकी शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ परीक्षा प्रणाली को बदलवाने की भी कोशिश करता।

अकसर देखा जाता है कि हमारे शिक्षक देहातों में नहीं जाना चाहते। जाते हैं, तो वहां के वातावरण को अपनाकर पढ़ा-लिखा नहीं पाते। देहातों से आाने वाले शिक्षक अपने ही गांव के विद्यालय में नियुक्ति करवा लेते हैं। ऐसा करवाने के बाद पढ़ाना-लिखाना छोडक़र वे अपने ही घरेलू कामों में लगे रहते हैं। मैं यदि शिक्षक होता तो कहीं भी जाकर मन लगाकर पढ़ाता। अपने गांव-शहर या गली-मुहल्ले के स्कूल में नियुक्त होकर भी पहला काम पढ़ाने का ही करता अपने घरेलु धंधों का एकदम नहीं। सच्चे मन से, उत्साह और प्रयत्नपर्वक पढ़ाकर ही कोई शिक्षक जीवन-समाज में आदत तो पा ही सकता है। आत्मसंतोष भी पा सकता है। शिक्षा देना वास्तव में एक पवित्र कर्म है। राष्ट्री-निर्माण का सच्चा आधार शिक्षक ही है। सो अच्छा शिक्षक हमेशा सामने राष्ट्री निर्माण और राष्ट्र हित का ेध्यान में रखेकर चला करता है। कम से कम मैं तो अवश्य ही लक्ष्य सामने रखकर चलता।

अक्सर ऐसा कहा सुना जाता है कि आज के शिक्षक स्वंय तो पढ़ते नहीं, जो पुस्तकें विद्यार्थियों को पढ़ानी होती हैं, वे भी पढक़र नहीं आया करते, फिर वे छात्रों को क्या खाक पढाएंगे? यदि मैं शिक्षक होता, तो अपने पर यह इलजाम कभी भी न लगने देता। जो कक्षांए पढ़ानी हैं, उनका पाठयक्रम तो पढ़ता ही, विषय से संबंध रखने वाली और पुस्तकें भी पढक़र आता, जिससे अपने छात्रों को अधिक से अधिक जानकारी देकर उसका ज्ञान बढ़ाने में सहायक होता। कुछ अध्यापक स्वंय तो अपना ज्ञान कुंजियों तक सीमित रखते ही हैं, अपने छात्रों को कुंजियां पढऩे, कुंजियां खरीदने का दबाव डाला करते हैं, यदि मैं शिक्षक होता, तो कुंजियां लिखने-पढऩे पर हर तरह का प्रतिबंध लगवा देता। वास्तव में इस कुंजि-संस्कृति ने अध्यापकों की बुद्धि को तो दीवाला निकाल ही रखा है, सारी शिक्षा का वातावरण ही दूषित कर दिया है। सो मैं इस प्रकार की सभी बुराइयों के विरुद्ध डटकर संघर्ष करता। इन्हें दूर करवा कर ही दम लेता। पाठय-पुस्तकों के अतिरिक्त अच्छी पुस्तकें पढऩे की प्रेरणाा अपने छात्रों को देता, ताकि उनकी प्रतिभा का ठीक विकास हो सके।

कहा जाता है कि कक्षाओं में तो अध्यापक पढ़ाते नहीं, पर अपने घर आकर पढऩे के लिए छात्रों पर दबाव डालते हैं। दूसरे और स्पष्ट शब्दों में ट्यूशन रखने पर बल देते हैं। पच्चीस-पचास छात्रों के गु्रप बना लेते हैं। वहां भी पूरा पाठयक्रम नहीं, बल्कि आवश्यक प्रश्न ही रटा देते हैं। इस प्रकार वे हर मास छात्रों से मोटी रकमें ऐंठकर खूबर कमाई करते हैं। स्कूली परीक्षाओं में केवल ट्यूशन रखने वाले छात्रों को ही अनाम-शनाप अंक देकर पास कर देते हैं, पर जब वे विद्यार्थी बोर्ड आदि की परीक्षांए देने जाते हैं, तब पास नहीं हो पाते। इस प्रकार के ट्यूशन करने वाले शिक्षक कईं बार रिश्वत ले-देकर प्रश्न पत्र भी आउट करवा दिया करते हें। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली सभी का सत्यानाश करके रख देती है। यदि मैं शिक्षक होता तो इस ट्यूशनवादी प्रवृति को जड़-मूल से उखाड़ देने का प्रयत्न करता। स्कूल समाप्त होने के बाद कमजोर छात्रों को मुफ्त में पढ़ा देता। पर ट्यूशन कभी भूल कर भी न करता।

इस प्रकार आदर्श अध्यापक वही होता है जो अपने छात्रों की चहुंमुखी प्रतिभा के विकास के लिए प्रयत्नशील रहा करता है। यदि मैं शिक्षक होता, तो इस दृष्टि से अपने कर्तव्यों का निर्धारण और निर्वाह किया करता। मैं चाहता हूं कि देश का सारा शिक्षक वर्ग अपने को देश के भविष्य का निर्माण्ण करने वाला बन करके कार्य करे। इसी में उसका अपना, शिक्षा-जगत का, भावी नागरिक छात्रों और सारे देश का वास्तविक कल्याण है। मैं तो कम से कम ऐसा मान कर ही चलता।

निबंध नंबर : 02

यदि मैं शिक्षक होता

Yadi me Shikshak Hota

शिक्षक होना सचमुच बहुत बड़ी बात हुआ करती है। शिक्षक की तुलना उस सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से भी कर सकते हैं। जैसे संसार के प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को बनाना ब्रह्मा का कार्य है, उसी प्रकार उन सब बने हुए को संसार के व्यावहारिक ढाँचे में ढालना, व्यवहार योग्य बनाना, सजा-संवार कर प्रस्तुत करना वास्तव में शिक्षक का ही काम हुआ करता है। शिक्षक ही अपनी सुसधित सशिक्षा के प्रकाश से अज्ञान के अन्धेरे को दूर कर आदमी को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया करता है।

आदमी के मन-मस्तिष्क को एक नया आयाम देकर प्रगति और विकास की राह दिखाया और उस पर चलाया करता है या फिर ऐसा सब कुछ कर सकता है। लेकिन खेद के साथ स्वीकार करना और कहना पड़ता है कि आज कि शिक्षकों में ऐसा कर पाने क गुण और शक्ति नहीं रह गए हैं। उनकी मनोवृत्ति आम व्यावसायियों और दुकानदारों जसी हो गई है। ट्यूशन, कुंजियों आदि के चक्कर में पड़ कर, पास करने-कराने की गारण्टी दे-दिलाकर वे धन कमाने, सुख-सुविधा भोगी होनी की राह भर चल निकले। फलतः उनका गुरुत्व और शिक्षकत्व प्रायः दिखावा रह गया है, वास्तव में खण्डित हा चुका है। ऐसी वास्तविक स्थिति देखते-जानते हुए भी अनेकशः और रह-रहकर मेरे मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता ही रहता है कि यदि मैं शिक्षक होता, तो?

यदि मैं शिक्षक होता, तो एक वाक्य में कहूँ तो हर प्रकार से शिक्षकत्व के गौरव और गरिमा को बनाए रखने का प्रयास करता। मैं विद्या, उसी शिक्षा, उसकी आवश्यकता और महत्त्व को पहले तो स्वयं भली प्रकार से जानने और हृदयंगम करने का प्रयास करता. फिर उस प्रयास के आलोक में ही अपने पास शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से आने वाले विद्यार्थियों को सही और उचित शिक्षा प्रदान करता। ऐसा करते समय में यह मान कर चलता और वह व्यवहार करता कि जैसा कबीर कह गए हैं;

गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि-गढि काढ़े खोट।

भीतर हाथ सहार दे, बहार बाहे चोट ।।”

अर्थात् जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची और गीली मिटी को मोड़-तोड़ और कुशल हाथों से एक साँचे में ढालकर घड़ा बनाया करता है उसी प्रकार मै भी अपनी सुकमार-मति से छात्रों का शिक्षा के द्वारा नव-निर्माण करता, उन्हें एक नये साँचे में ढालता। जैसे कुम्हार, मिट्टी से घड़े का ढाँचा बना कर उसे भीतर से एक हाथ का सहारा दे और बाहर से ठोंक कर उसमें पड़े गढ़े आदि को समतल बनाया करता है, उसी प्रकार मैं अपने छात्रों के भीतर यानि मन-मस्तिष्क में ज्ञान का सहारा देकर उनकी बाहरी बुराइयाँ भी दूर कर के हर प्रकार से सुडौल, जीवन का भरपूर आनन्द लेने के योग्य बना देता। लेकिन सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि मैं शिक्षक नहीं हैं और जो शिक्षक हैं, वे अपने कर्तव्य का इस प्रकार गुरुता के साथ पालन करना नहीं चाहते।

यदि मैं शिक्षक होता, तो सब को समझाता कि आज जिसे शिक्षा-प्रणाली कहा जा रहा है, वास्तव में शिक्षा प्रणाली है ही नहीं। वह तो मात्र साक्षर बनाने वाली प्रणाली है। अतः यदि हम देश के बच्चों, किशोरों, युवकों को सचमुच शिक्षित बनाना और देखना चाहते हैं, तो इस को बदलकर इसके स्थान पर कोई ऐसी सोची-समझी और युग की आवश्यकताएँ पूरी कर सकने के साथ-साथ मानवता की आवश्यकताएँ भी पूरी करने वाली शिक्षा-प्रणाली अपनानी होगी, जो वास्तव में शिक्षित कर सके। शिक्षक होने पर मैं सबको यह भी बताने-समझाने की कोशिश करता कि सच्ची शिक्षा का अर्थ कुछ पढ़ना-लिखना सीख कर कुछ डिग्रियाँ प्राप्त कर लेना ही नहीं हुआ करता। सच्ची शिक्षा तो वह होती है कि जो मन-मस्तिष्क और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश भर दे। इस नई ऊर्जा का संचार कर व्यक्ति को हर प्रकार से योग्य, समझदार और कार्य-निपुण बनाने के साथ-साथ मानवीय कर्त्तव्य परायणता से भी भर दे। जीवन में जीने की नई दष्टि और उत्साह दे।

यदि मैं शिक्षक होता, तो शिक्षा पाने के इच्छुकों को बताता कि शरीर को स्वस्थ-सुन्दर और सब प्रकार से सक्षम बनाना भी आवश्यक है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन-मस्तिष्क और आत्मा वाला व्यक्ति ही शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पूर्ण कर पाने में समर्थ हो पाया करता है। शिक्षक होने पर मैं पढ़ने वालों को हर प्रकार से एक पूर्ण, अन्तः बाह्य प्रत्येक स्तर पर सशक्त सम्पूर्ण व्यक्तित्व वाला मनुष्य बनाने का प्रयास करता, ट्यूशन्स, कुंजियों, गाइडों आदि का प्रचलन पूर्णतया प्रतिबन्धित करवा देता। किताबी शिक्षा पर बल न दे व्यावहारिक शिक्षा पर बल देता- वह भी बन्द कक्षा-भवनों में नहीं, बल्कि प्रकृति के खुले-उजले वातावरण में पर……..काश ! मैं शिक्षक होता- शिक्षक.

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commentscomments

  1. अखिलेश कुमार says:

    निबंध लेखन में भाषा शैली में थोड़ा बदलाव आवश्यक है

  2. Jayesh Nitin Sonone says:

    These is awesome

  3. Balbir says:

    Good thoughts. Nice

  4. Chaudhary rohit says:

    Hi sir I am std 6 I did no how written essay or niband

  5. Kanishk says:

    Appreciated 👍 . Very good thoughts . Well done . Keep it up.

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