Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Holi Hai”, “होली है” Complete Essay 1200 Words for Class 9, 10, 12 Students.
होली है
Holi Hai
होली का पुनीत पर्व सर्वश्रेष्ठ ऋतु बसन्त में मनाया जाता है। इस पर्व का हिन्दी कवियों ने विस्तृत वर्णन किया है। कवियों की होली जन-साधारण जैसी हुल्लडबाजी की होली नहीं है। उन्होंने आत्माभिव्यक्ति एवं अपने युग के आहान को भी होली-कविता में व्यक्त किया है। अतएव हिन्दी कविता में होली का वर्णन विविध रूपों में हुआ है।
जन-साधारण तो होली रंग, गलाल, केसर, कीचड़ आदि से खेलकर अपने-अपने घर आ जाते हैं और बहुत ही हुआ तो वह होलिका की जान लेते हैं। शाम को इधर-उधर घूमने निकल जाते हैं। यह तो रही होली के ऊपरी व्यवहार की बात। परन्तु कवियों की होली केवल भावना का रंग लिए, भाषा रूपी पिचकारी से पाठक-हृदय को रंग डालती है। होली में अनुराग लाल रंग हृदय पर पढ़ जाता है।
वस्तुत: होली का महत्व कोई साधारण नहीं वरन् असाधारण है। इसका अर्थ यह है कि इस दिन मानव अपनी आत्मा पर जमे कल्मष एवं द्रोह, द्वेष आदि गहन तिमिर की कालिमा को धोकर अनुराग का रंग आत्मा पर चढ़ाता है। यदि सब मनुष्यों का हृदय अनुराग के रंग से रंग जाए तो किसी प्रकार का कोई द्वेष-भाव नहीं रहे और मानव का जीवन नि:स्पन, शान्त ज्ञान रूपी ज्योत्सना के वातावरण में स्वस्थ और प्रफुल्लित रहे। तब मनुष्य सबको भाई-भाई समझे और “वसुधैव कुटुम्बकम्’ का महामन्त्र वास्तव में जग-जीवन में अनुभव करे।
वह दृश्य कितना रमणीक, अनुपम और मनोमुग्धकारी हो, यह तो कल्पना से भी दूर की बात आज प्रतीत होती है। हाँ, कविगण तो अवश्य ही इस महामन्त्र से प्रभावित हुए दीखते हैं वह भी कभी-कभी परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर डगमगाते दृष्टिगोचर होते हैं। इतनी तो कवियों से आशा की जा सकती है कि वह एक न एक दिन अवश्य ही संसृति के कण-कण को अनुराग के रंग में रंग देंगे और इस मर्त्य को अमर्त्य बना देंगे।
कवियों के भक्त वत्सल हृदय ने इस होली को बड़े पुनीत एवं सुंदर ढंग से अपने नायक एवं नायिकाओं की आपस में होली खिलाकर व्यक्त किया है। सूर का निष्कट, निष्पाप एवं छल-रहित हृदय तभी तो गा उठता है।
स्याम-स्यामा खेलत दोड़ होरी।
फागु मच्यौं अति ब्रज की खोरी।।
यह नहीं मीरा तो गिरधर की प्रेमिका बनी हुई है। वह तो बिना मोर-मुकुट-मुरलीधर के किसी के साथ होली नहीं खेल सकती विरहिणी होने के कारण यह सब होली का सुख-दुख में बदल जाता है। तब ही मीरा का विरही हृदय गा उठता है-
होली पिया बिन मोहिन भावै, घर आगण न सुहावै
दीपक जोय कहा करूँ होली. पिय परदेश रहायै।
सूने सेज जहर ज्याँ लागे, सुसक-सुसक जिय जावै।।
भक्त कवयित्री प्रताप कँवरि बाई अपने ज्ञान एवं वैराग्य की उच्च भावनाओं को होली-वर्णन में व्यक्त करती है। यह निर्माण सम्प्रदाय की है। इन्होंने अपने इस बैरागी हृदय को निम्न चरण में बड़े सुन्दर ढंग से प्रकट किया है।
होरि या रंग खेलत आओ।
इडला प्रिग्ड.ला सुखमणि नारी ता संग खेल खिलाओ
सुरत पिचकारी चलाओ।
कायो रंग जगत को छोड़ो, सांची रंग लगाओ।
बाहर भूल कबौं मत जावों, काया नगर बसायो।
तब गिरभै पद पाआ।
पाँयौ उलट धरै धर भीतर अनहदनाव बजाओ
सब बकवाद दूर तब दीर्ज, जान गीत नित गाओ
पिया के मन तब ही भायो।
आपका भक्त हृदय अपने दृष्ट से ही होली खेलता है। आपका कच्चे रंग की आवश्यकता नहीं वरन् ज्ञान के गुलाल से होली खेलती है। अनायास ही कवियित्री का हृदय गा उठता है।
होरी खेलन की रुत भारी
नर-तन पाय अरे भज हरि को मास एक दिन चारी
अरे अब तो चेन अनारी।
ज्ञान गलाल अबीर प्रेम करि, प्रीत मयी पिचकारी
लाल उसास राम रंग भर-भर, सूरत सरीरी नारी
खेल इन संग रचारी
रीतिकालीन कवियों में श्रृंगारिक भावना प्रेम का बहुत प्रचार हुआ। इनके नायक-नायिका अनेक प्रकार के हो गए तथा सामान्य जन भी नायक-नायिका हो गए। इनके श्रृंगार में मारूल प्रेम की झलक अधिकांश में देखने को मिलती है। अधिक-तर इस काल के कवियां के लिए किसी वस्तु का वर्णन करना हो तो किस-किस वस्तु की आवश्यकता होगी, उस सब सामग्री को इकट्ठा कर कविता होने लगी थी। इस काल में कवि बस इतना ही जानते थे कि राजा को प्रसन्न कर अच्छा इनाम पाएं। अनेक कवियों ने इस उक्ति को कि कवि पैदा होता है, बनाया नही जाता को गलत करने का बीड़ा उठा लिया था। इसका कारण यह था कि उन्होंने संस्कृत के एक ग्रन्थ “कवि कपर्टिका” को कण्ठस्य कर लिया था। इस ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा है कि-
यत्नादिमां कण्ठगतां विधाय,
श्रुतोपदेशात् विदितोपदेशः।
अज्ञात शब्दार्थ विनिश्चयोजयि;
श्लोक करोत्येव समासु शीघ्रम्।।
इतना होने पर भी कुछ एक कवि ऐसे थे जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से प्रत्येक वस्तु का अवलोकन किया। ये तो वह रसिक ही परन्तु उनका प्रेम सात्विक एवं सच्चा था। महाकवि देश ने प्रकृति का स्वतन्त्र अवलोकन किया और वह प्रकृति में इतने रमे रहने कि फाग का रूपक में बाँध दिया था-
सौतल, मन्द, सुगन्ध खलावनि पौन डुलावति कौन लयी है।
नील गुलार्वान कोल फुलावनि जोन कुलावनि प्रेम पची है।
मालती, मल्लि, मलेज, लबगनि, सेवती संग समूह सची
देव सुहागिन आजु के भागिन देखरी, वर्गान फागुमयी है आनन्द किशोरी की किशोर के संग होती खिलवाते हैं। देखिए इस होली वर्णन मार्मिकता को कि –
होरी खेलन रंगनि रँगीलो
छल छबीलों नगर गोरी संग,
उरजन तकि-तकि छाँड़त छवि सो
कंचन की पिचकारी,
भरि-भरि नवल केसर संग।
प्यारी द्यात बनावत आवत मूठि
गुलाल चलावत सुन्दर साँबरे संग।
आनन्दधन रस दोड़ बरसीले
झूमि-झूमि झपाटे लपटि
जात भी ने अनंग उमंग।
रसखान किस से कम है। वह भी पूर्व रसिक है। वह आनन्द धन के होली वर्णन की छटा को भी फीका करने का दावा रखते हुए कहते हैं कि –
खेलत फाग सुहागभरी अनुरागहिं लालिन कौंधरि के।
भारत कुंकुंभ केसरि के पिचकारिन में रंग को भरि कै।।
गेरत लाल गुलाल लली मनमोहिनि मौज लुटा कर कै।।
जात चली रसखान अली मदस्त मनी मन की हरि कै।।
रीतिकाल में तो एक के बाद एक कवि श्रृंगार वर्णन करने की कलाओं से पूर्ण निपुण प्रतीत होता है। होली के पुनीत पर्व पर गोपी द्वारा कृष्ण का पीताम्बर उतरवा तथा नंगा कर कृष्ण को भगवा देते हैं। उस भाव को पद्माकर ने किस कुशलता से व्यक्त किया है कि-
फागु की भीर अभीरन में कहि गोविंद ले गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी।।
छीन पितम्बर कम्मर ते सुमीडि; कपोलन रोरी ।
नैन नचाई कही मुसकाई लला फिर आइयो खेलन होरी।।
हिन्दी साहित्य में महिला कवियों ने भी बहुत कुछ दिया है। रसिक बिहारी भी एक अच्छी कवयित्री हुई हैं। आपको बनी ठनी जी भी कहा जाता है। आपने ब्रज की होली का वर्णन कितनी निपुणता से किया है। उसका एक उदाहरण नीचे प्रस्तुत है-
होरी-होरी कहि बोले सब ब्रज की नारि।।
नन्द गाँव बरसानो हिल मिलि गावत इतउत रसकी गरि
उड़त गुलाल अरूण भयो अम्बर खेलत रंग पिचकारि धारि।
रसिक बिहारी भानु दुलारी नायक संग खेलैं खिलवारि।।
होली के दिन है, ब्रज की गोरी अब पानी भरने पनघट पर कैसे जाए क्योंकि कोई रंग डाल देगा। फिर कृष्ण तो बड़े उद्दण्ड है। इस बात को रसिक बिहारी ‘बनी ठनी जी, कहती हैं-
कैसे जल लाऊँ मैं पनघट जाऊँ।
होरी खेलत नन्द लाडिलो क्योंकर निबहन पाऊँ।
वे तो निलज फाग मदमाते ही कुल बध कहाऊँ।
जो छुवें रसिक बिहारी धरती फार समाऊँ।
कवयित्री रघुराज कुँवरि कृष्ण-राधा के होली खेलने का। वर्णन कहती है
जनक किशोरी युग करते गुलाल रोरी।
कीन्हं वर गोरी प्यार, मुखपै लगावैरी।।
अब आधुनिक काल आया। इसमें कवियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। अब राष्ट्रीय चेतना की लहर जागी, अतएव कवियों ने होली वर्णन का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया और होली खून के रंगों से खेली गयी। रंग की अरूणाई तथा प्रेम की लालिमा ने खून की लालिमा का स्थान ग्रहण कर लिया।
जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो फिर कवियों को कुछ सोचने के लिए विश्राम प्राप्त हुआ। पर वह विश्राम आर्थिक समस्या को सुलझाने में लगा। पर कुछ ऐसे कवि थे जो अपना महाकाव्य लिखने में मस्त हो गए और कुछ रोमांटिक भावना का अनुकरण करने लगे तथा कुछ नयी धाराओं की ओर झुक गए। फिर भी कवियों ने निरन्तर होली के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना का परिचय दिया।