Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Deepak ki Atmakatha”, ”दीपक की आत्म-कथा” Complete Hindi Nibandh for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
दीपक की आत्म-कथा
Deepak ki Atmakatha
‘जगमग दीप जले’ जैसी अनेक कहावतें मैं अपने आस-पास के जीवन-संसार में अपने बारे में अक्सर सुनता रहता हूँ। दीप, दीया, शमा, लैम्प आदि और भी मेरे कई नाम कहे एवं सुने जाते हैं। मुझे लेकर लोगों ने, कवियों और शायरों ने कल्पनाएँ भी कर रखी हैं और अब भी करते रहते हैं। कोई मुझे प्रकाश का पुँज कहता है और कोई अन्धेरे का दुश्मन। कोई मुझे नायिकाओं के तीखे स्वरूप-सौन्दर्य का प्रतीक भी मानता है। कोई आत्मा का और कोई साधना का। इस प्रकार अन्धेरा भगाने के लिए तो मुझे जलाया ही जाता है. पूजा और उत्सव के लिए भी जलाया जाता है। किसी मृतात्मा के प्रति प्रेम-भाव दर्शन के लिए उसके मजार पर भी मुझे जलाते हैं और देवता की पूजा-अर्चना करने के लिए मर्ति के सामने भी। इस प्रकार जब से यह धरती बनी और कृत्रिम प्रकाश की खोज हुई है, मुझे बनाया और जलाया जा रहा है।
मुझे लेकर कई तरह की कहावतें और मुहावरे भी गड़े गए हैं। जैसे-घर का चिराग, गार का दीया, कुलदीपक, मन्दिर का दीपक, एकमात्र कुल-दीपक, दीपक तले अन्धेरा तथा और भी न जाने क्या-क्या ? इससे मेरा महत्त्व तो स्पष्ट हो ही जाता है. यह भी चल जाता है कि आरम्भ से लेकर आज तक मनुष्य मेरा उपयोग एवं प्रयोग कैसे-कैसे और किस-किस बात के लिए करता आ रहा है। यह ठीक है कि आज का युग बिजली रानी का युग है, इस कारण मेरा महत्त्व प्रायः समाप्त हो चला है। फिर भी एकदम समान नहीं हो गया। आज भी पूजा-पाठ के समय कटोरी में घी भर या फिर आटे का टी बना कर मुझे अवश्य जलाना भी अनिवार्य है। फिर जब नगरों-महानगरों में बिजली रानी धोखा दे जाती या आँख मिचौली खेलने लगती है, तब अक्सर लोग मेरे ही किसी रूप की खोज किया करते है। यहाँ तक कि दूर-दराज के देहातों में तो आज इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर पहुँच कर भी आम-खास सभी की झोंपड़ियों-घरों में मेरी महिमा में ही प्रकाश हो पाता है। कितने भी रंग-बिरंगे बल्ब क्यों न जला लो, दीवाली तथा महापुरुषों के जन्म-दिन मनाना तब तक अधूरा ही बना रहता है कि जब तक मन्दिरों, चौराहों आदि पर तेल से भरे दीपक न जला लिए जाएँ। मज़ा तो यह है कि जिन कोनों में सूर्य की किरणे अपना प्रकाश नहीं पहुँचा पातीं, अपनी नन्ही लौ से मैं उस कोने को भी जगमगा दिया करता हूँ। ऐसा है मेरा मूल्य एवं महत्त्व।
तो मैं दीपक हूँ, दीपहूँ, दीया हूँ, कुछ भी कह लो, पर मैं प्रकाश का, स्वतंत्र अस्तित्व एवं व्यक्तित्त्व का प्रतीक हूँ। मेरा स्वरुप-निर्माण भी उसी धरती की माटी से हुआ है, जिस से संसार के प्रत्येक जड़-चेतन प्राणी और पदार्थ का हुआ करता है। मैं माटी के अन्य जड़ पदार्थों के समान नितान्त जड़ भी तो नहीं हूँ न। साँझ ढलते ही जीवन-स्नेह से स्निग्ध बाती के रूप में मुझ में प्राण धड़धड़ा उठा करते हैं। सब से बड़ी बात तो यह है कि मैं स्वयं स्निग्धता और ताप सह कर भी अपनी नहीं ऊर्जा के बल से मात्र दूसरों का जीवन प्रकाशित करने के लिए गहन एवं दुर्दान्त अन्धेरे से संघर्ष करता रहता हूँ। ऐसा करने में ही अपने जीवन को सफल एवं सार्थक माना करता हूँ।
कहा न, मेरा तन भी उसी मिट्टी से बना हुआ है, जिससे बाकी सारे प्राणी और पदार्थ बनाने वाला व्यक्ति कुम्हार, प्रजापति या फिर आम शब्द में कम्हार कहलाता है। और हाँ, आम या भुरभरी मिट्टी से मेरा निर्माण नहीं हो जाया करता। कुम्हार पहले चुन कर विशेष प्रकार की चिकनी मिट्टी लाया करता है। फिर उसे अच्छी तरह से कूट-पीस कर एकदम आटे की-सी बना गून्था करता है। फिर चाक पर चढ़ा, हाथों की कारीगरी से मुझे स्वरूप एवं आकार दिया करता है। उसके बाद धूप में सूखने के लिए रख दिया करता है। सूख जाने पर मुझे एक विशेष तरह के गेरुए रंग से रंगा करता है। रंगने के बाद फिर सूखने के लिए धूप में रख दिया करता है। उसके बाद मुझे पकाने के लिए भट्टी में रख, आस-पास उपले-कोयला या लकड़ी का बुरादा भर आग लगा दी जाती है। भीतर ही भीतर उस आँच से तप कर जब मैं पक्का हो जाता, मेरा रूप कुन्दन-सा निखर जाया करता है, तब मुझे भट्टी से निकाल कर, ठण्डा कर बाज़ार में बिकने के लिए भेज दिया जाता है। वही से ला कर आप लोग मुझे विशेष अवसरों पर विशेष रूप से जलाया करते हैं। जलाने के लिए रुई की बाती और घी या तेल की जरूरत हुआ करती है। इस प्रकार बत्ती मेरा प्राण और तेल मेरा अन्य तत्त्व है कि जो जलकर अन्धेरे को भगा. घर-घर प्रकाश बाँट आया करता हैं।
तो देखा आपने, दूसरों को प्रकाश-सुख देना कितना कठिन कार्य हैं। कैसे उसके लिए पहले अपने तन-मन को कई तरह की साधनाओं-तपस्याओं से गुजारना और तपाना पडता है। अग्नि-परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं। अपने रक्त को अन्तिम बूँद तक तिल-तिल जलना पड़ता है। तब कहीं जाकर अपने प्राणों के उजास से दूसरों के दुःखद-अन्धेरे को उजास दिया जा सकता है। बिना परिश्रम और कष्ट सहे न तो उजाला पाया ही जा सकता है और न बाँटा ही जा सकता है। बस, इतना-सा ही सार्थक सन्देश है मेरे जीवन का।