Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Bhukamp ka Prakop”, ”भूकम्प का प्रकोप” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
भूकम्प का प्रकोप
Bhukamp ka Prakop
निबंध नंबर : 01
भूकम्प का धक्का प्रबल था। एक बहुत बड़े क्षेत्र में इसका प्रभाव पडा। कई गाँवों में त्राहि त्राहि होने लगी। गाँवों के लगभग सभी मकान गिर गए। उनके निवासी उनके मलबे में ही दबे रह गए। परिवार के परिवार भूमि निगल गई। रात का समय होने के कारण किसी को कुछ भी नहीं सूझा। रात में ही भूकम्प के तीन-चार झटके आए।
उन गाँवों के मकानों की बनावट के कारण धन-जन की अपार हानि हुई। कच्ची मिट्टी के गारे से बड़े-बड़े पत्थर जोड़कर दीवारें बनाई गई थी। वे सबकी सब ढहकर सोते हुए लोगों पर गिर पड़ी। वे सोते के सोते ही रह गए। जो कुछ दैववश बच सके, उनकी संख्या नगण्य थी। उनमें भी कोई बालक अनाथ रह गया था, या कोई बूढ़ा असहाय बेसहारा रह गया था। प्रकृति की कैसी विडम्बना थी।
प्रातःकाल इस संकट का समाचार चारों ओर व्याप्त हो गया। समीप के गावों से यह नृशंस नर संहार देखने, असहायों की सहायता करने समीप के गाँवों से लोग आने लगे। सरकार को भी इस दुर्घटना की सूचना मिली। उसके कर्मचारी भी संकटकालीन व्यवस्था के साथ घटना स्थल पर आए।
कराहते दम तोड़ते, मरे हुए लोगों को खण्डहरों में से निकालने के प्रयत्न शुरू हो गए। पत्थरों को उठा-उठाकर दूर इकट्ठा किया गया। मलवे में से निकले शवों का ढेर लग गया। उनकी पहचान करना भी कठिन थी। यह कार्य लगभग एक सप्ताह तक चलता रहा। बचे हुए लोगों को एक कैम्प लगाकर उनके भोजन पानी एवं आवास की व्यवस्था की गई। सरकारी सहायता के लिए कार्यालय वहाँ खोल दिए गए।
पूरी की पूरी बस्तियाँ उजड़ गई थीं। सरकारी तौर पर वहाँ नए मकान बनाए गए। अब जो मकान बने है वे ऐसे हैं कि भूकम्प आने पर भी उनसे धन जन की हानि न हो सके।
भूकम्प प्रकृति का एक अत्यंत भयंकर रूप है। इसके जोरदार धक्के से पलभर में महा-विनाश होता है, हा-हाकार मच जाता है। जल पृथ्वी के भीतर तरल पदार्थ अधिक गर्म हो उठते हैं, तो उनकी भाप का दबाव बढ़ जाता है। यह भाप बाहर आना चाहती है और पूरी शक्ति से पृथ्वी की ऊपरी सतह को धक्का देती है। तभी भूकम्प होता है।
भूकम्प से धरती में दरारें पड़जाती है। भवन धराशायी होजाते हैं। भूकम्प की जरासी हलचल से हजारों मनुष्य मौत के घाट उतर जाते हैं। परिवार के परिवार नष्ट हो जाते हैं। सड़कें टूट जाती है। जन जीवन छिन्न भिन्न हो जाता है। देखते ही देखते लाखों की सम्पत्ति और वर्षों का सृजन मिट्टी में मिल जाता है।
एक बार सन 1935 में बिहार में बड़ा भूकम्प आया था। पटना शहर में गंगा की धारा अवरुद्ध हो गई थी। चार पाँच मिनट तक गंगा का पानी भूमि गत हो गया था। पानी के जीव जन्तु रेतपर छटपटाने लगे थे। देखते ही देखते ऊपर से पानी आया। नदी का बहाव फिर से प्रारंभ हुआ। जीव जन्तु भी सामान्य दशा में आगए।
प्रकृति का यह ताण्डव देखते-देखते नगरों को खण्डहरों में बदल देता है। नदियों के प्रवाह को बदल देता है। मरुस्थल मधुर स्थल बन जाते है। पर्वत भूमिगत हो जाते हैं। विनाशकारी माना जाने वाला। भूकंप कभी – कभी नई संस्कृति और सभ्यता को भी जन्म देता है।
ऐसी विपत्ति में ही मानवता की परीक्षा होती है। इस विनाशकारी प्रकृति के प्रकोप की पूर्व सूचना या रोकथाम के लिए विज्ञान को अभीतक सफलता नहीं मिली है। ऐसे समय में मनुष्य को वस्त्र, औषधि आदि से पीड़ितों की सहायता करनी चाहिए। यही मानव धर्म |
निबंध नंबर : 02
भूकम्प
Bhukamp
भूकम्प, भूडोल यानि पृथ्वी डावाँडोल होकर अपनी धुरी से हिलकर काँप और फट कर अपने ऊपर स्थित जड़-चेतन हर प्राणी और पदार्थ का या तो विनाश की चपेट में ले लेना, या फिर सर्वनाश का दृश्य उपस्थित कर देना। कई लोगों से सुना और शायद किसी पुस्तक में पढ़ा भी था कि अविभाजित भारत के कोटा नामक (पश्चिमी सीमा प्रान्त अब स्थित एक शहर) स्थान पर एक भयानक भूकम्प आया था। उसने शहर के साथ-साथ हजारों घर-परिवारों का नाम तक भी बाकी नहीं रहने दिया था। इतना भयावह और घातक होता है भूकम्प का आगमन।
अभी विगत वर्षों पहले गढ़वाल और फिर महाराष्ट्र के कुछ भागों को भूकम्प के दिल दहला देने वाले हादसों का शिकार होना पड़ा। पहले गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों में भूकम्प आया था। सो वहाँ होने वाली विनाश-लीला की कहानियाँ मैं केवल समाचारपत्रों में ही पढता या फिर देखकर आने वाले लोगों से सनकर मन ही मन दहलता रहा। सोचता रहा कि कैसी है यह प्रकृति की लीला । मानव को बच्चों के समान गोद में खेलाते-खेलाते वह एकाएक पूतना कैसे बन जाती है। कैसे मानव-शिशुओं के घर-घरोन्दों के और स्वयं उनका भी कच्ची मिट्टी के खिलौनों की तरह तोड़-मरोड़कर रख दिया करती है। फिर एक दिन महाराष्ट्र के उन इलाकों में भूकम्प आने का लोमहर्षक समाचार मिला कि जहाँ हमारे रिश्ते-नाते के कुछ कुछ लोग भी रह रहे हैं। सो अपने पिता जी के साथ उनकी खोज खबर लेने में भी वहाँ जा पहुंचा।
सौभाग्य से हमारे रिश्तेदारों के इलाके तक भूकम्प का राक्षस नहीं पहुच पाया, पर उन से कुछ ही इधर तक उसने एक भीषण तांडव किया था, उसके आसार तब भी चारों ओरतब भी साफ़ नज़र आ रहे थे। जगह-जगह ऐसा लगता था कि जैसे धरती पर जो कुछ भी था, वह उसके भीतर धंस और समा चुका है। आस-पास मकानों के खण्डहर, उन के भीतर से अपने घरेलू आवश्यक और कीमती सामान खोजते लोग, उनकी बुझी हुई आँखें, भूकम्प आने पर कराल काल का असमय ग्रास बन गए थे, उनके आँसू तो रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, गूंजती दहाड़ें और सिसकियाँ कही भीतर तक तेज धार वाले कील की तरह चुभ रही थीं। कइयों का तो अपने रहने को कुछ भी अपना नहीं बचा था- यहाँ यहां तक कि आँखों में आँसू और कंठ में रोना भी नहीं।
हमने देखा कि वहाँ पर राहत कार्य भी बड़े जोर-शोर से चल रहा था। सरकार और कुछ गैर सरकारी स्वयं सेवी संस्थानों के स्वयंसेवक दोनों राहत कार्यों में जट रहे थे। यह देख कर आश्चर्य और दुःख एक साथ हो रहा था कि सरकारी राहत कैम्प में वही आपाधापी का, रिश्वत और भाई-भतीजावाद का दौर गर्म था जो कि अक्सर आम समय रहा करता है। इसके ताप-विदारक समय में भी उनके मन में तो क्या शब्दों तक मानवीय संवदेना-सहानुभूति का नाम तक नहीं था। वहीं सरकार या सरकारी होने का अराजक-हृदयहीन दम्भ यहाँ भी स्पष्ट दीख रहा था। यह भी कि राहत बाँटने की आड़ में वे राहत हड़प अधिक रहे हैं। हाँ, स्वयंसेवी संस्थाएँ अवश्य ही अपने साधनों के अनुरूप सभी के साथ समान सहृदयता का व्यवहार करती हुई पीडितों को वास्तविक राहत पहुँचाने का प्रयास कर रही थीं। यह सब हम लोगों ने स्वयं तो अनुभव किया ही.. भूकम्प-पीड़ितों से बातचीत कर के भी जाना।
भूकम्प कितना भयानक था, हमारे रिश्तेदारों, ने बताया कि उसकी आवाज और कंपन से उत्पीडित होकर ही वे लोग अपने घरों से बाहर निकल आए थे, यद्यपि उनका इलाका भूकम्प की वास्तविक रेंज से बाहर होने के कारण एकदम सामान्य-सा झटका अनुभव कर के ही रह गया था। भूकम्प थमने के बाद इतनी दूर से ही पीड़ितों की रोदनध्वनियों ने उनके तन-मन को दहला कर रख दिया था। वे लोग रात के अन्धेरे में ही गिरते-पड़ते वहाँ तक जा पहुंचे थे कि शायद किसी की कुछ सहायता, कुछ बचाव संभव हो सके; पर उनके पहुँचने तक सभी कुछ समाप्त हो चुका था। हल जोतने वाले किसानों के पशु तक नहीं बचे थे। दुधारू पशुओं का अन्त हो गया था। सैंकड़ों लोग मकानों के ढहने और धरती के फटने से मृत्यु का शिकार हो गए थे। कुछ लोगों के प्राण-पखेरू तो भूकम्प के दहशत भरे स्वर सुन कर ही उड़ गए थे। इस प्रकार सभी कुछ, हँसता-खेलता। एक संसार वीरान होकर रह गया। हमने देखा और अनुभव किया कि यों कहने को लोग अब भी वहाँ थे अवश्य; पर लगता सभी कुछ, चारों ओर गहरा शून्य और मौत-का-सा सन्नाटा था।
कैसी है यह प्रकृति और कैसे हैं इसके नियम। समझ पाना नितान्त कठिन बल्कि असम्भव कार्य है। वह दृश्य आज भी अचानक आँखों के सामने उभर कर प्राणों में, रोम-रोम में एक सनसनी-सी उत्पन्न कर जाता है। सोचता हूँ, जापान के लोगों के बारे में, जहाँ बहुत भूकम्प आया करते हैं। कैसे रहते होंगे वहाँ के लोग, जबकि यहाँ तो इस प्रकार का एक ही हादसा हड़कम्प मचा जाता है।