Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Badhti Sabhyata Sikudte Van”, “बढ़ती सभ्यता : सिकुड़ते वन” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
बढ़ती सभ्यता : सिकुड़ते वन
Badhti Sabhyata Sikudte Van
प्रस्तावना : सभ्यता या सभ्य होने कहलाने का अर्थ आज बाहरी दिखावा प्रदर्शन करना, आवश्यकताओं का अनावश्यक विस्तार और तरह-तरह की वस्तुओं का अनावश्यक रूप से संग्रह ही बन कर रह गया है। इसके लिए चाहे वास्तविक सभ्यता, सृष्टि और उस सबके आधारभूत तत्त्वों का सर्वनाश ही क्यों न हो रहा हो, इस बात की न तो किसी को चिन्ता है और न यह सब देखने-सुनने का अवसर ही किसी के पास रह गया है। इसी कारण आज हवा-पानी जैसे नितान्त आवश्यक एवं प्राण-रक्षक प्राकृतिक तत्त्वों का क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। प्रदूषण से तरहतरह के रोग और विभिन्न विषमताएँ निरन्तर वद्धि पाती जा रही हैं। यदि इस ओर यथाशीघ्र उचित ध्यान न दिया गया, तो वह दिन दू। नहीं कि जब मानवता का दम अपनी ही गलतियों से घुट कर उर। इतिहास की जड़ वस्तु बना देगा।
सभ्यता के बढ़ते चरण : मानवता का सभ्य होना आवश्यक और अच्छी चीज़ है। सभ्य बातों, भावों, विचारों, उपकरणों व विस्तार या बढाव भी कतई अनुचित नहीं कहा जा सकता। इस प्रथा में निरन्तर बढ़ते चरण यदि खेतों-खलिहानों, बाग-बागीचों और व को रौंदते हुए उन्हें बंजर, रेगिस्तान या कंक्रीट के जंगलों में बदल जाएँ, तब क्या होगा, इस बात की चिन्ता यदि अपने-आप को सुशिक्षित, ज्ञानवान और वैज्ञानिक कहने-समझने वाला मनुष्य न करेगा तो फिर और कौन करेगा ? कभी हमने यह देखने का प्रयास किया है कि जिस तेजी से हम बढ़ते जा रहे हैं या बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। अपनी सभ्यता के विकास के लिए उससे भी व अधिक तेजी से जीवन का मूल आधार प्रकृति हमारे पैरों तले आ रौंधी जा रही है। अपने इस विनाश पर आँसू बहाने या इर प्रतिरोध करने की प्रत्यक्ष शक्ति तो उसके पास नहीं है; पर प्रति की शक्ति निश्चय ही उसमें है। हमारे पैरों तले सभ्यता-विकार नाम पर निरन्तर रौंधी जाने पर जब उसका प्रतिशोध भाव से आएगा, पता है तब क्या होगा ? सर्वनाश, केवल सर्वनाश से आ या कम कुछ नहीं होगा।
वनों का कटाव : अपने-आप को अधिकाधिक सभ्य दि के चक्कर में अपने ड्राइंग रूम और बैड रूम को नए-नए उपव से सजाने के लिए मानव का सब से बढ़ कर नजला प्रकृति-पुत्र वनों पर गिरा है। इमारती या फर्नीचर आदि बनाने के लिए लकड़ी प्राप्त करने के प्रयोजन से उसने वनों को अन्धाधुन्ध काट कर धरती माँ को । नंगा कर दिया है। अपने सभ्य घर-संसार बसाने के लिए खेतों-खलिहानों को तो क्या फलदार वृक्षों वाले बाग-बागीचों तक को नहीं बख्शा, फलतः आज अनाज, फल और सब्ज़ियाँ आदि सभी कुछ तो महँगीबल्कि आम जनों के लिए दुर्लभ ही हो गई हैं और साँस लेने के लिए।
ताजी हवा कहीं खोजने से भी नहीं मिल पाती। पहले तो दूर देहातों में ही पानी का अभाव हुआ करता था सो अनेक स्थानों पर पीने के पानी का एक घड़ा पाने में ही औरतों का सारा दिन बीत जाया करता था। आज नगरों-महानगरों में भी लोगों को बर्तन उठाए- थोड़ा-सा रीने का पानी पाने के लिए इधर-उधर भटकते, आपस में लड़ते-झगड़ते देखा जा सकता है। यह बढ़ती सभ्यता का ही तो कहर है, जो वनों 5 निरन्तर सिकुड़ते जाने के कारण, वर्षा के अभाव से पीने के पानी 5 अभाव के रूप में हमारे सामने आ रहा है।
जीवन पर अन्य प्रभाव : सभ्यता के कहर बरसाने वाले चरण ढने से वनों का सिकुड़ना, उनके कारण वर्षा कम होना, पानी और जी हवा का अभाव तो हो ही गया है, अन्य कई प्रकार के दुष्प्रभाव सामने आ रहे हैं। वनों में निवास करने वाले अनेक पशु-पक्षियों की दुर्लभ जातियाँ सिमट-सिकुड़ कर समाप्त होती जा रही हैं। इतना नहीं, वृक्षों-वनस्पतियों और औषधिक पौधों की कई दुर्लभ जातियाँ नष्ट हो चुकीं या फिर निरन्तर होती जा रही हैं। सोचने की बात मात्र सभ्य होने का दिखावा करने के लिए आज का समझदार मानव तने जोखिम भरे काम सब जानते-बूझते हुए भी कर रहा है। वह ज के नशे में यह सोच ही नहीं पा रहा कि यदि यही दशा रही, मेरी आगे वाली पीढ़ियों के साथ क्या बीतेगी ? निश्चय ही आगे आने वाली पीढ़ियों को अनेक प्रकार के प्राकृतिक अभाव-अभियोग के बीच एकदम अपंग होकर, लूले-लंगड़े और असमर्थ होकर जीना पड़ेगा।
उपसंहार : इन तथ्यों के आलोक में हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि उतना ही खाना अच्छा होता है जितना ठीक तरह से पच सके, बाकियों के लिए भी बच सके। सो भावी सभ्यता के समुचित विकास के लिए वनों को और तो नहीं ही सिकुड़ने देना है, यथासंभव उनका विकास-विस्तार बढ़ाना भी परमावश्यक है। सूझ-बूझ वाले, विवेकशील प्राणी मनुष्य से उचित, ही आशा की जा सकती है कि वह मात्र अपने वर्तमान की चिन्ता न कर अपनी ही भावी पीढ़ियों का भी ध्यान करेगा। उनके सभ्य बनकर जीने का अधिकार भी सुरक्षित रहने देगा।