Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Adarsh Vidyarthi Gun aur Gyan”, ”आदर्श विद्यार्थी गुण और ज्ञान” Complete Hindi Anuched for Class 8, 9, 10, Class 12 and Graduation Classes
आदर्श विद्यार्थी गुण और ज्ञान
Adarsh Vidyarthi Gun aur Gyan
गुण और ज्ञान भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के लिए नितान्त आवश्यक हैं। गुणवान व्यक्ति यदि शिक्षित नहीं है, तो वह समाज को प्रभावित नहीं कर सकता है और यदि ज्ञानी गुणवान नहीं है, तो समाज में प्रत्येक के आदर का पात्र नहीं हो सकता है। किसी मा कार्य के लिए गण एवं ज्ञान दोनों की परमावश्यकता है। ज्ञानार्जन का भी एक समय ताहा अनुभवशील विद्वान व्यक्तियों ने विद्यार्थी जीवन को विद्याध्ययन का काल निश्चित कया है। सम्पूर्ण मानव जीवन की तैयारी के लिए यह सुनहरा अवसर होता है।
विद्यार्थी शब्द का अर्थ वैसे बड़ा ही व्यापक है; परन्तु सामान्य अर्थ में विद्यार्थी एक योगिक शब्द है जो ‘विद्या+अर्थी’ से मिलकर बना है। विद्या का अर्थी अर्थात् जिज्ञासु (चाहने पाला) ही विद्यार्थी कहा जाता है। विद्यार्थी जीवन समपूर्ण मानव-जीवन की आधारशिला है। मनुष्य विद्यार्थी जीवन में जो कुछ ज्ञान और अनुभव प्राप्त लेता है, उसी के आधार पर उसका जीवन-पथ निर्धारित होता है। परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करने वाला छात्र निश्चित रूप से कम अंक प्राप्त करने वालों की अपेक्षा अच्छी नौकरी तथा सम्मान एवं यश प्राप्त करता है। विद्यार्थी जीवन में मानव पर जैसे संस्कार पड़ जाते है वैसे और कभी नही पड़ते. एक बार तनिक-सी बुराई आ जाने पर मानव का समस्त जीवन दुःखदायी बन जाता है। विद्यार्थी जीवन को मानव जीवन रूपी प्रसाद की नींव भी कहा जा सकता है.
आज का विद्यार्थी ही कल देश का कर्णधार बनेगा, उसकी उन्नति देश की प्रगति है। देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि सभी दशाओं में विद्यार्थी को ही जाना है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी-जीवन की महत्ता स्वतः सिद्ध है।
आदर्श विद्यार्थी के अनेक लक्षण हैं। प्राचीन भारत में विद्यार्थी-जीवन साधना का जीवन था। अतः उस युग में विद्यार्थियों के पाँच प्रधान लक्षण माने जाते थे जिनमें कौदे जैसी चेष्टा, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते जैसी निद्रा, अल्पाहार तथा गृह त्याग को सम्मिलित किया जाता था।
समय के परिवर्तन के साथ नियम (शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय, ईश्वर उपासना) तथा यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) का पालन करना अनिवार्य था। समय और आगे बढ़ा, आजकल के विद्यार्थी के लक्षण अध्यवसाय, आज्ञाकारिता, अनुशासन, परिश्रम तथा उदारता हैं। सामान्य ज्ञान के प्रति उसकी जिज्ञासा तथा गहन परिचय होना आवश्यक है। शरीर की पुष्टि के लिए आज खेल अनिवार्य है। खेल आज के जगत् का एक प्रमुख गुण है। शरीर पुष्टि से स्वस्थ चित्त व मस्तिष्क बनता है। आज का विद्यार्थी एक बहुत विशाल विश्व में निवास करता है। अतः उसमें विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास भी आवश्यक है। देश प्रेम तथा आत्माभिमान के साथ उसमें विनयशीलता का होना परमावश्यक है। विद्यार्थी को मितव्ययी होना चाहिए। सिनेमा तथा धूम्रपानादि में धन का अपव्यय नहीं करना चाहिए। विद्यार्थी को अनुशासनप्रिय होना चाहिए। विद्यार्थी को अपने से बड़ों तथा गुरुजनों का आदर करना चाहिए तथा नित्य प्रति उनके प्रति अभिवादन करना चाहिए।
सामान्यतः यह समझा जाता है कि विद्यार्थी जीवन बड़ा कठोर व दुःखदायी होता है। परन्तु वास्तव में यदि देखा जाये, तो जीवन का सर्वोत्तम भाग विद्यार्थी जीवन ही है। इस जीवन में बड़ी निश्चिन्ततापूर्ण मस्ती होती है।
दूसरी ओर आज विद्या-केन्द्रों में विविध प्रकार के शिक्षा विषयक पर्यटनों की परम्परा चल पड़ी है। विद्यार्थी इस बहाने विभिन्न नगरों के दर्शन कर लेते हैं। अच्छे-अच्छे विज्ञ-पुरुषों का संसर्ग प्राप्त होता है। आज के विद्यार्थी का जीवन बड़ा ही सुन्दर तथा स्वतन्त्र है, जिसमें अध्यापक के डण्डे की अपेक्षा स्नेह तथा सौहार्द का वातावरण प्राप्त हो रहा है। आज तो समाज का प्रत्येक व्यक्ति उनका सम्मान ज़बरन करने के लिए विवश हो रहा है।
जब हम आधुनिक विद्यार्थी की प्राचीन काल के विद्यार्थी से तुलना करते हैं, तो आकाश-पाताल का अन्तर दिखलाई पड़ता है। आधुनिक विद्यार्थी का वह आदर्श नहीं, जो प्राचीन विद्यार्थी का का था। आज के छात्र के सम्मुख सिनेमा का आदर्श है। आज का विद्यार्थी कुवासनाओं पूर्ण है। उसे आज न माता-पिता की आज्ञा शिरोधार्य है और न ही गुरुजनों की आज्ञा माननीय है. धूम्रपान एवं मद्यपान उसके प्रिय शौक हैं आत्म-संयम उससे बहुत दूर है. अनुशासन, विनम्रता, एवं सद्व्यवहार से उसे घृणा है। विद्या अध्ययन के स्थान पर व कीम, पाउडर, सूट-बूट चाहता है। आज के इस बनावटी जीवन से पूर्ण विद्यार्थी ‘शिक्षार्थी’ शीर्षक पाठ में श्री वियोगी हरि ने ब्याजस्तुति अलंकार में अच्छा चित्र खींचा है.
वास्तव में प्राचीनकाल के राम, श्रीकृष्ण, सुदामा, कौत्स, एकलव्य, चन्द्रगुप्त एक कष्णचन्द्र जैसे विद्यार्थियों का रहन-सहन एवं आहार-विहार सरलता तथा सादगी से परिपूर्ण था। वे आश्रमों में रहकर गुरु की सेवा में तल्लीन रहते थे। इसलिए ये लोग संसार में यशस्वी बने। आज गुरुजनों के प्रति अनादर भाव रखने के परिणामस्वरूप विद्यार्थी समाज के प्रत्येक क्षेत्र में हेय दृष्टि से देखे जा रहे हैं। पहले सदाचारी छात्रों का सम्मान राजा-महाराजा तक करते थे।
विद्यार्थी-जीवन कर्तव्यों के उत्थान में विकसित होने वाले कुसुम के समान है। अतः वह यदि कर्त्तव्य पथ पर स्थिर नहीं रहता, तो उसका जीवन मरुभूमि के समान नीरस हो जाता है। उसके प्रमुख कर्त्तव्य इस प्रकार हैं- विद्या अध्ययन उसका साध्य स्वरूप प्रमुख कर्त्तव्य है और अन्य कर्त्तव्य तो उसके साधन हैं। विद्यार्थी शब्द ही यह संकेत करता है कि उसे प्रतिक्षण अध्ययन में ध्यान रखना चाहिये। उसकी बुद्धि एकाग्र हो सके, इस हतु उसे शम, दम, धारणा, ध्यान, समाधि तथा व्यायाम करना चाहिए। इससे उसका स्वयं का विकास होगा। इसके साथ ही साथ विद्यार्थी का समाज एवं देश के प्रति भी कर्तव्य है. किसी देश के उत्थान-पतन में छात्रों का अधिकतम योग होता है। अच्छे विद्यार्थी नष्ट शासन-सुधार में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यदि देश में बिना तोड़-फोड़ किए सदबुद्धि एवं विवेक से विद्यार्थी क्रियात्मक कार्य करें तो हमारा राष्ट्र निश्चय रूप से उन्नति कर सकता है। प्रत्येक विद्यार्थी का यह प्रमुख कर्तव्य है कि वह इस बात का सदा ध्यान रक्खे कि उसके कार्यों को किसी प्रकार की हानि न पहुंचे।
बिना लक्ष्य निर्धारित किए विद्यार्थी ही क्या समाज का कोई भी मे सलग्न हो जाता है, तो उसको सफलता कम मिल पाती है। इसलिए प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उस पर विचार अवश्य ही कर लेना चाहिए। यदि विद्यार्थी को यही नहीं ज्ञात होगा की उसे आगे क्या करना है, उसे अपने जीवन में सफलता कैसे प्राप्त होगी? यह समाधान हाई स्कूल की परीक्षा के साथ ही आ जाना चाहिए जिसे आगे चलकर जो बनना है वह वैसे ही विषयों का चयन कर आगे बढ़े। इस पूर्व निर्धारण से उसकी प्रत्येक कार्य को निर्धारण करने की प्रवृत्ति पड जायेगी। इससे न केवल वह परीक्षा में अपित जीवन की प्रत्येक परीक्षा में निश्चय रूपेण साफल्य प्राप्त करेगा।
जहाँ प्राचीन काल का विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन करता था वहाँ आज का विद्यार्थी नौकरी के लिए अध्ययन कर रहा है। वास्तव में विद्यार्थी जीवन, मानव-जीवन की स्वर्णिम बेला है। गया समय हाथ नहीं आता। अतः समय रहते यदि हमको रामतीर्थ दयानन्द, बुद्ध एवं अर्जुन जैसा आदर्श बनना है, तो हम अपने अन्दर आत्म-संयम धारण कर चरित्रवान बनें, क्योंकि चरित्र रूपी पुष्प की खुशबू को प्रत्येक व्यक्ति ग्रहण करना चाहता है।