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Hindi Essay, Paragraph or Speech on “Jhansi ki Rani Laxmi Bai”, “झांसी की रानी लक्ष्मीबाई”Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

Jhansi ki Rani Laxmi Bai

                भारत बलिदानियों की भूमि रही है। बलिदान में नारियां भी पीछे नहीं हैं। बलिदानी नारियों में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का स्थान सर्वोच्च है। भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि परतन्त्र भारत में स्वतन्त्रता का बीजारोपण झांसी की रानी लक्ष्मीबाई द्वारा ही हुआ है। इतना ही नहीं, स्वतन्त्रता की वेदी पर स्वयं की आहुति देने वाली यह प्रथम महिला है। यह संघर्ष और बलिदान हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बन गया। अगर कहा जाये कि इसी संघर्ष और बलिदान का परिणाम है 15 अगस्त 1947, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। राष्ट्रभक्त हिन्दी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान की निम्नलिखित पंक्तियों में यही भाव व्यक्त किया गया है-

                                दिखा गयी पथ, सिखा गयी,

                                हमको जो सीख सिखानी थी।

                                बुन्देले हर बोलों के मुंह

                                हमने सुनी कहानी थी।

                                खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

                ऐसी वीरांगना का जन्म भागीरथी नाम की महिला की पुण्य कु़िक्ष से सन् 1835 ई0 में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरपंत था। मोरपंत बाजीराव पेशवा के यहां उच्च पद पर नौकरी करते थे। लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मनुबाई था। मनुबाई जब चार-पांच वर्ष की थी, तब उनकी माताजी चल बसी थीं। अब तो मनुबाई के लालन-पालन का दायित्व इनके पिता पर ही आ गया। बच्ची मनु अब पेशवा बाजीराव के पुत्र नानाराव के साथ ही खेलने एवं पढ़ने लगी। वह खेल-खेल में ही शस्त्र-अस्त्र चलाना, घोड़े पर चढ़ना, नदी में तैरना आदि गुण सीख गयी।

        मनुबाई के बचपन के सम्बन्ध में सुभद्रा कुमारी चैहान लिखती हैं-

                नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,

                बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी सखी-सहेली थी।

                मनुबाई का विवाह झांसी के अन्तिम पेशवा राजा गंगाधर के साथ हुआ था। शादी के बाद मनुबाई लक्ष्मीबाई कहलाने लगी। अब राजमहल में उसके दिन आनन्द से कटने लगे। लक्ष्मीबाई राज-काज में भी समय देने लगीं। महारानी के पद पर रहते हुए भी वह प्रजा के सुख-दुखः में काफी हाथ बंटाती थीं। प्रजा भी रानी को अपने प्राणों से अधिक चाहती थी। कुछ दिनांे के बाद रानी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इस खुशी के अवसर पर घर-घर घी के दिये जलाये गये, परन्तु तीन माह के बाद ही रानी का यह दीपक बुझ गया। इसके बाद रानी पर एक से बढ़कर एक विपत्ति आने लगी। राजा बीमार रहने लगे। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए राजा ने अपने सम्बन्धी के एक बालक दामोदर राव को गोद ले लिया। कुछ समय के बाद पुत्र शोक में राजा भी चल बसे। राज्य में सर्वत्र हाहाकर मच गया।

        सन् 1857 ई0 मंे अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध जगह-जगह विद्रोह के स्वर फूट पड़े। रानी लक्ष्मूीबाई ने इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। इससे चिढ़कर और रानी को अनाथ समझकर 23 मार्च 1857 ई0 को अंग्रेज झांसी पर चढ़ आयी। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गये। लेकिन एक देशद्रोही की सहायता से अंग्रेज सैनिकों को झांसी के किले में प्रवेश पाने में सफलता मिल गयी। किले में भी भंयकर मार-काट हुई। अन्त में, रानी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ घोड़े पर सवार हो किले से बाहर निकल पड़ीं। विशाल अंग्रेजी सेना को मारती-चीरती हुई रानी उनकी पकड़ से दूर निकलती चली गयी और कालपी पंहुच गयीं। लक्ष्मीबाई के युद्ध-कौशल को देखकर ऐसा लगता था कि दुर्गा का अवतार हो चुका है। सुभद्रा कुमारी चैहान इस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखती हैं-

                रानी थी या दुर्गा थी स्वयं वीरता की अवतार।

                देख मराठे पुलकित होते, उसकी तलवारों की धार।

                अंग्रेज सैनिक भी रानी का निरन्तर पीछा कर रहे थे। अन्त में, ग्वालियर में दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। युद्ध करते-करते रानी का घोड़ा थक चुका था। फलतः एक नाला पार करने के क्रम मे घोड़ा रूक गया। इतने में पीछे से एक अंग्रेज सैनिक के वार से रानी के शरीर का बायां भाग कट गया। इस अवस्था में भी रानी ने उस सैनिक के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और स्वयं स्वर्ग सिधार गयीं। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता, त्याग और बलिदान पर हम भारतीयों को गर्व है।

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