Hindi Essay-Paragraph on “Rickshaw wala ki Aatmakatha ” “रिक्शावाला की आत्मकथा” 600 words Complete Essay for Students of Class 10-12 and Subjective Examination.
रिक्शावाला की आत्मकथा
Rickshaw wala ki Aatmakatha
मेरे एक संबंधी अस्पताल में भर्ती थे। उनकी सहायता हेतु मुझे और मां को अस्पताल जाना जरूरी था। माघ की कपकपाती ठंड में सुबह ही हम लोग घर से निकल पड़े। कुछ ही कदम आगे बढ़े होंगे कि ठंड से हाथ-पांव जवाब देने लगे। सवारी की खोज में कातर दृष्टि से हम लोग इधर-उधर देखने लगे, क्योंकि समय पर अस्पताल पहुंचना जरूरी था। इतने में फटे-चिथड़े, मैले कपड़ों में एक हट्टा-कट्टा नौजवान रिक्शा लेकर आ गया। बीड़ी पीते हुए वह गुनगुना रहा था-
बाबू! मैं हूं रिक्शावाला, बोझ सवारी ढोने वाला।
भेद-भाव को दूर भगाकर, सबकी सेवा करने वाला।
बाबू! मैं हूं रिक्शावाला…
हम लोग रिक्शे पर सवार हो गए। तब रिक्शेवाले ने पूछा, कहां जाना है दीदी? मैंने रिक्शा चालक से सदर अस्पताल चलने को कहा। रिक्शा चल पड़ा और साथ ही शुरू हो गई रिक्शेवाले की राम कहानी-
दीदी, मैं एक मैट्रिक पास युवक हूं। घर में बूढ़े, मां-बाप के अलावा एक छोटी बहन है। मुझे कहीं नौकरी नहीं मिल सकी। लाचार होकर अपने परिवा के भरणपोषण के लिए इस रिक्शे का सहारा लेना पड़ा। यह रिक्शा एक मालिक का है। शाम के समय मालिक को पंद्रह रुपये देने पड़ते हैं। शेष रुपये से अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूं। मैंने सुना है कि महानगरों में मोटरचालित रिक्शे भी चलने लगे हैं। उन रिक्शों के दाम अवश्य ही ज्यादा होंगे, साथ ही भाड़े पर लेकर चलाना भी असंभव ही हैं। बहुत कोशिश कर रहा हूं कि बैंक या अन्य किसी वित्तीय संस्था से अनुदान में मुझे एक पांव चालित रिक्शा मिल जाए, जिससे मालिक के शोषण से निजात पा सकूँ।
इस प्रकार रिक्शा बढ़ने के साथ-साथ उसकी राम कहानी भी बढ़ती है। उसने कहा, समाज में हमारी कोई इज्जत नहीं, कोई-कोई रंगदार किस्म के सवार गंतव्य पर पहुंच जाने के बाद भी उचित मजदूरी नहीं देते। उचित मजदूरी की मांग करने पर मार-पीट और गाली-गलौज मिलती है।
इतने में एक पुलिस वाला रिक्शे का हैंडिल थाम लेता है। दो बेंत देकर वह चालक से पूछता है, कल की सलामी अभी तक नहीं दी, चोर कहीं का। और वह रिक्शे की हवा खोलने के लिए झुक पड़ा। हमारी काफी अनुनय पर सिपाही ने रिक्शा चालक को धमकी देकर छोड़ दिया। मैंने रिक्शेवाले से पूछा, यह सलामी क्या है? उसने बताया, ये पुलिस वाले ही हम लोगों के लिए कंस और रावण हैं, जो सलामी के रूप में नित्य कुछ रुपये लेकर मुझ जैसे मेहनतकशों का खून चूसा करते हैं। पुलिस की बेंत एवं गाली सुनकर रिक्शा चालक ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर बिना किसी हीनता के आगे बढ़ चला। लग रहा थ कि बेंत और गालियों का रिक्शा चालक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस परिस्थिति में मैं मानस की इन पंक्तियों को ध्यान किया-
सबके प्रिय सबके हितकारी।
दुख-सख सरित प्रशंसा गारी ॥
अनुरोध करने पर, उसने तेजी से रिक्शा चलाते हुए हम दोनों को अस्पताल पहुंचा दिया। वहां रोगी की हालत गंभीर थी। डॉक्टर के अनुसार रोगी को खून की आवश्यकता थी। हट्टा-कट्टा रिक्शा चालक अब भी वहां मौजूद था। उसके सामने खून देने का प्रस्ताव रखने पर, वह बिना मोल-भाव किए, सहर्ष खून देने को तैयार हो गया। इस प्रकार रोगी की जान बच गई। रिक्शा वाला कुछ मजदूरी पाकर प्रसन्न चित्त लौट गया। उसके बाद मैं सोचने लगी, ‘क्या इसके रक्त की कीमत लगाई जा सकती है?’
कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर की रिक्शावाला कहानी और डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने ‘रिक्शावाला’ शीर्षक कविता की पंक्तियां आज भी दिमाग में कौंधती हैं और भीतर तक छू जाती हैं-
मानव की छाती पर बैठा,
झूम रहा दानव मतवाला
सींघ-पूंछ से हीन पशु बना,
खींच रहा रिक्शावाला।
मुंह में झाग स्वेद तन से
ठोकर खा-खाकर गिरता जाता
हाय नहीं यह देखा जाता।