Hindi Essay-Paragraph on “Prevention of Terrorism Act-POTA” “आतंकवाद निरोधी अधिनियम-पोटा” 1000 words Complete Essay for Students of Class 10-12 and Competitive Examination.
आतंकवाद निरोधी अधिनियम-पोटा
Prevention of Terrorism Act-POTA
भारत में आतंकवाद का प्रसार धीरे-धीरे हद की ओर बढ़ता गया। यहां तक कि देश की राजधानी नयी दिल्ली का सबसे सुरक्षित क्षेत्र ‘संसद भवन’ भी आतंकवादी गतिविधियों की चपेट में आने से अछूता नहीं रहा। वैसी हालत में देश के उत्तरवर्ती सीमांत प्रांत जम्मू-कश्मीर की बात चौकाने वाली नहीं लगती है। आतंकवादियों ने उस खान को भी अपना निशाना बनाने में कोताही नहीं बरती, जहां देश को शीर्षस्थ नेता एकमुश्त आतंकवादियों को उपलब्ध हो चुके थे। वह तो संसद भवन के लिए सुरक्षा प्रबंधों की चौकसी का सुपरिणाम था कि देश का सबसे बड़ा हादसा होते-होते टल गया।
ऐसी हालत में तत्कालीन सरकार का आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए सख्त कानून बनाना गैर मुनासिब नहीं था। लेकिन यह मुश्किल है कि पोटा कानून बनने के बाद भी आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग सका, बल्कि आलोचकों की दृष्टि में आतंकवादी गतिविधियां और बढ़ीं।
पोटा काफी समय पहले से लगने के लिए चर्चित रहा है, लेकिन यह कानून 2002 में बना। इसके कानून बनने से पूर्व आतंकवाद निरोधक कानून के रूप में राज काम कर रहा था। लेकिन इस एक्ट को सन् 1998 ई. में खत्म कर दिया गया। पोटा 16 अक्टूबर, 2001 ई. को लागू किया गया, लेकिन यह संसद के संयुक्त अधिवेशन में 6 मार्च, 2002 को पेश किया और दस घंटों तक 28 सांसदों के भाषण के उपरांत उठा-पटक के बीच किसी तरह पास हो गया।
‘पोटा’ एक विवादास्पद कानून रहा है। यह कानून पास तो हो गया, लेकिन राजनीतिक हलके में इसका विरोध भी कम नहीं हुआ। इसके विरोध का मुख्य मुद्दा था, इसके राजनीतिक दुरुपयोग का। हालांकि राजनीतिक दुरुपयोग की कोई सुनिश्चित सीमा नहीं है। किसी की दृष्टि में जो मामला उचित है, आलोचना-दृष्टि में वही मामला दुरुपयोग का भी हो सकता है।
पोटा कहां लागू होगा इस विषय में स्पष्ट जानकारी के लिए निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है-
- ऐसी कोई भी कार्यवाही जिसमें हथियारों या विस्फोटकों का इस्तेमाल हुआ हो, किसी की मौत हो गई हो, घायल हो गया हो, वह आतंकवादी कार्यवाही मानी जा सकती है।
- किसी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा हो, या सरकारी काम-काज बाधित हुआ हो, देश की एकता-अखंडता को खतरा हो।
- पोटा के तहत सिर्फ शक के आधार पर गिरफ्तारी हो सकती है।
- बिना वारंट पुलिस किसी की तलाशी ले सकती है।
- अभियुक्तों के खिलाफ गवाही देने वालों की पहचान छिपाई जा सकती है।
- आरोपी को तीन माह तक अदालत में आरोप-पत्र दाखिल किए बिना हिरासत
में रखा जा सकता है। आरोपी की संपत्ति जब्त की जा सकती है।
- आरोपी का पासपोर्ट और यात्रा-संबंधी कागजात रद्द किया जा सकता है कि
पोटा कानून का साया जिस किसी भी व्यक्ति पर पड़ सकता है। यह भी हो सकता है कि आरोपी व्यर्थ ही संदेह में फंस गया हो। उसे पोटा से फुर्सत पाने में उतने ही पापड़ बेलने पड़ते हैं, जितने की वास्तविक आरोपी को बेलना पड़ेगा।
इस तरह पोटा कानून निःसंदेह कड़ा कानून होने के बाद भी पारदर्शी नहीं है। यह तय है कि आतंकवाद के दमन के लिए कड़े से कड़े कानून की आवश्यकता है लेकिन राजनीति प्रतिद्वंद्विता के कारण कोई भी मोटा की चपेट में आता है, तो उसके साथ न्याय होने की बजाय अन्याय हो जाता है।
पोटा कानून राज्यसभा में पास न हो सका, तब संसद की संयुक्त बैठक में पारित किया गया। आतंकवाद निरोधक अधिनियम के कथित दुरुपयोग के दृष्तिगत केंद्र सरकार ने 13 मार्च, 2003 को एक उच्चस्तरीय समीक्षा समिति के गठन की घोषणा की। इस समिति का अध्यक्ष पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री न्यायाधीश न्यायमूर्ति अरुण सहरचार को बनाया गया। इस समिति के गठन की औपचारिक घोषणा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने की। इस कानून का कठोर साया एम.डी.एम. नेता वाइको और उत्तर प्रदेश के निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ रज्जू भैया पर पड़ा। वाइको को इसी गिरफत में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने डाला और राजा भैया को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने।
इसक कानून में एक बात और है कि अदालत केंद्र 24 जायज सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी मामले में संज्ञान नहीं लेगी। इतना ही नहीं इस मामले की जांच-पड़ताल का अधिकारी पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी से नीचे वालों को नहीं होगा। आरोपी द्वारा इकबालिया बयान को सबूत तभी माना जाएगा, जब वह बयान पुलिस अधीक्षक द्वारा दर्ज किया जाएगा। इस कानून की चपेट में आने पर अगर मामला सिद्ध न हआ तो पीड़ित व्यक्ति को मुआवजा देने का भी प्रावधान किया है। इस कानून में जो अधिकारी दोषी होंगे, अगर इनका दोष सिद्ध न हआ, तो उन्हें भी मुआवजा देने का प्रावधान है।
विपक्षी दलों द्वारा आपत्ति किए जाने पर केंद्र सरकार ने इस विधेयक में कुछ बदलाव किया है-
- पोटा के तहत सजा की मियाद पांच साल से कम कर तीन साल कर दिया गया है।
- पत्रकार से संबंधित प्रावधानों में ढील दी गई है।
- जुर्म साबित होने पर तीन साल की सजा और अधिकतम मौत की सजा दी जा सकती है।
‘पोटा’ के विषय में अगर निष्पक्ष बातें की जाए तो यह कहा जाएगा कि यह इतना कड़ा कानून है कि इसमें फंस जाने का भय फंस जाने के भय से ज्यादा है। इसलिए आतंकवादियों के बीच इसका भय आतंकवाद गतिविधियों को स्वतः नियंत्रित करता है। अनियंत्रण की अवस्था में तो इस कानून का लागू होना तय ही है।
‘पोटा’ कानून की धारा तीन की उपधारा एक में आतंकवादी कार्यवाही और आतंकवादी को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। वस्तुतः पोटा का कानून विशेष रूप से आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए बनाया गया है। समीक्षा समिति का काम यह होगा कि समय-समय पर इस कानून का इस्तेमाल गलत व्यक्तियों पर जाने की हालत में वह समिति विभिन्न राज्यों द्वारा इस कानून के इस्तेमाल पर नजर रखेगी और खामियों को दूर करने का सुझाव देगी। समिति विशेष रूप से ध्यान रखेगी कि कानून का दुरुपयोग सामान्य नागरिकों या अपराधियों के प्रति न हो। पोटा कानून मूल रूप से आतंकवादियों के लिए बना है।