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Hindi Essay, Paragraph on “Gut-Nirpekshta”, “गुट-निरपेक्षता” 700 words Complete Essay for Students of Class 9, 10 and 12 Examination.

गुट-निरपेक्षता

Gut-Nirpekshta 

 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संसार में दो प्रमुख शक्तियां उभर कर सामने आईं। ये शक्तियां थीं-अमेरिका और रूस। दोनों में एक-दूसरे से अधिक शक्तिशाली बनने की होड़ थी। दोनों अधिक-से-अधिक आग्नेय और परमाणु अस्त्र बनाने में संलग्न थे। दोनों स्वतंत्र राष्ट्रों को अपने-अपने खेमे में लेने के लिए आतुर थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद अनेक अफ्रीकी और 52 एशियाई देश स्वतंत्र हुए। इन नव स्वतंत्र देशों में कहीं यह विचार भी पनप रहा था कि उक्त शक्तियों में से किसी एक शक्ति के खेमे में सम्मिलित होना तीसरे विश्वयुद्ध को निमंत्रण देना भी हो सकता है। अतः अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व का निर्माण करना चाहिए। यह विचार भारत के नेता पं. जवाहरलाल नेहरू का था। उन्होंने 7 सिंतबर, 1946 को भारत की अंतरिम सरकार के उपाध्यक्ष के रूप में रेडियो भाषण में कहा था- “हमारा विचार है, जहां तक संभव हो, इन गुटों की ताकत से दूर ही रहें, जो एक-दूसरे के खिलाफ बने हुए हैं। जिनकी वजह से पहले युद्ध हो चुके हैं, और जो फिर से इससे भी अधिक खतरनाक युद्धों की ओर खींचकर ले जा सकते हैं।” कहने की आवश्यकता नहीं कि नेहरू के इन्हीं विचारों ने गुट-निरपेक्षता को जन्म दिया। बाद में यूगोस्लाविया के श्री टीटो और मिस्र के नासिर के साथ विचार-विमर्श कर गुट-निरपेक्ष देशों का संगठन ही खड़ा कर लिया गया।

गुट-निरपेक्ष के लिए कभी-कभी ‘तटस्थ’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। यहां तक कि पं. नेहरू ने भी इस शब्द का प्रयोग किया था। वस्तुतः गुट-निरपेक्षता से आशय केवल गुटों से दूर रहना ही है। विश्व में स्थित परिस्थितियों से तटस्थ या उदासीन रहना नहीं। गुट-निरपेक्ष संगठन के देश अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के हामी हैं। विकट-स्थिति पर स्वयं निर्णय लेना चाहते हैं। परिस्थितियों से उदासीन रहना नहीं चाहते। यदि गुट-निरपेक्षता का आशय तटस्थ से होता तो नेहरू जैसा व्यक्ति ऐसा कभी स्वीकार नहीं करता, क्योंकि पाप करने वाला ही केवल पापी नहीं है, बल्कि व्यूमी है। जो पाप करते हुए को तटस्थ भाव से देखता रहता है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कविवर ने कहा है-

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल आधा।

जो तटस्थ है, समय लिखेगा उसका भी इतिहास।

गुट-निरपेक्षता केवल विचार तक ही सीमित नहीं, बल्कि नेहरू, टीटो और नासिर के प्रयासों से यह एक आंदोलन बन गया, एक संगठन बन गया और अब इसके सौ से भी अधिक सदस्य हैं, जो विश्व के लगभग तीन-चौथाई जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इन प्रथम सम्मेलन 1060 ई. में बेलग्रेड में हुआ था। इस संगठन ने निरस्त्रीकरण की समस्या के निदान का प्रस्ताव रखा था। जिसकी ध्वनि और विचाराभिव्यक्ति प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के स्वर में मिलती है. “देखकर विश्व में चारों तरफ महाअशांति निःशस्त्रीकरण चाहिए।” नेहरू युग का महाना कि “यदि हम गुटनिरपेक्ष राष्ट्र एकजुट हो निरस्त्रीकरण नहीं करेंगे तो शैतान का ज्वालामुखी एक दिन समूची मानवता को विध्वंस कर सकता है।” उसके बाद उपनिवेशवाद की समाप्ति, साम्राज्यवाद का विनाश, रंगभेद नीति की आलोचना, शक्तियों के बीच का तनाव कम करना तथा सदस्य देशों की आर्थिक उन्नति का प्रयास आदि उद्देश्यों और मूल्यों के लिए संगठन निरंतर गतिशील रहा है। भारत सहित इन देशों ने दुनिया के पराधीन देशों की स्वतंत्रता की वकालत की है। फिर चाहे वह दक्षिण अफ्रीका हो या नामीबिया हो, चाहे कम्पूचिया हो और चाहे फिलस्तिनियों की समस्या। इन देशों ने ईरान-इराक युद्ध को बंद कराने का भी प्रयत्न किया। अफगान समस्या के निदान का भी प्रयत्न किया।

विश्व की स्थितियों और परिस्थितियों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि इन देशों को अपने उद्देश्यों में सदैव सफलता नहीं मिली। इसका सबसे बड़ा कारण जो दिखलाई पड़ता है, वह है इन देशों का आर्थिक दृष्टि से दुर्बल होना। वस्तुतः इनका सबसे पहला प्रस्ताव निरस्त्रीकरण आज भी सफल होता नजर नहीं आ रहा। वह अमेरिका और रूस के समझौते के बल पर, किंतु इन देशों के नैतिक दबाव से इनकार नहीं किया जा सकता। आर्थिक दृष्टि से भी, इन देशों में कई समझौते हुए, जिनका परिणाम औसतन ही रहा। विज्ञान और तकनीक का विनियम हुआ है, जिसे अब और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है।

इस संगठन में प्रयत्न क्यों अधिक सफल नहीं हुए? जहां आर्थिक दृष्टि से इनका कमजोर होना इसका कारण है, वही इनमें एकरूपता का भी अभाव है। इनमें से कुछ का झुकाव रूस की ओर तो कुछ का अमेरिका की ओर है। कुछ का अस्तित्त्व विश्व की राजनीति में नगण्य है। भारत जैसे बड़े देश को कभी-कभी उस गुट की ओर झुकना पड़ता है। फिर भी यह विश्व का एक शक्तिशाली संगठन है और इसकी आवाज को अनुकूल करना अब कठिन होगा।

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