Hindi Essay on “Vidyarthi aur Anushasan”, “विद्यार्थी और अनुशासन” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
विद्यार्थी और अनुशासन
Vidyarthi aur Anushasan
विद्यार्थी का स्वरूप : विद्यार्थी शब्द ‘विद्या’ और ‘अर्थी’ इन दो शब्दों के संयोग से निर्मित हुआ है जिसका अर्थ है विद्या प्राप्त करने का अभिलाषी अर्थात् इच्छुक। अनुशासन शब्द का विग्रह संस्कृत भाषा में इस प्रकार है-‘अनु शास्यतेऽनेन्’ अर्थात् आदेश के अनुसार अनुसरण करना। स्पष्ट है कि विद्यार्थी जीवन और अनुशासन दोनों का अटूट सम्बन्ध है; क्योंकि एक विद्यार्थी अपने आचार्य के अनुशासन में रह कर ही विद्या प्राप्त कर सकता है।
अनुशासन का महत्त्व : अनुशासन का पालन करने वाले छात्र में सेवा, नम्रता और सच्चरित्रता ये तीन गुण होने परमावश्यक हैं। इतिहास साक्षी है कि परशुराम जैसे महाक्रोधी महर्षि ने कर्ण की सेवा भावना से द्रवित होकर ही अस्त्र विद्या का दान दिया। विनम्र विद्यार्थी न केवल विद्या लाभ ही करते देखे गये हैं ; अपितु गुरुजनों के शुभाशीर्वाद और वरदान के पात्र भी बने हैं। तीसरा गुण है- सच्चरित्रता। इसकी कसौटी है सत्यवादिता व मन-विग्रह। उपनिषदों के अनुसार आचार्य सत्यकाम ने अज्ञात-कल-शील जावाल की सत्यवादिता से प्रभावित होकर ही उसे विद्या दाने का अधिकारी मान लिया। महाभारत युद्ध के विजेता अर्जुन, इसलिये द्रोणाचार्य द्वारा सर्वश्रेष्ठ शिष्य घोषित किये गये कि उनको मन सदा लक्ष्य को ही देखता था।
अनुशासनहीनता से हानियाँ : उत्तरदायित्व और कारण : यह स्पष्ट है कि सेवा, नम्रता और सच्चरित्रता से युक्त अनुशासन, विद्या प्राप्ति के लिये परम आवश्यक है; किन्तु आज की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में गुरु और शिष्य का वह निकटतम सम्बन्ध नहीं रहा जो प्राचीन और मध्यकाल में था।, आज तो स्वतन्त्रता के इस युग में चारों ओर अनुशासनहीनता का साम्राज्य व्यापक है। आये दिन छात्रों की अनुशासनहीनता की घटनाओं से समाचारपत्रों के कालम भरे रहते हैं। आज का विद्यार्थी उच्छृखल होता जा रहा है। अपने गुरुजनों एवं माता-पिता का आदेश मानना तो दूर रहा, उनका यथोचित सम्मान करने में भी वह अपनी हेठी समझता है। उसमें इतना अहंभाव बढ़ गया है। कि उसे, अपने बड़े बूढों को ‘मूर्ख’ ‘अन्धविश्वासी’, ‘रूढ़ि के गुलाम’ आदि अशोभनीय उपाधियों से विभूषित करने में भी संकोच नहीं होता। उसके जीवन में स्वच्छन्दता, विलासिता और अनैतिकता जड़ पकड़ती जा रही है।
इन दुर्गुणों के विद्यार्थी-जीवन में आने और पनपने के कारणों पर विचार करना होगा। आए दिन विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों के सम्मेलनों में, शिक्षा-आयोग की रिपोर्ट में, मंत्रियों और नेताओं के भाषणों और समाचारपत्रों के सम्पादकियों में यही सुनने को मिलता है कि आज का विद्यार्थी, जो कल का नागरिक है, अपनी अनुशासनहीनता से देश की व्यवस्था के लिये घातक सिद्ध हो सकता है। अत: शिक्षाशास्त्रियों और विद्याविदों ने इस अनुशासनहीनता के कुछ कारणों की खोज करते । हुये निम्न कारण गिनाए हैं-
(1) राजनीति का विषमय प्रभाव,
(2) गरुओं के प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना का ह्रास,
(3) धार्मिक और नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता का अभाव,
(4) दूषित दण्ड प्रणाली का प्रयोग।
प्राचीन शिक्षा प्रणाली, शरीर, बुद्धि और मन से पूर्णत: स्वस्थ ऐसे व्यक्ति का निर्माण करती थी जो इस लोक में तो सुख, शक्ति और समृद्धि का उपभोग करता ही था, पारलौकिक सिद्धि के लिये भी मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ होता था। इसके विपरीत आधुनिक शिक्षा प्रणाली से सींचा गया। आज का विद्यार्थी ने शरीर से स्वस्थ दिखाई देता है और न मन से पवित्र। न तो उसके मुख पर तेज़ है और न ही उसके शरीर में परिश्रम करने की शक्ति। स्कूल या कॉलिज को जाते समय उसके हाथ में रहने वाली पुस्तकों अथवा नोट बुकों को देखकर, लोग भले ही उन्हें अध्ययनशील मान लें ; किन्तु बाजारू कुंजियों को रट-रटकर उत्तीर्ण होने वाले इस छात्र की निजी विचारधारा एकदम अवरुद्ध हो चुकी है।
आज के विद्यार्थी समुदाय में गुरु के प्रति जिसे अश्रद्धा की हम प्रायः चर्चा किया करते हैं, उसके लिये यदि एक ओर वर्तमान शिक्षा पद्धति दोषी है, तो दूसरी ओर वे अध्यापक भी उत्तरदायी हैं जो बाहर से कुछ और तथा अन्त:करण से कुछ और ही होते हैं। इस तथ्य में दो मत नहीं हो सकते कि विद्यार्थी पढ़ने अथवा सुनने की अपेक्षा देखकर बहुत शीघ्र सीखता है जिसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि महत्त्व इस बात का नहीं है कि अध्यापक उन्हें क्या पढ़ाते हैं, वास्तव में महत्त्व तो इस । बात का है कि अध्यापक उनके सामने कैसा आचरण उपस्थित कर सकते हैं।’ आज के अध्यापक जैसा बालकों को करने के लिए कहते हैं, क्या स्वयं भी वैसा ही करते हैं ? उनकी इस कथनी और करनी का।
अन्तर जब विद्यार्थी पर प्रकट होता है, तो उसमें श्रद्धाभाव की कमी हो जाना स्वाभाविक ही है। एक अध्यापक के प्रति होने वाली यह अनास्था अन्य अध्यापकों के प्रति भी श्रद्धाभाव की कमी करा ही देती है। अध्यापक का व्यक्तित्व यदि सदाचार सम्पन्न होगा, तो निश्चय ही उसके द्वारा दी गई शिक्षा से विद्यार्थी अनुशासित बनेगा।
अनुशासन की दिशा में हमारे कर्तव्य : यह सत्य है कि आज के संघर्षमय युग में अभिभावकों के पास अपने बच्चों के लिये समय का सर्वथा अभाव है, फिर भी विद्यार्थी के जीवन में अपने घर और समाज के वातावरण का भी प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। अत: विद्यालय, घर तथा समाज तीनों ही स्थानों का वातावरण स्वस्थ रहना चाहिए । यदि केवल विद्यालय पर ही ध्यान जायेगा, तो दूसरी ओर से अनुशासनहीनता प्रविष्ट हो जायेगी । अत: जब तक सुयोग्य एवं सदाचार सम्पन्न अध्यापकों को विद्यार्थी नहीं सौंपे जाते, अभिभावक अपने को आदर्श और कर्तव्यपरायण नहीं बनाते, मनोरंजन के साधनों को परिष्कृत नहीं किया जाता, पाठ्य विषयों के स्तर में सुधार नहीं होता और विद्यालयों का वातावरण राजनैतिक कुचक्र से परिमार्जित नहीं किया जाता तब तक अनुशासनहीनता की यह समस्या हल नहीं हो सकती।