Hindi Essay on “Upanyas padhne se Labh aur Hani”, “उपन्यास पढ़ने से लाभ और हानि” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
उपन्यास पढ़ने से लाभ और हानि
Upanyas padhne se Labh aur Hani
प्रस्तावना : मनोरंजन जीवन के लिए उपयोगी हैं। वस्तुत: आज के व्यस्त जीवन में यदि मानव को एक क्षण को भी मनोरंजन न प्राप्त हो, तो उसका जीना ही भार स्वरूप हो जाएगा। मनोरंजन से मस्तिष्क को शान्ति प्राप्त होती है। वैसे वैसे मनोरंजन के साथ-ही ज्ञान प्राप्ति के साधन सत्संग और चित्रपट दर्शन आदि हैं; परन्तु ये साधन सर्वदा सुलभ नहीं हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धि विकास एवं मनोरंजन का श्रेष्ठतम साधन पुस्तक अध्ययन ही है। आज पुस्तकों के भी विविध प्रकार हैं। कोई कविता पठन में रुचि रखता है, तो कोई नाटक, निबन्ध एवं ललित कलाओं के अध्ययन में आनन्द का अनुभव करता है। इतना सब होने पर भी यह कुछ अनुभवजन्य बात है कि अधिकतर लोग कथा साहित्य के पठन में विशेष अभिरुचि रखते हैं। कथा साहित्य में भी अधिकतर काल्पनिक कथाओं पर आधारित उपन्यासों में इधर कुछ दिनों से लोग विशेष अभिरुचि ले रहे हैं। इसी कारण रेलवे तथा बस स्टेशनों के बुक स्टालों पर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े उपन्यासों की भरमार है।
उपन्यास का अर्थ व परिभाषाएँ : इससे पूर्व कि हम उपन्यास पढ़ने से होने वाले लाभों अथवा हानियों की विवेचना करें, यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उपन्यास शब्द का अर्थ, व्युत्पत्ति और उसकी परिभाषा जान ली जाए ; क्योंकि जब तक किसी विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, तब तक उसके प्रभाव की सही विवेचना करना अपने ज्ञान के दिवालियेपन का विज्ञापन जैसा प्रतीत होता है। वर्तमान हिन्दी उपन्यास हिन्दी साहित्य के लिए सर्वथा एक नवीनतम देन है। ‘उपन्यास’ शब्द का अर्थ आज जिस रूप में प्रयुक्त होता है, वह मूल ‘उपन्यास’ शब्द से सर्वथा भिन्न है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में उपन्यास शब्द का प्रयोग आजकल के उपन्यास के अर्थ में नहीं होता था। संस्कृत लक्षण ग्रन्थों में इस शब्द का प्रयोग नाटक की सन्धियों के एक उपभेद के लिए हुआ है। इसकी इस प्रकार से व्याख्या की गई है कि अर्थात् किसी अर्थ को युक्ति युक्त रूप में रखना उपन्यास कहलाता है। उपन्यास’ शब्द की व्युत्पत्ति है, उप+नि+आस। इसका विग्रह उप=निकट+न्यास=रखना, अर्थात् सामने रखना है। इसके द्वारा उपन्यासकार पाठक के निकट अपने मन की कोई विशेष बात, कोई नवीन मत रखना चाहता है।
भारत की कई प्रान्तीय भाषाओं में यह शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। दक्षिणी भाषाओं तेलुगु आदि में यह हिन्दी के ‘वक्तृता’ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त होता है। दक्षिण की उक्त भाषाओं में अंग्रेज़ी ‘नावेल’ शब्द के लिए संस्कृत शब्द ‘नवल’ गढ़ लिया गया।
विभिन्न विद्वानों ने उपन्यास के उक्त अर्थ को ध्यान में का अपितु उपन्यास की विशेषता एवं गुण के आधार पर उपन्यास की परिभाषा अनेक रूपों में की है। डॉ० श्यामसुन्दर दास, “मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा को उपन्यास मानते हैं। प्रेमचन्द के शब्दों में, “उपन्यास मानव चरित्र का चित्र मात्र है।” भगवतशरण उपाध्याय साहित्य के अन्य अंगों के समान उपन्यास को जीवन का दर्पण मानते हैं। कुछ विद्वान् उपन्यास को ‘आधुनिक युग का काव्य’ कहते हैं। आज उपन्यास गद्य साहित्य की एक विशेष विधा के रूप में माना जाता है।
उपन्यास के तत्त्व तथा भेद : तत्त्वों की दृष्टि से विद्वानों ने उपन्यास के छः तत्त्व माने हैं। 1. कथावस्तु, 2. चरित्र-चित्रण, 3. कथोपकथन, 4. शैली, 5. देशकाल, 6. बीज या उद्देश्य। तत्त्वों कावर्गीकरण योरोपीय है। उक्त छ: तत्त्वों में से तीन प्रमुख माने जाते हैं, कथानक या घटनाक्रम, चरित्र या पात्र और बीज या उद्देश्य । जहाँ । कहीं बीज या उद्देश्य नहीं होता वहाँ मनोरंजन ही उद्देश्य होता है। वैसे आज के उपन्यासों का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर मानव समाज के विविध अंगों की व्याख्या करना व उस पर विचार करना इसका प्रधान उद्देश्य बन चुका है। अब उपन्यास के कथानक और पात्रों का निश्चित स्वरूप स्थिर करने में भी कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई हैं; क्योंकि नवीन उपन्यासकार कथानक और पात्रों का नया स्वरूप गढ़कर नवीन प्रयोग कर रहे हैं।
इन प्रमुख तत्त्वों के आधार पर उपन्यासों के तीन भेद माने गए हैं-घटना प्रधान, चरित्र प्रधान और नाटकीय । वर्त्य विषय के आधार पर अनेक भेद किए गए हैं, यथा- धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक, आर्थिक, प्राकृतिक और यौन सम्बन्धी आदि । परन्तु तत्त्व वर्य-विषय, शैली आदि सभी विशेषताओं को ध्यान में रखकर विद्वानों ने केवल चार प्रधान भेद माने हैं-(1) घटना प्रधान, (2) चरित्र प्रधान, (3) नाटकीय, (4) ऐतिहासिक।
उपन्यासों का संक्षिप्त परिचय : कुछ विद्वानों के अनुसार अनेक विधाओं के समान हिन्दी उपन्यास भी आधुनिक युग की ही देन है। परन्तु कुछ आलोचक संस्कृत, के ‘कादम्बरी’ ‘दशकुमारचरित’ आदि कथा ग्रन्थों को भी उपन्यास मानते हैं और इसी धारणा के अनुसार हिन्दी उपन्यासों की परम्परा का सम्बन्ध वहीं से जोड़ते हैं। परन्तु अन्य अंगों के समान हिन्दी उपन्यास-साहित्य का जनक भी भारतेन्दु युग ही है।
विभाजन के आधार या प्रथम अवस्था (सन् 1850 से 1900 तक) : कुछ लेखक इंशाअल्ला खाँ रचित ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिन्दी का सर्वप्रथम उपन्यास मानते हैं। आचार्य शुवल कथावस्तु और वर्णन प्रणाली के आधार पर लाला श्री निवासदास कृत ‘परीक्षागुरु’ को हिन्दी का सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास मानते हैं। डॉ० श्रीकृष्ण लाल हिन्दी के क्रमिक विकास का मूल ‘तोता-मैना’ और ‘सारंग सदावृक्ष’ जैसी कहानियों में खोजते हैं। पं० बालकृष्ण भट्ट ने ‘नूतन ब्रह्मचारी’ तथा ‘सौ अजान और एक सुजान’ नामक छोटे-छोटे उपन्यास लिखे।
द्वितीय अवस्था (1900 से 1915 तक) : खत्री जी ने ‘इला’ और ‘प्रगिला’ का तथा गहमरी जी ने ‘नए बाबू’ तथा ‘बड़े भाई आदि उपन्यासों के अनुवाद किए । देवकीनन्दन खत्री ने ‘चन्द्रकान्ता’, चन्द्रकान्ता संतति’ तथा ‘भूतनाथ’ का सृजन किया। पं० किशोरी लाल गोस्वामी ने तारा, तरुण, तपस्विनी और रजिया बेगम आदि उपन्यासों की रचना की।
तृतीय अवस्था (1915 से 1936 तक) : इस काल में उपन्यास का सर्वांगीण विकास हुआ। प्रेमचन्द के सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, गबन और गोदान आदि इसी काल के उपन्यास हैं। कौशिक, चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा व अज्ञेय आदि के उपन्यास बड़ी उच्च कोटि के हैं।
आधुनिक काल (सन् 1935 से अब तक) : इस युग के प्रगतिवादी व माक्र्सवादी धारा से ओत-प्रोत उपन्यास हैं। यशपाल के ‘दादा कामरेड’, ‘देशद्रोही’, ‘दिव्या’ आदि सुन्दर उपन्यास हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क के गिरती दीवारें’ और ‘गर्म राख’ विशेष रूप से प्रसिद्ध हो चुके हैं। नागार्जुन के ‘बलचनमा’ और ‘रतिनाथ की चाची’ भी प्रसिद्ध हैं। अमृतलाल नागर का ‘बूंद और समुद्र’ बड़ा ख्याति प्राप्त उपन्यास है। श्री शरण का ‘जिन्दगी की तहे उपन्यास भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। इस प्रगति को देखते हुए हम कह सकते हैं कि हिन्दी उपन्यासों का भविष्य अति उज्ज्वल और महान है।
उपन्यास के पठन से लाभ : आज उपन्यास का स्तर बहुत उच्च है। भले ही प्रारम्भिक उपन्यास सामान्य रहे हों । आज के युग में उपन्यास पढ़ना बुरा नहीं समझा जाता। उपन्यास साहित्य है और साहित्य की परिभाषा ही है ‘हितैन सहितम्’। अत : उपन्यास पढ़ने से अनेक लाभ हैं। सर्वप्रथम उपन्यास व्यक्ति और समाज का हित करता है। उपन्यास मनोरंजन के साथ मानसिक विकास भी करता है। ‘मनोरंजन ही न कवि का कर्म हो’ के सिद्धान्त के अनुसार उपन्यासकार मनोरंजन के साथ हमें ज्ञान प्रदान करता है। थामस हार्डी, गोर्की व प्रेमचन्द के उपन्यास हमें तत्कालीन सामाजिक स्थिति का अच्छा ज्ञान प्रदान कराते हैं। वृन्दावनलाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री व श्री शरण के उपन्यासों को पढ़ने से हमें ऐतिहासिक ज्ञान भी प्राप्त होता है।
मनोरंजन व ज्ञान : वृद्धि के साथ-साथ उपन्यास पठन का एक बहुत लाभ यह है कि उससे अध्ययन व पढ़ने में रस प्राप्त होता है। धीरे-धीरे पढ़ने में अभिरुचि इतनी बढ़ती है कि अन्य पुस्तकें पढ़ने को भी जी करने लगता है। चरित्र-निर्माण तथा परिस्थितियों के अनुकूल आचरण बनाने का भी पाठ उपन्यास सिखाते हैं। ये पाठक को साहसी, वीर व कर्मठ बनाने में भी सक्षम हैं। उपन्यास का चयन श्रेष्ठ हो, तो मानव की अनेक सद्वृत्तियों का विकास होता है। किती दिव्य पात्र के यथार्थ गुणों के प्रति हमें ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। भाषा परिष्कार व उसके विकास तथा नवीन शब्द ज्ञान के विचार से भी इनका विशेष महत्त्व है। श्रेष्ठ लेखक के उपन्यास से हम अनेक लाभ उठा सकते हैं।
उपन्यास पठन से हानि : यह सत्य है कि उपन्यास पढ़ने से अनेक लाभ हैं; किन्तु सभी उपन्यास लाभदायक नहीं होते हैं। प्रायः ऐसे उपन्यास भी लिखे जाते हैं जिनमें कोरी कल्पना या बेतुकी बातों का समावेश होता है। उनमें न तो शील होता है और न चरित्र हो। ऐसे उपन्यासों को पढ़ने से चरित्र बिगड़ने के अतिरिक्त अन्य कुछ लाभ नहीं होता।
दूसरी हानि यह है कि उपन्यास पाठक को कल्पना जगत का प्राणी बना देते हैं और वे इस ठोस धरातल व यथार्थ जगत की अपेक्षा काल्पनिक विश्व में विचरण करते हुए खोये-खोये से रहते हैं तथा काल्पनिक उपन्यास को नायक-नायिकाओं के समान अपने को भी अनुभव करते हैं।
तीसरी हानि यह है कि उपन्यास-रचना को धनार्जन का साधन बनाकर केवल कला-कला के लिए बनाकर लेखक ‘अपना उल्लू सीधा करते हैं। सस्ते मनोरंजन के साधन मात्र ऐसे उपन्यास अश्लीलता के सागर होते हैं जिनका प्रभाव समाज पर बहुत बुरा पड़ता है।। आजकल नए लेखकों के पॉकेट बुक के रूप में स्टेशनों के स्टाल पर । मिलने वाले उपन्यास इसी प्रकार के हैं।
उपसंहार : इनमें से अनेक हानियाँ तो ऐसी हैं जो जन-सामान्य पर प्रभाव डालती हैं; किन्तु कुछ विशेष अवस्था के पाठकों पर ही प्रभाव डालती हैं। अत : उपन्यास पठन से लाभ और हानि दोनों हैं; परन्तु फिर भी हानि की अपेक्षा लाभ अधिक हैं। यदि ‘साधु को ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।’ को ध्यान रखकर हम इसकी अच्छाइयाँ ही ग्रहण करें बुराइयों की ओर दृष्टिपात न करें, तो हमें उपन्यास पढ़ने से लाभ-ही-लाभ हो सकते हैं। आज उपन्यासकार यदि अपने दायित्व को निभाएँ, तो उपन्यासों के माध्यम से भ्रष्ट समाज को चरित्रवान एवं शीलयुक्त बनाने में सफल हो सकते हैं।