Hindi Essay on “Suchna ka Adhikar Vidheyak” , ”सूचना का अधिकार विधेयक” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
सूचना का अधिकार विधेयक
Suchna ka Adhikar Vidheyak
देष के प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए वायदे को पूरा करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए यूपीए सरकार ने सूचना अधिकार विधेयक-2005 को संसद के दोनों सदनों से पास करा लिया। लोकसभा ने 11 मई को और राज्य सभा ने 12 मई 2005 को इस विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दी। राष्ट्रपति की अनुमति से इस अधिनियम के कुछ प्रावधान तत्काल प्रभाव से लागू हो गए । जबकि शेष प्रावधानों के लागू होने की स्थिति में अलग से अधिसूचना जारी की जाएगी। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों व पंचायती राज संस्थानों के अतिरिक्त सरकारी अनुदान प्राप्त करने वाली संस्थाओं के अतिरिक्त सरकारी अनुदान प्राप्त करने वाली संस्थाएं भी आम नागरिकों को सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करने वाले इस अधिनियम के दायरे में आएंगी। सूचना प्राप्त करने की प्रक्रिया विधेयक में निर्धारित की गई है, जो काफी सरल, सुगम और समयबद्ध है। निर्धारित समय के भीतर वांछित सूचनाएं उपलब्ध कराने में विफल रहने वाले अधिकारियों के विरूद्ध कड़े दण्ड का विधान विधेयक में किया गया हैं विभिन्न महत्त्वपूर्ण मामलों में छूट प्रदान की गई है। इसके लागू होने से प्रशासन में पारदर्शिता लाने के साथ-साथ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में भी मदद मिलेगी।
लोकतांत्रिक देशों में स्वीडन पहला देश था जिसने अपने देश के लोगों को 1766 में संवैधानिक रूप से सूचना का अधिकारी प्रदान किया। आज नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका आदि देशों के नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है। हमारे देश में सूचना के अधिकार की विकास यात्रा 1952 से शुरू होती है, जब भारत में पहला प्रेस आयोग बना। सरकार ने आयोग से प्रेस की स्वतंत्रता संबंधी जरूरी प्रावधानों पर सुझाव मांगे। उसे बाद 1967 में सरकारी गोपनीयता कानून में संशोधन के प्रस्ताव आए लेकिन उन प्रस्तावों को खारिज कर इस कानून को और सख्त बना दिया गया। 1977 में जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में सूचना का अधिकार देने का वायदा किया। 1978 में प्रेस आयोग बना। इस प्रेस आयोग ने और 1966 में बनी प्रेस परिषद ने कुछ सिफारिशें की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। फिर 1981-82 तथा 1986 में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्देश आए जिनमें देश के आम नागरिकों के लिए जााने के अधिकार की जबर्दस्त वकालत की गई। लोगों तक सूचना का अधिकार पहुंचाने की दिशा में सार्थक प्रयास 1989 में बनी वी.पी.सिंह की सरकार ने किया। 1996 के लोकसभा चुनाव में लगभग सभी पार्टियों ने अपने घोषणा पत्र में सूचना के अधिकर से सम्बन्धित कानून बनाने की बात कही। सिलसिला आगे बढ़ा और 1997 में इस संबंध में दो विधेयक लाए गए। एक विधेयक एच.डी.शौरी ने बनाया था और दूसरा प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस सावंत के नेतृत्व में गठित कार्य दल ने। लेकिन ये दोनों विधेयक कानून की शक्ल नही ले सके। इसके बाद संयुक्त मोर्चा की देवगौड़ा और गुजराल सरकारें आईं और चली गईं। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकर ने भी छह साल गंवा दिए। अंततः दिसम्बर 2002 में कानून पास भी हुआ लेकिन इसमें इतनी खामियां थी कि यूपीए सरकार को दोबार विधेयक तैयार करना पड़ा।
सूचना के अधिकार से सम्बन्धित जो वर्तमान कानून है, उसे अनुसार कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी कार्यालय और अधिकारी से जवाब तलब कर सकेगा। सरकारी फाइलों को देखने, उससने नोट्स लेने, उसकी फोटो काॅपी लेने का अधिकार होगा। अगर जानकारी कम्प्यूटर पर हो तो प्रिंट आउट या फ्लाॅपी मिल सकेगी। मांगी गई सूचना 30 दिनों के अंदर उपलब्ध कराना कानूनन जरूरी होगा। किसी की जिंदगी या आजादी से जुड़ी सूचना 24 घंटे में देनी होगी। सभी मंत्रालय और विभाग इस काम के लिए खास तौर पर जन सूचना अधिकारी नियुक्त करेंगे। हर राज्य में चुनाव आयोग की तरह मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यालय होगा। जरूरी सूचना न मिलने पर मुख्य सूचना आयुक्त कार्यालय में शिकायत की जा सकती है।
सूचना के अधिकार से सम्बन्धित इस कानून में कुछ मर्यादाएं भी निर्धारित की गई है। राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बताकर सूचनाएं छिपाई भी जा सकती है। रॉ और आई.बी. जैसी खुफिया एजेंसियों को अपने राज बताने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। राजस्व गुप्तचर निदेशालय को भी इसी प्रकार की छूट दी गई है। इस कानून में यह बात भी कही गई है कि अर्द्धसैनिक बलों की गतिविधियों तथा ऐसी सूचनाएं जिससे केन्द्र और राज्य के रिश्ते प्रभावित हों, को भी सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। सरकारी अधिकारी की ओर से फाइल पर लिखी गई नोटिंग देखने की बात भी इस कानून से संभव नही होगी। अपराध रोकने या कानून व्यवस्था लागू करने का मामला हो तो अधिकारी जानकारी को छिपा सकते हैं। इस कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि वह जानकारी नहीं दी जाएगी जो किसी व्यक्ति की जिता भंग करती हो।
मौजूदा कानून में ऐसे कुल 50 क्षेत्रों को उल्लेख है जिनसे संबंधित सूचनाएं हमेशा गोपनीयता के दायरे में रख जाएंगी। इनमें ऐसी सूचनाओं को शामिल किया गया है जिसको देने से भारत की संप्रभुता, अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों तथा विदेशों से सम्बन्ध पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो। सवाल यह उठता है कि यह तय करने का अधिकार किसे होगा कि अमुक सूचना देश की एकता, अखण्डता और सुरक्षा के लिए गुप्त रखी जानी चाहिए। जाहिर है कि मौजूदा कानून इसका अधिकार सूचना आयुक्तों को देता है। दूसरी बात सूचना मांगने वाले व्यक्ति के पास एक ही रास्ता है- छोटे से शुरू होकर बड़े सूचना आयुक्त के कार्यालय में शिकायत करना है और अन्ततः न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना। तीसरी बात जो महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि भूमण्डलीकरण और निजीकरण के इस दौर में भी सूचना का अधिकार देने वाला यह विधेयक निजी क्षेत्र को अपने दायरे में नही रखता । कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह कानून कई खामियों के बावजूद सही ढंग से अमल में लाया जाएगा तो भारतीय लोकतंत्र को एक व्यापकता और पारदर्शिता उपलब्ध हो सकेगी।