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Hindi Essay on “Shri Guru Gobind Singh”, “श्री गुरू गोबिन्द सिंह” Complete Essay, Paragraph, Speech for Class 7, 8, 9, 10, 12 Students.

श्री गुरू गोबिन्द सिंह

Shri Guru Gobind Singh

 

आपका जन्म 22 दिसम्बर, 1666 को पटना में हुआ था। आपके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी थी। छह वर्ष की आयु में ही वे अपने द्वारा बसाए गए नगर श्री आनन्दपुर साहिब जिला रोपड़ में आ गए थे। नौ वर्ष की आयु में लाहौर के हरियश की कन्या जीतो से इनका पहला विवाह हुआ। अठारह वर्ष की आयु में इनका दूसरा विवाह रामशरणम की लड़की सुन्दरी से हुआ। पहली पत्नी जीतो से उनके दो पुत्र हुए- जोरावर सिंह और जुझार सिंह । दूसरी पत्नी से अजीत सिंह और फतेह सिंह पैदा हुए।

उन दिनों मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ रहे थे। वह तलवार के ज़ोर से हिन्दुओं को मुसलमान बना रहा था। उसके अत्याचार से दु:खी होकर कुछ कश्मीरी पण्डित गुरू तेग बहादुर जी के पास आए। उन्होंने गुरू जी से रक्षा के लिए प्रार्थना की और कहा, जब तक कोई पुण्यात्मा अपना बलिदान नहीं देगी तब तक हम पर मुसलमानों के जुल्म बन्द नहीं होंगे। उस समय बालक गोबिन्दराय वहाँ उपस्थित था। वह बोला, “इस युग में आपसे बढ़कर और पुण्यात्मा कौन हो सकती है।” बालक की बात सुनकर पिता का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया। उन्होंने कश्मीरी पण्डितों से कहा कि वे उनकी रक्षा के लिए अपना बलिदान देंगे। अन्ततः दिल्ली के चांदनी चौंक में अपना बलिदान देकर धर्म की रक्षा की।

पिता के बलिदान के साथ ही नौ वर्ष के बालक को गुरू पद ग्रहण करना पडा। पिता के बलिदान का औरंगजेब से बदला लेने के लिए गुरू जी ने अपनी शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया। पहाड़ी राजा इससे भयभीत होकर इनसे ईर्ष्या करने लगे। वे ऐसे अवसरों की तलाश में रहने लगे कि गुरू गोबिन्द सिंह को नीचा दिखाकर उनकी शक्ति को कम किया जा सके। कहलूर का राजा भीमचन्द गुरू गोबिन्द सिंह से विशेष रूप से वैर रखता था। भंगानी नामक स्थान पर उससे युद्ध हुआ। उसमें गुरू जी की विजय हुई।

सन् 1699 वैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में सिखों का एक भारी सम्मेलन हआ। गुरु जी ने पाँच व्यक्तियों को अपना बलिदान देने के लिए पुकारा। एक-एक करके पाँचों वीर— दयाराम, धर्मदास, मोहकमचन्द, साहिबचन्द तथा हिम्मतचन्द गुरू जी की आज्ञा से आगे आए। गुरू जी उन्हें तम्बू में ले गए और रक्त भरी तलवार लेकर बाहर आए तो लोगों को ऐसा आभास हुआ कि इन पाँचों वीरों ने अपना बलिदान दे दिया है परन्तु ऐसा नहीं हुआ। कुछ समय पश्चात् गुरू जी तम्बू से उन पाँचों व्यक्तियों को अपने साथ बाहर ले आए। उन्हें पंज प्यारे की संज्ञा दी। पहले गुरू जी ने उनको खालसा पंथ में दीक्षित किया और फिर उनसे अमृत छका। इस प्रकार उन्होंने खालसा पंथ की नींव रखी।

अब गुरू जी संगठन करके अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। इससे औरंगज़ेब और अधिक क्रोधित हो उठा। फलस्वरूप उसने लाहौर और सरहिन्द के सूबेदारों को गुरू जी पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। इन सभी ने मिलकर आनन्दपुर साहिब को घेर लिया। मुग़ल सेना अनेक प्रयत्नों के बाद भी किले पर विजय पाने में असफल रही। औरंगजेब ने गुरु जी को संदेश भिजवाया कि यदि गुरु जी आनन्दपुर साहिब का किला छोड़कर चले जाते हैं तो उनसे युद्ध नहीं किया जाएगा।

गुरू जी थोड़े से सिख सैनिकों के साथ बाहर निकले। बाहर निकलते ही मुगल सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। सिरसा नदी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ। सिख सैनिक बहुत कम मात्रा में थे परन्तु फिर भी उन्होंने मुगलों से डटकर मुकाबला किया। गुरू जी युद्ध करते हुए चमकौर साहिब की ओर बढ़ने लगे। उस समय दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह तथा जुझार सिंह उनके साथ थे। लेकिन गुरू जी के दोनों छोटे पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह तथा माता जी उनसे बिछड गए। चमकौर साहिब पहुँच कर गुरू जी ने अपने दोनों बड़े पुत्रों के साथ गढ़ी में मोर्चा सम्भाल लिया तथा मुग़ल सेना से टक्कर ली। बड़ी वीरता से युद्ध करते हुए गुरू जी के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह शहीद हो गए। रात को गुरू जी गढ़ी छोड़कर निकल गए।

गुरू जी से बिछड़े हुए दोनों छोटे पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ भटकते हुए रसोइए गंगू के गाँव चले गए। वहाँ लालची गंगू ने दोनों पुत्रों को सरहिन्द के नवाब वजीर खां को सौंप दिया। उसने उन्हें मुसलमान बनने के लिए कहा। उनके इन्कार करने पर उन्हें जिन्दा ही दीवारों में चिनवा दिया गया।

इसके पश्चात् गुरू जी मालवा प्रान्त पहुँचे। यहाँ नीए नामक गाँव से गुरू जी ने औरंगजेब को फ़ारसी में लिखा एक पत्र भेजा जो कि ‘जफ़रनामा’ नाम से प्रसिद्ध है जिसमें गुरु जी ने औरंगजेब को उसकी धर्मान्धता, क्रूरता, कट्टरता एवम् अत्याचारों के लिए बहुत ही फटकार डाली। सरहिन्द के नवाब की सेना अभी गुरू जी का पीछा कर रही थी। तब गुरू साहिब ने खिदराना जंगल की एक ऊंची पहाडी पर अपना मोर्चा स्थापित किया। चालीस सिख, जो गुरू जी को आनन्दपुर में छोड गए थे फिर पश्चाताप सहित गुरू जी की शरण में पहुंच गए। यहाँ गुरू जी का शत्रओं से जमकर युद्ध हुआ। एक-एक करके सभी सिख सैनिक वीरगति को पाप्त हए। गुरू जी ने टीले से नीचे उतर कर मुग़ल सेना से लोहा लिया, मुग़ल सेना पराजित होकर वहां से भाग निकली। गुरू जी की सहायता के लिए आए हुए चालीस योद्धाओं में से केवल एक महासिंह बचा था। वह बुरी तरह से घायल था। उसकी प्रार्थना को स्वीकार करके गुरू जी ने उनका वेदाबा फाड़ दिया। गुरू साहिब ने इन वीरों को “चालीस मुक्तों” की उपाधि प्रदान की। उस स्थान को आज मुक्तसर कहते हैं।

तत्पश्चात् गुरू साहिब खान देश पहुँचे और नान्देड़ में गोदावरी के किनारे पर रहने लगे। यहां पर उनका सम्पर्क माधवदास वैरागी से हुआ। उसने गुरू जी का शिष्यता ग्रहण कर ली। गुरू जी ने उसका नाम बन्दा सिंह बहादुर रखा जो बाद में “बन्दा वैरागी” के नाम से प्रसिद्ध हआ। उसने विशाल सेना एकत्रित करके सरहिन्दपर आक्रमण करके सरहिन्द के नवाब वजीर को मार कर गुरू जी के बच्चों के हत्यारों को दण्ड दिया।

प्रमुख रचनाएं-इन्होंने हिन्दी कवियों को वीर रस की कविता करने की प्रेरणा दी तथा स्वयं भी वीर रस की कविताएँ लिखीं रामावतार, कृष्णावतार, चण्डी चरित्र तथा विचित्रनाटक आदि प्रमुख रचनाएं हैं ‘जफ़रनामा’ फ़ारसी में लिखित इनकी प्रसिद्ध रचना है। गुरूमुखी लिपि में इन रचनाओं का संग्रह ‘दशम ग्रन्थ’ है।

नान्देड में ही एक रात को सोते हए गुरु जी के पेट में दो पठानों ने घात लगाकर छुरा घोंप दिया। ये दोनों पठान गुरू जी के सैनिक थे। यद्यपि घाव बहुत गहरे थे, लेकिन गुरू जी बच गए। बाद में बहादुर शाह द्वारा भेजे गए धनुष पर चिल्ला चढ़ाते समय उनके घाव के टाँके टूट गए। फलत: सन् 1708 ई० में गुरू जी ज्योति जोत समा गए। लेकिन अपनी मृत्यु से पूर्व वह एक महान् कार्य और कर गए। गुरू जी ने अपनी दूरदर्शिता दिखाते हुए गुरू प्रथा समाप्त कर दी और श्री गुरू ग्रन्थ साहिब को गुरू का स्थान दिया।

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