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Hindi Essay on “Shiksha aur Bekari” , ”शिक्षा और बेकारी” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

शिक्षा और बेकारी

Shiksha aur Bekari

 

शिक्षा का मूल उद्देश्य आवश्यक तौर पर किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए रोजगार व्यवस्था करना, या बेकारी की मार को दूर भगा कर लोगों को उस से मुक्त कराना कतई नहीं है फिर भी किसी-न-किसी रूप में वह आरम्भ से ही रोजगार जुटाने और बेकारी दूर करने का साधन मानी जाती रही है, ऐसा कहने और मानने में कतई सन्देह की गुंजाईश नहीं। आरम्भ से ही यह माना जाता रहा है कि शिक्षा पाकर व्यक्ति के मन मस्तिष्क हर प्रकार से विकसित, उन्नत और योग्य हो जाया करते हैं। विकसित मन-मस्तिष्क वाला व्यक्ति सहज ही हर प्रकार का उचित एवं अच्छा कार्य कर पाने के योग्य हो जाया करता है। बेकारी दूर करने या रोजगार-सम्बन्धी कोई अच्छा एवं उचित कार्य करने की क्षमता एवं योग्यता अपने-आप ही आ जाया करती है। अत्यन्त प्राचीन काल में भी जब युवक गुरुकुलों से शिक्षा ग्रहण कर लौटा करते थे, तो वे राज-काज में किस तरह हाथ बँटा सकते हैं, कौन-सा कार्य करने की क्षमता एवं योग्यता रखते है, इस बात की बाकायदा परीक्षा ली जाती थी। उसके द्वारा जाँच करके ही जो युवक जिस कार्य को कर पाने के योग्य हुआ करता था, उसे वैसा ही रोजगार दिया जाता था। लोकन ध्यान रखने वाली मुख्य बात यह थी कि तब शिक्षा की व्यवस्था भी प्रायः जाति भरवण के अनुसार ही हुआ करती थी। फलस्वरूप प्रत्येक पढ़ा-लिखा या शिक्षित युवक उचित रोजगार पा जाया करता था।

इसके बाद जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, परिस्थितियाँ बदलती गईं, बड़े-बड़े राजतन्त्र विघटित होकर छोटे-छोटे और स्थानीय शासन-प्रशासन स्थापित होते गए। इससे वर्ण जातिवाद और वर्गवाद का शिकंजा भी कसता गया। आपसी युद्धों और विदेशी आक्रमणों के बाद परिस्थितियाँ और बदलीं। सामन्तों, जमींदारों की व्यवस्था के काल में अवसर भी कम एवं सीमित होते गए। घरेलू और कृषि-सम्बन्धी घरेलू दस्तकारियों के काम-धंधे पुश्तैनी बनते गए। इनके लिए विद्यालयी शिक्षा पाना आवश्यक नहीं रह सच तो यह है कि शिक्षा की व्यवस्था प्रायः आम आदमियों के लिए के लिए करी ही नहीं गई। सब कुछ वंश-परम्परा के अनुरूप होने लगा। मजदूर का बेटा मजदूर, मोची-बढ़ई का मोची-बढ़ईही बनने ही लगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आम वर्गों के लोग शिक्षा से कतई कट गए और उनके लिए रोजगार या रोटी रोजी कमाने के लिए भी शिक्षा का महत्व नहीं रह गया। भारत पर अंग्रेजी राज की स्थापना तक लगभग ऐसी ही स्थिति रही।

अंग्रेजो का राज्य स्थापित हो जाने के बाद एक बार फिर लोगों का ध्यान रोजगार और बेकारी करने की दृष्टि से शिक्षा की ओर गया। वह भी उन लोगों का अधिक कि जो परम्परा या पुश्तैनी दृष्टि से किसी प्रकार का व्यवसायोन्मुख रोजगार करने वाले वर्णनहीं थे। दूसरे परिवार बढ एवं बंट जाने के कारण जिन को परम्परागत धन्धे उपयोगी नहीं लगते थे. उनके लिए काम या रोटी-रोजी दे पाने में असमर्थ होते जाते थे। आम शब्दों में कहा जा सकता है कि एक नया वर्ग उच्च मध्य और मध्य वर्ग बन गया था।

अंग्रेज सरकार को अपना राज-काज चलाने के लिए क्लर्को या छोटे-रैक के अफसरों आदि की आवश्यकता थी। सो उपर्युक्त वर्गों के लोग नौकरी पाने के लिए शिक्षा पाने लगे। उनकी देखा-देखी निम्न, मध्यवर्ग के लोग भी शिक्षा को बेकारी दूर कर पाने का एक अच्छा साधन मान कर अपने बच्चों को मिडिल-मैट्रिक तक पढ़ाने लगे। कहा जा सकता है कि इस प्रकार शिक्षा और रोजगार का सम्बन्ध आपस में जुड़ गया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बेकारी दूर करने के लिए शिक्षित होना आवश्यक माना जाने लगा। जो जितना शिक्षित होता, उसे लगभग वैसा ही रोजगार मिलने लगा।

आज तो लगभग शिक्षा पाने का एक मात्र उद्देश्य रह ही गया है रोजगार पाना और बेकारी दूर करना। स्वतंत्र भारत में चाहिए तो यह था कि लोगों को रोजगार मुहैया कराने के लिए शिक्षा को व्यवसायोन्मुखी बनाया जाता, पर ऐसा तो किया नहीं गया, शिक्षा-प्रणाली वही अंग्रेजों के राज की आवश्यकताएँ पूरी करने वाली लार्ड मेकाले के जमाने की रखी गई कि जिसका व्यावसायिकता के साथ कतई कोई सम्बन्ध नहीं था। उसका काम तो बस क्लर्को का बेहिसाब उत्पादन करते जाना था। फलस्वरूप और उचित ही कहा जा सकता है कि नियोजन की नीतियों की हीनता, औद्योगीकरण आदि के कारण परम्परागत धन्धे समाप्त होते गए। उन्हीं के बल पर

पढ़ने-लिखने और सफेद पोशी बनाए रखने वाले युवक उनसे मुँह मोड़ते गए। किसान, बढ़ई, लुहार, बुनकर आदि सभी की सन्तानें थोड़ा पढ़-लिख कर नौकरी पाने के लिए बेताब रहने लगी ताकि उनकी बेकारी दूर हो सके। पर पढ़े-लिखों के लिए इतने अधिक, निरन्तर बढ़ रही आबादी के लिहाज से और भी अधिक रोजगार आखिर आते कहाँ से। फलतः आज सरकारी कार्यालयों. अर्द्धसरकारी और स्वायत्त निगमों में काम से कहीं ज्यादा लोग ठसाठस भरे हैं; पर किसी से कोई काम नियमित ढंग से फिर भी नहीं हो पाता। उधर प्रतिवर्ष स्कूलों-कॉलेजों से पढ़-लिखकर आने वाले बेकारों की एक विकराल-विशाल भीड़ खड़ी होती जा रही है।

प्रत्येक वर्ष संख्या बढती। रोजगार दिला व उन दफ्तरों में नाम लिखाने करते-करते लोग बूढ़े हो जाते हैं, पर कहीं नौकरी आदि नहीं मिल पाती। युवा असन्तोष और आक्रोश पढ़े-लिखों द्वारा अनैतिक, असामाजिक, हिंसक कार्य करने की बढ़ रही संख्या इसी सब का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इस सब प्रकार की अराजकता, हिसा, असन्तोष और आक्रोश से बचने और शिक्षितों को रोजगार देने के लिए यह आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा को रोजगारोन्मुख गाँवों-कस्बों के परम्परागत धंधों का भी आधुनिकीकरण करके उन्हें शिक्षा अंग बनाया जाए। उन धंधों को प्रतिष्ठित भी बनाया जाए, ताकि लोग उन्हें करते हुए शर्म महसुस न करें । ऐसा करके ही शिक्षा के द्वारा बेकारी से लड़ा जा सकता है. अन्य कोई उपाय नहीं।

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