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Hindi Essay on “Sainik Ki Aatma Katha”, “सैनिक की आत्मकथा” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

सैनिक की आत्मकथा

Sainik Ki Aatma Katha

प्रस्तावना : मेरा नाम सुमेर सिंह है। मुरादाबाद के पास मेरा छोटा-सा गाँव है। सिरसी। मेरे पूर्वज शौर्य के प्रतीक थे। बाल्यावस्था से ही उनके शौर्य और बलिदान की कहानियाँ मेरे कानों में पड़ती रही हैं। उनसे विचित्र-सी हिल्लौर मेरे मन में पैदा हो गई। बड़े होने पर मेरी भी इच्छा सैनिक बन कर देश के लिए कुछ करने की हो गई।

सेना में भर्ती : सन् 1992 का अक्टूबर मास था। मैत्री का राग अलापने वाले चीन ने पीठ में छुरा भौंक दिया था। इससे प्रत्येक भारतीय उत्तेजित हो उठा था। कोने-कोने से एक ही आवाज़ आ रही थी- सैनिक बनो, सेना में भरती होओ । मेरा मन उत्साह से भर उठा। मैं माता जी से आशीर्वाद लेकर दिल्ली की बस में बैठ गया। अगले दिन जब मैं भर्ती के कार्यालय में पहुँचा, तो वहाँ हज़ारों युवक पंक्तियों में खड़े थे। मैं भी उनमें जा मिला। स्वास्थ्य परीक्षण के बाद मैं सेना में भर्ती हो गया। कुछ दिनों तक ट्रेनिंग परेड हुई। सैनिकपन मेरे खून में था। इसीलिए कुछ ही दिनों में मैं गोलियाँ चलाने में निपुण हो गया। मेरे अधिकारी मेरे अचूक निशाने और मेरी स्फूर्ति को देखकर गद्गद् हो उठते थे। प्रमाणपत्र मिलते ही मुझे शत्रु से जूझने के लिए मोर्चे पर भेज दिया गया।

मोर्चे पर : एक दिन मुझे अपने नायक के साथ उस चौकी पर जाने का आदेश मिला, जहाँ कई दिनों में थोड़े से भारतीय सैनिक बहुसंख्यक चीनी सेना से जूझ रहे थे। हमारी टुकड़ी ने उक्त चौकी पर पहुँच कर अपना स्थान ग्रहण किया। दो-एक दिन में ही चीनी दस्ते रह-रह कर हमारी चौकी की ओर बढ़ने लगे। तभी हमारी गोलियाँ उन्हें पीछे लौटने के लिए विवश करने लगीं। इस संघर्ष में हमारी टुकड़ी के कई नौजवान हमसे पूर्व ही स्वर्ग में जा विराजे। फलतः चीनियों के समक्ष हमारी टुकड़ी के सैनिकों की संख्या बहुत कम पड़ती गई। फिर भी हमारे प्राणों में साहस का सागर उमड़ रहा था। हम ऐसा महसूस कर रहे थे कि मानो सती पदमिनी स्वयं हमारे समक्ष खड़ी है और हमें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। मुझे अब स्वयं ही अचम्भा होता है कि उस दिन मेरे हाथों में बिजली की सी स्फूर्ति कहाँ से आई थी ? यद्यपि मैं भी गोलियाँ दागते-दागते थक-सा चुका था, फिर भी गन हाथ से न छूटती थी और रह-रक कर गरज उठती थी।

मुझे खुशी थी कि मैं मोर्चे पर अपने आप को कुर्बान कर दूंगा; पर तभी आदेश मिला कि चौकी छोड़कर पीछे लौटो । नायक का दिल बैठ गया और बैठ गया हमारा दिल भी, जो भारत माँ के चरणों पर चढ़ने के लिए सीने में मचल रहा था। विवश होकर हम पीछे की ओर लौट पड़े।

आज भी जब मैं उस घटना के विषय में सोचता हूँ; तो मन के भीतर वही होता है, काश ! मैं अपने प्राणों को भेंट चढ़ा देता । सोचता था, यदि युद्ध चलता रहा, तो एक दिन अवश्य यह घड़ी आएगी, जब मैं अपने प्राणों की भेंट देकर सती पद्मिनी के सामने उपस्थित होऊँगा । पर, अफ़सोस कि युद्ध बंद हो गया है और मन की इच्छा मन में ही रह गई।

उपसंहार : अब कदाचित् ही वह घड़ी आए, जब देश की पुकार पर मुझे फिर मोर्चे पर जाना पड़े। मैं बड़ी उत्सुकता से उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। यदि शत्रु से जूझने का अवसर मिला, तो मैं उस अग्नि को अवश्य बुझाऊँगा जिसकी लपटें शैशवकाल से मेरे प्राणों के अन्दर उठ रही हैं। यदि ऐसी ही भावना हर भारतीय के हृदय में भर जाए, तो शत्रु हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, ऐसी मेरी धारणा है।

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