Hindi Essay on “Sahitya Aur Samaj” , ” साहित्य और समाज” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
साहित्य और समाज
निबंध नंबर :- 01
मानव-जीवन और उसके द्वारा गठित समाज संसार में सर्वाोच्च है। इसी कारण सहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, धर्म आदि स्थूल या सूक्ष्म संसार में जो कुछ भी है, वह सब जीवन और मानव-समाज के लिए ही है, यह एक निर्विवाद मान्यता है। उससे पर या बाहर कुछ भी नहीं। मानव एक सामाहिक प्राणी है। वह व्यक्ति या समूह के स्तर जो कुछ भी सोचता, विचारता और भावना के स्तर पर संजोया करता है, वही सब लिखित या लिपिबद्ध होकर साहित्य कहलाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि साहित्य वस्तुत: जीवन और समाज में भावसामग्री लेकर, अपने शरीर या स्वरूप का निर्माण कर फिर वह सब जीवन और समाज को ही अर्पित कर दिया करता है। लेन-देन की यह प्रक्रिया साहित्य और समाज के आपसी संबंधों को प्राय: स्पष्ट कर देती है। जब से मानव ने सोचना-विचाना, पढऩा-लिखना और अपने-आपको दूसरों पर प्रकट करना सीखा है, तभी से साहित्य-समाज में आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया भी चल रही है और तब तक निरंतर चलती रहेगी, जब तक कि मनुष्यों में सोचने-विचारने आदि के ये गुण रहेंगे। इस दृष्टि से साहित्य और समाज का संबंध चिरंतन कहा जा सकता है।
पाश्चात्य विद्वान डिक्वेंसी ने साहित्य को मुख्य दो रूप स्वीकार किए हैं। एक, ज्ञान का साहित्य और दूसरा शक्ति का साहित्य। साहित्य के इस दूसरे रूप को ही ललित साहित्य कहा गया है कि जो यहां पर हमारा विचारणीय विषय है। ज्ञान के साहित्य के अंतर्गत गणित, भूगोल, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, विज्ञान आदि वे सारे विषय आते हैं कि जो इस भौतिक संसार में जीवन जीने के लिए परम आवश्यक हैं और यथार्थ जीवन जीने की कला सिखाते हैं। संसार में मानव-जीवन और समाज की सारी स्थूल प्रगतियों का आधार ये ही विषय हैं। इसके विपरीत शक्ति का साहित्य या ललित साहित्य का सीधा संबंध सूक्ष्म भाव जगत की अभिव्यक्ति के साथ रहा करता है। मानव-समाज की समस्त कोमल, कांत, हार्दिक भावनांए, जो आनंद का कारण तो बनती ही हैं, जीवन-समाज का दिशा-निर्देश भी करती है, उन सबका वर्णन ललित या शक्ति का साहित्य के अंतर्गत हुआ करता है। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी विषय इस शक्ति के साहित्य के ही अंग माने गए हैं। स्पष्ट है कि चाहे ‘ज्ञान का साहित्य’ हो चाहे ‘शक्ति का साहित्य’ दोनों का मूल स्त्रोत मानव-समाज ही है। दोनों प्रकार के साहित्य का मूल उद्देश्य एंव प्रयोजन भी मानव-समाज और जीवन की सब प्रकार की प्रगतियों का मार्ग प्रशस्त कर उसे आनंदमय बनाना है। जो साहित्य ऐसा नहीं कर पाता, उसे साहित्य न कहकर कोरा शब्द-जाल ही कहा जाता है। इस प्रकार का शब्द-जाल अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाता।
युगों-युगों से रचे जा रहे साहित्य का विश्लेषण करने के बाद निस्संकोच कहा जा सकता है कि आरंभ से लेकर आज तक जितना भी साहित्य, जिस किसी भी युग या विशेष काल-खंड में रचा गया है, वह उस युग का काल-खंड के जीवन और समाज की भावनाओं कोप्रत्यक्ष रूप से प्रतिबिंबित करता है। इसी कारण साहित्य को हम समाज का दर्पण कहते हैं। काल और विकासक्रम से वैदिक-काल में मानव-समाज का जीवन प्रकृति पर आश्रित था। तब के साहित्यकारों ने अपने भावगत वर्णनों के द्वारा प्रकृति के वन, नदी, पर्वत आदि विविध रूपों को देवत्व प्रदान कर दिया। जिसे हिंदी साहित्य का आदि काल कहा जाता है, उसस युग में युद्धों और वीरता-प्रदर्शन की प्रधानता थी, अत: प्रमुख रूप से इन्हीं भावों को प्रगट करने वाला साहित्य रचा गया। यही बात अगले भक्तिकाल, रीतिकाल आदि अन्य कालों के बारे में भी कही जा सकती है। वुस्तुत: साहित्य का मूल स्त्रोत जीवन और समाज में ही छिपा रहता है। यही से भाव-विचार-सामग्री लेकर कोई साहित्यकार उसे अपने ढंग से सजा-संवार और उपयोगी बनाकर कविता-कहानी आदि के रूप में पुन: समाज को लौटा दिया करता है। साहित्य को पढक़र हम किसी देश और उसके किसी युग-विशेष की परीतिस्थितियों आदि का सहज ही अनुमान लगा लिया करते हैं। इस प्रकार साहित्य और समाज दोनों का संबंध अन्योन्याश्रित स्वीकार जाना चाहिए और सभी स्वीकार करते भी है। दोनों में यह आदान-प्रदान हमेशा चला करता है।
संसार में जिन अनेक प्रकार के प्रभावों की चर्चा की जाती है, उन सब में से साहित्य का प्रभाव अचूक और अकाटय माना गया है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के अनुसार तीन, तोप और गोलों में भी वह शक्ति नहीं जो कि साहित्य में छिपी रहा करती है। ये चीजें केवल शरीर पर प्रभाव डालती हैं, जबकि साहित्य हृदय से निकलकर सीधा हृदय पर प्रभाव डाल उसकी दिशा ही बदल दिया करता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि हम अच्छे साहित्य की ही रचना और अध्ययन करें। इस रचना के लिए सामाजिकता की अच्छाइयां सामने आना बहुत आवश्यक है। अच्छा समाज और अच्छा साहित्य मिलकर ही जीवन को उन्नत और समृद्ध बना सकते हैं। इन तथ्यों के आलोक में हम यही कहना चाहते हैं कि साहित्य-समाज दोनों एक-दूसरे के दर्पण है। दोनों का मूल्यांकन उन्हें अलग-अलग रखकर नहीं किया जा सकता। जरूरत इस बात की है कि दर्पणों को साफ-सुथरा रखा जाए, ताकि हमारी सूरत अच्छी नजर आ सके। उसका भदेस एक-दूसरे के सहायता से मिटाया जा सके।
मानव-जाति के मन-मस्तिष्क के लिए संतुलिक आहार साहित्य ही उपलब्ध करा सकता है। जिस प्रकार सड़ा-गला और बासी खाने-पीने से हमारा स्वास्थ्य विकृत होकर शरीर अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाया करता है, उसी प्रकार विकृत और अश्लील विचारों वाला साहित्य पढऩे-लिखने से जीवन-समाज भी दूषित होकर रह जाया करते हैं। तब इस प्रकार के समाज और साहित्य दोनों की अपनी कोई पहचान नहीं रह जाया करती। वह समाज, उसकी सभ्यता-संस्कृति, उसकी राष्ट्रीयता और यहां तक कि एक देश के रूप में उसकी स्वतंत्रता और पहचान भी विलुत्प हो जाया करती है। सदियों से मानव समाज के वैचारिक स्तर पर जो अमृत प्राप्त किया होता है वह साहित्य में ही संरक्षित रह पाता है। जब वह अमृत न रहेगा, तो समाज अपनी रक्षा कैसे कर सकेगा। समय के अनंत, ओजस्वी प्रवाह के आगे दूषित साहित्य और समाज कभी भी टिक नहीं पाया करते। अत: स्वस्थ, समृद्ध एंव सुखी समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ और उत्कृष्ट, प्रगतिशील साहित्य रचा एंव पढ़ा जाना चाहिए।
मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ट प्राणी है ओर साहित्य उसकी महानतम उपलब्धि मानी गई है। उसमें उसका अपना ही भावाविल वैचारिक प्रतिबिंब संरक्षित रहा करता है। उसे पढ़-देखकर मानव-समाज अपने चेहरे पर लगे धब्बों का परिष्कार कर सकता है। अपनी दुर्बलता को तो दूर कर ही समता है, यानि उस साहित्य को भी अपने ही लिए उपयोगी एंव सबल बना सकता है। इस प्रकार साहित्य और समाज में बिंब-प्रतिबिंब भाव या चोली-दामन का संबंध रेखांकित किया जा सकता है। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व कतई नहीं बना रह सकता। दोनों एक-दूसरे के जीवन-स्त्रोत एंव उत्पे्ररक हैं। दोनों को एक-दूसरे के दर्पण में अपने-आपको देखकर सजना-सजाना होता है। तभी दोनों का अस्तित्व सार्थक रूप में बना रहकर मानव-समाज और साहित्य के लिए भी हितकारी सिद्ध हो सकता है।
निबंध नंबर :- 02
साहित्य और समाज
Sahitya aur Samaj
मनुष्यों की भीड़ को उसी तरह समाज नहीं कहा जा सकता, जैसे सब्जियों या अनाज के एकत्रित समूह को ढेर तो कहा जाता है, पर समाज नहीं। वास्तव में समाज मनुष्यों के उस छोटे-बड़े समूह को कहा जाता है कि जो भावनात्मक स्तर पर आपस में जुड़ा हुआ रहता है। उसके सुख-दुःख, उत्सव-त्योहार आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम, रीति-रिवाज, परम्पराएँ और नीतियाँ आदि सभी कुछ सम्मिलित हुआ करती हैं। यहाँ तक कि उनके हानि-लाभ में भी कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं हुआ करता। इस प्रकार की उन्नत परम्पराओं, समृद्ध और उन्नत मन-मस्तिष्क, भावुक समाज की ज्ञान, विज्ञान कला आदि क्षेत्रों में जो अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ स्वीकार की गई हैं, साहित्य उन सब में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि स्वीकार किया गया है। साहित्यकार क्यों कि समाज का ही हमेशा सजीव-सतर्क रहने वाला भावुक किस्म का अंग होता है, इस कारण जीवन-समाज में जो कुछ भी छोटा-बड़ा, अच्छा-बुरा घटित हुआ करता है, उसकी भावुक सम्वेदना उसे सा करती और उसकी गहराई तक जाने का प्रयास किया करती है। सामान्य जन प्रायः ऐसी-ऐसी तो क्या, बड़ी-बड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं के घटित हो जाने के बाद प्रायः भूल जाया करता है।
दूसरी ओर कवि-साहित्यकार उसी सब को अपने मन-मस्तिष्क में पचा-पका कर अपनी साहित्यिक विद्या (कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि) के रूप में प्रकट किया करता है। इस प्रकटीकरण की प्रक्रिया से साहित्य और समाज का सा स्वय ही प्रभावित हो जाता है। यह भी स्पष्ट पता चल जाता है कि साहित्य का – उत्स, निकास या जन्म स्थान जीवन और समाज ही है।
जीवन और समाज दोनों का जन्मजात स्वभाव गतिशील और विकासशील रहा करता है। वैसे ही कि जैसे अपने निकास यमुनोत्री या गंगोत्री से निकल कर यमुना गंगा या इसी प्रकार की अन्य नदियों का रहा करता है। कई बार ये धाराएँ अपने साथ कुछ मटा-कचरा भी बहा कर ले आया करती हैं, पर धीरे-धीरे वह स्वयं साफ हो जाता या तलछठ में बैठकर ऊपरी धारा को स्वच्छ, उज्ज्वल बना दिया करता है।
साहित्य और साहित्यकार भी अपने स्वभाव से कुछ ऐसा ही कार्य किया करते हैं। वे जीवन-समाज की धारा में बहकर आ गए कुरीतियों, अनाचारों, आडम्बरों आदि कचरों का निराकरण का प्रयास निरन्तर करते रहा करते हैं। फलतः जीवन-समाज की धारा अपनी अबाध निर्मल गति से प्रगति और विकास की राह नापती रहती है जैसे नदियों के तलछठ में बैठ जाने वाला कूडा भीतर-ही-भीतर सड़ कर सड़ान्ध उत्पन्न कर दिया करता है, उसी प्रकार यदि सामाजिक कुरीतियों, अन्य तरह के विद्रूपों को जड़-मूल से उठा या उखाड़ फेंकने का प्रयास न किया जाए, तो समाज भी भीतर-ही-भीतर से सड़ गल कर एक निरन्तर बहते रहने वाला गठित कोढ बन जाया करता है।
सो सजग–सजीव साहित्यकार हमेशा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहा करता है कि समाज की बुराइयाँ और विडम्बनाएँ दबने न पाएं। तब वह कोरे आदर्श का दामन छोड़ कर घोर यथार्थ का फावड़ा अपनाकर उन कुरीतियों-बुराइयों को जड-मल से उखाड़ फेंकने का प्रयास किया करता है। इसी कारण साहित्य और साहित्यकार को समाज का अगुवा एवं नेतृत्व करने वाला कहा एवं स्वीकार किया जाता है।
जिस युग में समाज और जीवन जिस प्रकार का हुआ करता है, साहित्यकार के अपने जीवन और उसके आस-पास जैसी परिस्थियाँ मिला करती हैं, वह उन्ही के अनुरूप ही साहित्य का सृजन किया करता है, ऐतिहासिक क्रम से दृष्टिपात करने पर यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है। संसार के साहित्य में आदि ग्रन्थ मने जाने वाले ऋग्वेद के रचना काल में मानव समाज का जीवन पूर्णतया प्रकृति और उसके विभिन्न स्थूल सध्या तत्त्वों एवं पदार्थों पर आश्रित है। सो कवि ने अपनी आश्रयदात्री, सब प्रकार से समर्थ और सुरक्षा प्रदान करने वाली प्रकृति एवं उसके भिन्न रूपों का गायन ही उस समय रचे गए (वैदिक) साहित्य में किया। उषा, सूर्य, चाँद, सितारे, नदियाँ, पर्वत, तरह-तरह के वृक्ष आदि सब प्रकृति के ही तो उपयोगी रूप हैं। ऋग्वेद में इन्हीं सब को देवत्व प्रदान कर के इन्ही का विभिन्न प्रकार से गायन किया गया है।
इसके बाद जीवन-समाज में जैसे-जैसे विकास होता गया, नित नए परिवर्तन आते गए। साहित्यकारों की मानसिकता भी बदलती गई और साथ ही साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया। बुद्ध मत का प्रभाव बढा तो बौद्ध साहित्य का तत्कालीन पालि भाषा में सृजन हुआ, (वीरगाथा कालः सम्वत् 1050 से 1375) में पहँचते हैं, तो- क्योंकि यग लडाई-झगड़ों और युद्धों का था, सो इस काल खण्ड में इसी प्रकार का साहित्य रचा गया, यद्यपि अन्य (भक्ति, शृंगार, नीति) प्रकार की सृजन प्रक्रिया भी जीवन समाज के शिक्षण के लिए निरन्तर चलती रही। आगे चलकर परिस्थितियों के परिवर्तित प्रभाव से भक्ति-साहित्य, रीतिकाल के सम्भ्रान्त वर्ग के दिलास-वासना लिप्त हो जाने के कारण श्रृंगार साहित्य रचा जाता रहा। आगे चल कर सन् 1857 की असफल जनक्रांति से राष्ट्र-जागरण और स्वतंत्रता प्राप्ति का जो क्रम चला, साहित्यकारों ने उस सब का उचित निर्वाह किया। आज का साहित्यकार भी अपनी चेतना में अपने सामाजिक दायित्वों का सम्पूर्ण निर्वाह कर रहा है।
इस सारे विवेचन-विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य जीवन-समाज की उपेक्षा कदापि नहीं कर पाता। कई बार तो उसने जीवन-समाज का नेतृत्व भी किया है। पीछे तो वह कभी नहीं रहता। हाँ, जो किसी दाद या देश-विशेष का पिछलग्गू बन जाया करता है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी ही नहीं रह जाता। फिर सडा-गला. अश्लील किस्म का या फिर कोई समस्याओं से भरा और लोगों को बेकार की सपनों की दुनिया एवं रेगिस्तानों में भटकाने वाला साहित्य उसी प्रकार अच्छा नहीं माना जाता कि जिस प्रकार बासा एवं सड़ा-गला। इस तथ्य को हमेशा सामने रख कर ही साहित्यकार को सत्साहित्य का सृजन करना चाहिए। तभी समाज और साहित्य दोनों का-मानव-कल्याण एवं लोक-मंगल-विधान का एक मात्र और चरम लक्ष्य पूरा हो सकता है।
So meaningfull n important essay for me