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Hindi Essay on “Parvatiya Sthal ki Yatra” , ”पर्वतीय स्थल की यात्रा ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

 

पर्वतीय स्थल की यात्रा 

Parvatiya Sthal ki Yatra

निबंध नंबर : 01

देश-विदेश की सैर किसे रोमांचित नहीं करती है  गरमियों के महीनों में किसी पर्वतीय स्थल का अपना ही आनंद है। इस आनंद का सौभाग्य मुझे अपने पिछले ग्रीष्म अवकाश में प्राप्त हुआ। जब मेरे पिताजी ने हमें नैनीताल भ्रमण की योजना बताई तो उस समय मेरी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। किसी पर्वतीय स्थल की यह मेरी पहली सैर थी।

यात्रा की शाम मैं अपने माता-पिता व भाई-बहन के साथ बस स्टैंड पहुँचा जहाँ पर वातानुकूलित बस के लिए पिताजी ने पहले से ही सीटें आरक्षित करा रखी थीं। हमारी बस ने रात्रि के ठीक 10ः00 बजे प्रस्थान किया। बस में मधुर संगीत का आनंद लेते कब मुझे नींद आ गई इसका मुझे पता नहीं चला। प्रातः काल जब नींद खुली तो हमारी बस नैनीताल की सीमा में प्रवेश ही कर रही थी। एक प्रमुख पर्वतीय स्थल होने के कारण यहाँ की सड़कें स्वच्छ थीं तथा यहाँ की यात्रा चढा़व व   आड़े-तिरछे रास्तों के बावजूद आरामदायक रही। हम प्रातः काल 8ः00 बजे गंतव्य होटल पर पहुँच गए।

नैनीताल के समीप रास्ते अत्यंत टेढे़-मेढ़े थे। सड़क के दोनों ओर घाटियों के दृश्य एक ओर तो प्राकृतिक सौंदर्य के आनंद से भाव-विभोर कर रहे थे वहीें दूसरी ओर नीचे इन घाटियों की गहराई का अंकन हृदय में सिहरन भर देता और हम भय से नजर दूसरी ओर कर लेते। चारों ओर पहाड़ों व हरे-भरे वृक्ष अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रहे थे। तराई क्षेत्रों की भीषण गरमी से दूर हवा के ठंडे झोंके व प्रातः कालीन सूर्य की स्वर्णिम किरणें मन को आत्मिक सुख प्रदान कर रही थीं।

प्रातः काल नाश्ता आदि के पश्चात् हम सभी पैदल ही होटल से निकल पडे़। बरफ से ढके चारों ओर पहाड़ों से घिरे नैनीताल में मुझे स्वर्गिक आनंद प्राप्त हो रहा था। बर्फीली पहाडी़ चोटियों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणों का दृश्य अत्यंत सुहावना था। प्रकृति की सुंदरता का इतना सुखद अनुभव मुझे इससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुआ। मैंने कैमरे से इस सुंदर छटा को अनेक बार कैद करने की कोशिश की। वे तस्वीरें आज भी मुझे उस आनंद का एहसास कराती हैं।

नैनीताल में सड़कें स्वच्छ थीं। यहाँ के घर साफ-सुथरे थे। अधिकांश घर पत्थरों के बने हुए थे। इसके अतिरिक्त पर्यटकों के ठहराने हेतु यहाँ कई छोटे-बडे़ होटल थे। यहाँ एक ताल है जिसे नैनी ताल कहते है जिसकी प्रसिद्धि के कारण शहर का नाम भी नैनीताल पड़ गया। नैनी ताल के एक किनारे पर ‘नयना देवी‘ का मंदिर है। ताल के एक ओर सड़क व होटल तो दूसरी ओर हरे-भरे वृक्षों से लदे पर्वत हंै। इसके किनारे पर बैठने हेतु बेंचंे बनी हुई हैं। ताल में स्वचालित बोटों का आनंद उठाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त यहाँ पर देश-विदेश के समान की खरीदारी भी की जा सकती है। खाने-पीने के लिए यहाँ सभी प्रकार के व्यंजन उपलब्ध हैं। ताल के किनारे पर बैठकर पर्वतों का अवलोकन मन को आनंदित व शांति प्रदान करता है। निस्संदेह रोगियों के लिए यहाँ की जलवायु किसी औषधि से कम नहीं है। हालाँकि नैनीताल अब एक ऐसे नगर का रूप लेता जा रहा हैं जहाँ के प्राकृतिक पर्यावरण को विकास की बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा हैं। अब यह उत्तरांचल राज्य की राजधानी है।

हमने वहाँ विशेष प्रकार के पहाडी़ नृत्य को भी देखा । यहाँ के लोग प्रायः ईमानदार व अथक परिश्रमी होते हैं। यहाँ के निवासी प्रायः हिंदी भाषी हैं जो मन के सरल होते हैं। नैनीताल का यह सुखद आनंद मुझे आज भी आकर्षित करता है। निस्संदेह प्रकृति की अनुपम छटा का स्वर्गिक आनंद यहाँ पर आकर ही प्राप्त किया जा सकता है।  

निबंध नंबर : 02

पर्वतीय स्थल की यात्रा

Parvatiya Sthal ki Yatra

बचपन से ही मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते रहे हैं। दूर से किसी रूखे-सूखे टीले को देख, उसे पहाड समझ, मेरा जी करता रहा है कि भाग के उस पर चढ़ जाऊँ। इस कारण पिछले वर्ष जब मुझे पर्वतीय स्थान की यात्रा का अवसर मिल तो मैं उसका नाम सुन कर ही फड़क उठा। सोचा, बचपन से पर्वतों पर चढने की जो कल्पना करता आ रहा था, अब उसे पूरा कर पाने का अवसर मिलेगा। सचमुच, बडा ही आनन्द आ जाएगा।

आखिर निश्चित दिन हमारी यात्रा आरम्भ हुई। दिल्ली से देहरादून तक तो हमने रेल में यात्रा की। यहाँ तक की यात्रा में कोई खास रोमांच नहीं था। हाँ, देहरादन की सीमा में प्रवेश करने पर ऊँचे-नीचे रास्तों, कहीं-कहीं पर्वत लगने वाले पठारों, खाइयों सफेदे (यूक्लिप्टिस) और देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ध्यान अवश्य आकर्षित किया। वातावरण और भावों के रोमानी हो जाने की एक प्रकार से भूमिका भी बँधने लगी। लेकिन असली पर्वतीय यात्रा तो देहरादून से आगे आरम्भ हुई कि जो हमें बस द्वारा पूरी करनी पड़ी। निश्चित समय पर यात्रा आरम्भ हुई। पूछने पर पता चला कि यदि पगडण्डियों के रास्ते चढ़ाई चढ़ पाने की शक्ति हो, तो देहरादून से मंसूरी पाँच-सात किलोमीटर से अधिक नहीं। स्थानीय लोग अभ्यस्त होने के कारण प्रायः आते-जाते रहते हैं। लेकिन बस-मार्ग से जाने पर रास्ता पच्चीस-तीस किलोमीटर से कम नहीं पड़ता। हमें तो बस-मार्ग से ही जाना था, सो बस चल पड़ी।

नगर से बाहर निकलकर बस ने जैसे ही अपना पहाड़ी रास्ता पकडा, मैं फटी-फटी आँखों से खिड़की के रास्ते चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य देखने-बल्कि पीने लगा। बस जैसे कुम्हार के चरक पर चढ़ी ऊपर ही ऊपर उठ रहे रास्ते पर बड़ी सावधानी से घूमती या चढ़ती जा रही थी। अभी जहाँ था, घूम कर फिर उसी स्थान पर आ जाती, पर पहले से काफ़ी ऊँची। यह मेरे लिए एकदम नया और पहला अनुभव था। कहीं-कहीं सिर पर लकड़ियाँ या कुछ और लादे गीत गाती जातीं गरीब घरों की पहाड़ी औरतें भी पैदल चलती दिखाई दे जातीं। उनकी सुन्दरता जहाँ वातावरण को चार-चाँद लगाने वाली थी, गरीबी लज्जा से मस्तक झुका देने वाली थी। पहाड़ी घाटियाँ, उनमें उगे वृक्ष, झाड़ियाँ, पौधे, वनस्पतियाँ और ऊपर आकाश पर बार-बार उमड़-घुमड़ आने वाले बादल सभी कुछ बड़ा ही सुन्दर एवं मन को मोह लेने वाला था।

जब तक बस मसूरी के बस-स्टॉप पर पहुँची, वहाँ शाम ढलने लगी थी। बस के रुकते ही बड़े ही फटे हाल सामान ढोने वालों और होटलों के एजेण्टस ने हमें घेर लिया। होटल के एजेण्टस का बनावटी सभ्यता का प्रदर्शन करने वाला व्यवहार जहाँ हमें खल रहा था, गरीब और लाचार कुलियों का व्यवहार मन द्रवित कर करुणा से भर रहा था। कुली हमें यह आश्वासन दे रहे थे कि वे हमारा सामान उठा कर तो ले ही जाएँगे, हमें ठीक-ठाक जगह भी पहुँचा देंगे, जहाँ रहने-खाने का सस्ता और उचित प्रबन्ध होगा। मैंने पिता जी से कह कर एजेण्टों की बजाए कुलियों की बात मानना ही उचित समझा। सचमुच कुलियों सामान उठा कर हमे ऐसे होटल में पहुंचा दिया, जो मुख्य रास्ते (माल रोटी हट कर अवश्य था; पर सस्ता और अच्छा था। अभी हम कमरे में जाकर टिके कि मैंने खिड़की से बाहर देखा। घाटी में धुआँ-सा भरता जा रहा था और लगता कि वह हमारे कमरे की तरफ ही बढ़ा आ रहा है। कुछ देर में सचमुच चारों तरफ घुप अन्धेरा हो गया और मुझे लगा कि वह धुआँ खिड़की के रास्ते भीतर भी घुस आया मोमो चकित देख पिता जी ने बताया कि ये बादल हैं। पहाड़ों में ऐसे ही धुएँ के से बादल उमडा करते हैं। लगता है, जैसे हमारे घरों में घुसते आ रहे हैं। कुछ ही क्षण बाद रिमझिम-रिमझिम वर्षा आरम्भ हो गई और कोई आधे घण्टे बाद सारा वातावरण पहले का सा साफ हो गया। हाँ, लगता था कि आस-पास के वृक्ष-पर्वत आदि जैसे ताजे-ताजे नहा कर आए हैं।

वहाँ जितने दिन रहे, प्रतिदिन ऐसा ही दृश्य देखने को मिला। उस दिन आराम कर अगले दिन से हमने वहाँ के दर्शनीय स्थान देखना आरम्भ कर दिया। कैम्बल हाइट, धोबी घाट, तिब्बती पार्क, नेहरू पार्क आदि देखने के बाद अगली सुबह हमने काम्पटी कॉल देखने जाने का निश्चय किया। क्यों कि कुछ लोग वहाँ भी पगडण्डियों की नीची उतराई उतर-चढकर जाने में विशेष आनन्द की बात कर रहे थे। इस कारण मैं उसी रास्ते से जाना चाहता था; पर अन्य कोई परिचित साथ न होने के कारण परिवार जनों के साथ बस मार्ग से ही जाना पड़ा। वहाँ का तो जैसे दृश्य ही निराला था। चारों तरफ हरी-भरी पहाड़ियाँ, उन के बीच खुली गहरी घाटी में पत्थरों का सीना चीरकर नीचे प्रकृति द्वारा बनाए गए हौज में गिरती पानी की स्वच्छ धारा, देखकर तो लगा ही कि जैसे किसी देव लोक या शिव लोक में पहुँच गए हैं, नहा कर और भी आनन्द आया। सभी लोग बड़े ही मुग्ध भाव से वह मनोहारी दृश्य देख रहे थे।

हम लोग कोई दस दिन वहाँ रहे। हर दिन किसी-न-किसी नए स्थान को देखने जाते रहे। हर दर्शनीय स्थान पर एक बात बड़ी अखरी। वह यह कि हर जगह को लोगों ने प्रायः कूड़े दान-सा बना डाला था। इस बात को उचित नहीं कहा जा सकता। कम-से-कम ऐसे स्थानों को, तो हमें प्रदूषण-रहित बने देना रहना चाहिए। इस पर्वतीय यात्रा के बारे में जब आज याद कर सोचता हूँ तो एक प्रकार का रोमांच तो हो ही आता है, तीन बातें या दृश्य भी याद आकर रोमांचित कर जाते हैं। पहला तो वहाँ के मूल निवासी लोगों की गरीबी और दयनीय दशा, उस पर मैदानों से गए हम लोगों का उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार । दूसरा कैम्बल हाइट का दृश्य और तीसरा काँम्पटी फॉल का देवलोक जैसा रोमानी वातावरण। जी चाहता है, उड़कर फिर से वहाँ जा पहुँचूँ और खिड़की से भीतर घुस आए बादलों को बाहों में भर लूँ।

 

निबंध नंबर : 03

पर्वतीय प्रदेश की यात्रा

Parvatiya Pradesh ki Yatra

 

विद्यार्थी विद्यालय की चारदिवारी में रहकर ही सब कुछ नहीं सीख पाता । पुस्तकों का ज्ञान कुछ समय के पश्चात् वह भूल जाता है परन्तु वे दृश्य जो उसने अपनी आँखों से देखे हैं, उन्हें वह सारी आयु नहीं भूल पाता। स्थान स्थान पर यात्रा करने से परिचय का क्षेत्र बढ़ता है। वहाँ के लोगों के रहन-सहन,खान-पान. वेशभूषा आदि का भी परिचय मिलता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने भी पिछले दिनों एक पर्वतीय प्रदेश की ऐतिहासिक एवं धार्मिक यात्रा की।

इस बार हमारे स्कूल के दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने अध्यापक शर्मा जी के साथ वैष्णों देवी जाने का निर्णय किया । हम जालन्धर से लगभग रात के दो बजे जेहलम गाड़ी, जो सीधी जम्मू जाती है, में सवार हो गए। गाड़ी के चलने के समय ‘जय माता की’ की ध्वनि से सारा स्टेशन गूँज उठा । कुछ समय तक हम आपस में बातें करते रहे। धीरे-धीरे छात्रों को नींद आ गई और सभी सो गए। सुबह सात बजे के लगभग हम जम्मू तवी पहुँचे । उस दिन के लिए सभी ने जम्मू घूमने का निर्णय किया । हम रघुनाथ मन्दिर की सराय में रुके । यहाँ पहुंच कर स्नान आदि करके तैयार हुए और रघुनाथ मन्दिर के दर्शनों के लिए चल पड़े। मन्दिर में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान आदि के दर्शन करके हम लोग जम्मू के बाज़ार में घूमने के लिए निकल पड़े । जम्मू के बाज़ार ऊँचे नीचे देखकर हम सब को बहुत आश्चर्य हुआ । दूसरे दिन सुबह के समय बस से कटरा जाने के लिए तैयार हो गए।

जम्मू के आगे तक बस टेढ़े-मेढ़े घुमावदार मार्ग पर चलने लगी । बस में बैठे-बैठे हम लोग दूर दूर तक हिम आच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं को देख रहे थे। कभी कभी कोई भक्त माता का जयकारा लगाता तो सभी उसके साथ बोल पड़ते । ठंडी-ठंडी हवा के झोंके हमें प्रसन्नता प्रदान कर रहे थे। इस प्रकार पहाडी मार्ग से यात्रा करते हुए हम दिन के 10 बजे कटरा पहुँचे । कटरा में यात्रियों की बहुत भारी भीड़ थी। यहाँ हमने एक धर्मशाला में पड़ाव डाला । कुछ समय बाद हम से कुछ लोगों ने वैष्णों देवी के मन्दिर में जाने के लिए जो टिकट कटरा में मिल रहे थे, प्राप्त किए।

लगभग सायं सात बजे हमने वैष्णों देवी के लिए पैदल यात्रा आरम्भ की। कटरा से थोड़ी दूरी पर बाण गंगा है, हमने उसमें उतर कर स्नान किया । यहां से वैष्णों देवी की यात्रा के लिए दो मार्ग हो जाते हैं। एक मार्ग सीढ़ियों वाला तथा दूसरा घुमावदार पगडण्डी का मार्ग है। हमने निश्चय किया कि कभी सीढियों से चढे और कभी पगडण्डी से । दोनों रास्तों पर आने जाने वाले लोगों की भीड़ थी। लोग आते जाते ‘जय माता की’ कहकर एक दूसरे का स्वागत करते थे। यात्रियों में दक्षिण भारत के भी बहुत से लोग हमसे मिले । धीरे-धीरे चलते चलते हम अर्द्धक्वारी पहुंचे । रात्रि के समय यहां चढ़ना बहुत सुखद और मनोहारी लगता है। अनेक यात्री रात्रि को यही विश्राम करते हैं तथा सुबह फिर अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं। परन्तु हम सबने यह निर्णय किया कि हम लोग अपनी यात्रा रात को जारी रखेंगे । अतः यहां हमने रात्रि का भोजन किया । रात्रि में यहां से कटरा की ओर अत्यन्त मोहक प्रकाश नज़र आता है। फिर इस मार्ग पर चढ़ते हुए हमें अत्यन्त आनन्द आ रहा था। चढ़ाई चढ़ते समय कठिनाई और थकान तो अवश्य होती है परन्तु आनन्द भी बहुत मिलता है। यह मार्ग रात को भी यात्रियों से खचाखच भरा रहता है। थोडी दूर पर हाथी मत्था नामक स्थान आता है। इस स्थान पर बैठ कर हमने थोड़ा विश्राम किया ।

हाथी मत्था से आगे की यात्रा रोचक रही । यहाँ से चढ़ाई समाप्त होती है। पहाडी चोटियों से घिरे हुए इस प्रदेश में दूर दूर तक के स्थान नज़र आते हैं। हरे भरे खेतों के दश्य घने जंगल तथा जंगल में पक्षियों के चह-चहाने की आवाजें बहुत ही कर्ण प्रिय लगती हैं। इस स्थान के पश्चात् लोग भाग-दौड़ कर जाते हैं, बच्चे तो बहुत प्रसन्न होकर दौड़ लगाते हैं। फिर कुछ समय के बाद उतराई आरम्भ हो जाती है। इसके बाद माता वैष्णों देवी की सुन्दर गुफ़ा नज़र आने लगती है। हम लोग माता की जय घोष करते हुए सुबह के चार बजे मन्दिर में पहुंचे ।

यह स्थान वास्तव में एक पहाड़ी स्थान पर बना हुआ है। पहाड को काट कर ही माता का मन्दिर बनाया गया है। इस स्थान पर कुछ व्यापारी लोगों के होटल और दुकानें हैं तथा शेष धर्मशालाएँ है। पहाड़ी पर इस तीर्थ के होने के कारण यहां इधर उधर घूमने के अन्य स्थान नहीं है। चारों ओर पीछे पहाड़ ही पहाड़ नज़र आते हैं। स्नान के लिए माता के मन्दिर के पास ही चार पाँच नलों की व्यवस्था है। यहां पहंच कर हमने स्नान किया। मन्दिर में चढ़ाने के लिए प्रसाद लेकर पंक्तियों में खड़े हो गए। लाइन में लगभग दो घंटे खड़े रहने के बाद हमारी बारी आई । माता की गुफा में जाकर हमने तीनों पिण्डियों के दर्शन किए । इस गुफा में बहुत ठण्डा पानी बहता है। लोग झुक झुक कर इस मन्दिर की गुफा में जाते हैं। दर्शन करके दूसरे मार्ग से बाहर जाते हैं। दर्शन करके हम लोग वापिस धर्मशाला में आए और लगभग पाँच घंटे तक इस तीर्थ स्थल में ठहरने के बाद पुन: वापिस चल पड़े । कटरा में भी हमने विश्राम नहीं किया तथा सीधे बस पकड़ कर जम्मू आए । यहाँ से हमने यात्रा बस से ही की और फिर अपने शहर जालन्धर पहुँचे । माता के जयकारे लगाते हुए हम अपने अपने घरों की ओर चल दिए।

वास्तव में इस प्रकार की ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पर्वतीय यात्रा अनेक दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण हैं। एक तो इस यात्रा में सभी लोग, सभी भेद भाव भुलाकर साथ चलते हैं तथा निडर हो कर यात्रा करते हैं। दूसरे ओर यात्रा की दृष्टि से और भ्रमण करने की दृष्टि से इस यात्रा का अपना विशेष आनन्द और महत्व है। सचमुच पैदल चलकर यात्रा का आनन्द लेना कहीं अधिक सुखदायी होता है।

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commentscomments

  1. Samarth says:

    It is a good essay

  2. Urvi says:

    Not too long essays can you give more long essays?

    Can you give essay on bhrashtachar

  3. Narendra Damodardas Modi says:

    Bahoot khoob, kya likha hai

  4. YASHIKA JAIN says:

    Very interesting paraghargh and one one word was very nice 👍👍 super

  5. Mayuri kunghadkar says:

    Good 👍

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