Hindi Essay on “Paradhin Supnehu Sukh Nahi”, “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
Paradhin Supnehu Sukh Nahi
Best 5 Essays on “Paradhin Sapnehu Sukh Nahi”
निबंध नंबर :-01
प्रस्तावना : सामान्यतः मानव अपने जीवन में जो कुछ भी कार्य करता है, उसका एक मात्र उद्देश्य होता है कि वह अपने को सुखी कर सके। अपना विकास कर सके और जितना भी जीवन उसने जीना है उतना स्वाभाविक रूप में जी सके। लेकिन मानव का आदि काल से अब तक का इतिहास यह बताता है कि उसकी इच्छा के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। यद्यपि वह सभी बाधाओं को दूर करने की कोशिश करता है फिर भी परिस्थितियाँ उसे ऐसा जीवन जीने पर विवश कर देती हैं जो उसको अच्छा नहीं लगता। जब हम पराधीनता के विषय में बात करते हैं, तो एक तथ्य यह सामने रखना होता है कि पराधीनता की विवेचना कई दृष्टियों से हो सकती है।
पराधीनता का एक रूप है स्वतन्त्रता का न होना अर्थात् जो व्यक्ति किसी की इच्छा के अधीन होता है, उसे पराधीन कहा जाता है। यह स्वाभाविक है कि अपने अनुसार काम न करने पर व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए कहा जाता है कि पराधीन व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
पराधीनता का अभिशाप : पराधीनता का अभिशाप सबसे बड़ा अभिशाप है। यदि यह पूछा जाए कि इस विश्व में कौन ज्यादा सुखी है, तो एक उत्तर यही होगा कि जो स्वतन्त्र है या पराधीन नहीं है वह सुखी है। सुख यद्यपि बाहरी वस्तुओं पर निर्भर करता है। फिर भी उसकी वास्तविक सत्ता अन्तर में विद्यमान रहती है। हम जब पराधीन होते हैं, तो कुछ भी अपनी इच्छा से नहीं कर सकते और हमें प्रत्येक काम के लिए दूसरे की इच्छा पर निर्भर रहना पड़ता है। यह जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है।
पराधीनता का दूसरा रूप है गुलामी : प्राचीन काल में दास प्रथा थी। अमीर व्यक्ति गरीब दासों को खरीद लिया करते थे। उनके अधिकार समाप्त हो जाते थे। उनका खाना-पीना या अन्य काम मालिक पर निर्भर करता था। धीरे-धीरे यह दास प्रथा समाप्त हुई। इसकी समाप्ति का कारण था कि मानवों में स्वाधीनता की चेतना जाग गई थी और वे पराधीनता के दुर्गुण समझने लगे थे। उन्होंने इस विषय में आन्दोलन किए और अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये खुन की क्रान्तियाँ भी हुईं। इस विषय में प्राचीन राजसत्ता की चर्चा भी की जा सकती है। राजतंत्र में सामान्यत: शासक के विपरीत कुछ भी कहने की स्वतन्त्रता नहीं होती है। उसे भी एक प्रकार की पराधीनता ही समझना चाहिए।
व्यक्ति के सन्दर्भ में : वस्तुत: इस बात को व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के संदर्भ में देखा जा सकता है। जो व्यक्ति पराधीन होता है उसका विकास रुक जाता है, उसमें अपने आप स्वतन्त्रता से निर्णय लेने की शक्ति समाप्त हो जाती है। उसमें हीन भावना आ जाती है। इस तरह जो व्यक्ति पराधीन होता है, उसे जीवन के सुख मिलने दूभर हो जाते हैं। तुलसीदास जी ने इस बात को चाहे नारी के प्रसंग में कहा हो; पर यह उक्ति सभी पर चरितार्थ होती है। भारतीय समाज में जैसा कि पहले दासों के विषय में कहा गया है, स्त्रियों की दशा भी अच्छी नहीं रही। यद्यपि यह विवाद का विषय है कि प्राचीन काल में स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त शी या नहीं। दोनों ही बातों के पक्ष में प्रमाण मिल जाते हैं और यह भी सर्वविदित है कि नारी की दशा हमारे देश में बहुत अच्छी नहीं रही। सभी धर्म शास्त्रों में उसे हर दशा में पुरुष की छाया या अनुगामिनी बताया गया है। उसके सभी अधिकारों को पिता, पति और पुत्र के अधीन कर दिया गया। आधुनिक काल में साहित्यकारों में सभी कवियों व लेखकों ने नारी की इस दशा पर लिखा और उसकी स्वतन्त्रता की माँग की थी-कविवर पंत ने लिखा है :
मुक्त करो नारी को ।
चिर वन्दिनी सुकुमारी को ।।
और प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी में इस समस्या को उभारा है। उन्होंने ध्रुवस्वामिनी के मुख से कहलवाया है कि पराधीनता की भावना उसकी नस-नस में युगों से समा गई है। एक स्वतन्त्र राष्ट्र और अच्छे समाज का निर्माण करने के लिए नारी की स्वतन्त्रता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता आवश्यक होती है। हम देख रहे हैं कि जहाँ पर नारी स्वतन्त्र है वहाँ पर और चाहे कुछ दुर्गुण समाज में आ गये हों; पर समग्र राष्ट्र की उन्नति हुई है।
राष्ट्र के सन्दर्भ में : किसी भी राष्ट्र के सन्दर्भ में यह उक्ति अधिक विचार का विषय बन सकती है। जब कोई राष्ट्र पराधीन होता है, तो उसकी जनता सुखी नहीं रह सकती। पराधीन बनाने वाला राष्ट्र (देश) अपने लाभ की बातें करता है। भारत को ही लीजिये। अंग्रेजो की दासता के समय भारतीय जनमानस का विकास रुक गया। हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर दूसरे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव स्वीकार करना पड़ा। इससे यद्यपि कुछ लाभ भी अवश्य हुआ पर पराधीनता के लाभ से स्वाधीनता की हानि कहीं अधिक श्रेयस्कर मानी गई है। भारतवासियों ने पराधीनता की बेड़ी काटने का यत्न किया। पराधीनता के दिनों की दशा का मार्मिक वर्णन भारतेन्दु की रचना में हुआ है:
अंग्रेज राज सुख साज सबै अति भारी ।
पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी ।।
स्वतंत्रता का महत्त्व : भारत सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। यहाँ पर भी पराधीनता को काटने के लिये क्रान्तियाँ हुईं और स्वतन्त्रता का आन्दोलन छिड़ा। अनेक व्यक्तियों को अपना बलिदान करना पड़ा तब कहीं जाकर स्वाधीनता मिली। अत: यह स्पष्ट है कि स्वाधीनता ही विश्व का सबसे बड़ा सुख और जीवन की महत्ता है। यदि पराधीनता में सुख मिलता होता, तो मानव लड़-झगड़कर भी स्वाधीनता लेने की कोशिश न करता।
पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब किसी को सजा देनी होती है, तो कैद कर दिया जाता है। उसकी सामाजिक स्वतन्त्रता छीन ली लाती है और उसे अकेला कर दिया जाता है। सामाजिक और वैयक्तिक स्वतन्त्रता व्यक्ति के लिये सबसे बड़ा धन है। पराधीन व्यक्ति सदा दूसरे की इच्छा का अनुगमन करता है। इसी कारण विश्व में बड़े-बड़े उलट फेर हुए। कर्म, राजनीति और सम्प्रदाय किसी भी स्थिति की पराधीनता व्यक्ति को रुचती नहीं। अत: यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख नहीं मिलता और सुखी जीवन के लिये स्वतन्त्रता का होना अत्यावश्यक है।
निबंध नंबर :-02
पराधीन सपनेहुं सुख नाहिं
Paradhin Supnehu Sukh Nahi
पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुखी नहीं हो सकता। व्यक्ति मुक्त जन्म लेता है-मुक्त रहना उसका प्रकृति है, और प्रवृत्ति है। प्रकृति और प्रवृत्ति के विरुद्ध जाने में सुख होना संभव ही नहीं है। आधीनता से आत्महीनता की भावना आती है, जो आत्मविश्वास को ध्वस्त कर देती है। मन में गहरी निराशा और उदासी घर कर लेती है। ऐसी स्थिति में मन बनवास दिया सा’ महसूस करता है। जब हमारा देश परतंत्र था तब स्वामी रामतीर्थ ने अपनी विदेशयात्रा से लौटकर कटु सत्य उजागर किया था, उन्होंने कहा था-“मैं जहाँ-जहाँ गया, वहाँ परतंत्र होने का कलंक मेरे माथ परल सम्मान भी अर्थहीन हो गया।” स्वतंत्रता पाने के लिए अगणित भारतवासियों ने लाठियाँ खाई, जेलों में सड़े, हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गए। इतना त्याग, इतना बलिदान देने का जज्बा किसी छोटी-मोटी चीज पाने के लिए स्वतंत्रता तो इतनी अनमोल होती है कि उसके बदले में व्यक्ति अपने प्राण तक न्योछावर करने को तत्पर हो जाता है। आज भले ही हम स्वतंत्र राष्ट्र हैं किंतु आज भी पराधीनता की अनेकानेक बेड़ियों में हम जकड़े हैं। नारी आज भी पुरुष की गुलामी करने को अभिशप्त है। गाँवों में आज भी हरिजन सवर्णों के कुएँ से पानी तक नहीं ले सकते। आज भी बंधुआ-मजदूरी की प्रथा कायम है। आज भी नन्हा बचपन मज़दूरी करने को मजबूर है। अंधविश्वासों और रुढ़ियों की गुलामी से भी हम कहाँ मुक्त हो पाए हैं ? ऐसे में एक सुखी समाज और राष्ट्र की कल्पना कैसे की जा सकती है? व्यक्ति हो या समाज या फ़िर राष्ट्र, स्वतंत्रता हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है, सुख का आधार है। किसी ने सही कहा है-“स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में शासन करना अच्छा है।”
निबंध नंबर :-03
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
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संकेत–बिंदु–स्वतंत्रता का महत्त्व ।
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स्वतंत्रता एक मणि के समान।
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पराधीनता का अर्थ ।
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पराधीनता से शारीरिक व मानसिक पतन।
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पराधीनता जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप।
स्वतंत्रता का महत्त्व तो पशु-पक्षी भी जानते हैं। पिंजरे में बंद पक्षी तथा उन्मुक्त गगन में विचरण करने वाले पक्षी के जवीन में जमीन-आसमान का अंतर होता है। सोने के पिंजरे में बंद पक्षी सब सख-सुविधा होते हुए भी बाहर निकलने, आजाद होने के लिए छटपटाता रहता है। स्वतंत्रता एक ऐसी मणि है जिसे संसार का कोई भी प्राणी खोना नहीं चाहता। वास्तव में पराधीनता का अर्थ है ‘आत्मा का हनन’ । इसलिए गुलामी के स्वर्ग की अपेक्षा आजादी के नरक को श्रेष्ठ कहा जाता है। पराधीनता दुख है, विषाद है, अकर्मण्यता को जन्म देने वाली है। पराधीनता बौद्धिक विकास को अवरुद्ध कर देती है, व्यक्ति को शारीरिक व मानसिक पतन की ओर धकेलती है। पराधीन व्यक्ति एक ऐसे यंत्र की भाँति होता है जिसका संचालन दूसरे के हाथ में होता है। पराधीनता में रहकर व्यक्ति अपना अस्तित्व, स्वाभिमान, गौरव सब कुछ गँवा बैठता है। उसका जीवन करुण क्रंदन बनकर रह जाता है। पराधीनता चाहे व्यक्तिगत हो अथवा जाति या देश की, सभी स्तरों पर असह्य है। स्वतंत्र व्यक्ति जीवन में एक बार मरता है परंतु पराधीन व्यक्ति बार-बार मृत्यु को प्राप्त होगा। पराधीनता व्यक्ति, जाति, समाज एवं किसी भी राष्ट्र के जीवन के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। अतः यह कहना अनुचित न होगा—’पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं।’
निबंध नंबर :-04
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
संकेत बिंदु –स्वतंत्रता का महत्त्व –पराधीनता का कलंक –पराधीनता का स्वरूप
पराधीनता सबसे बड़ा अभिशाप है। पराधीनता व्यक्ति और देश की स्वतंत्रता को नष्ट कर देती है। स्वतंत्रता का बहुत महत्त्व है। पशु-पक्षी भी स्वतंत्र रहना चाहते हैं। उन्हें भी पराधीनता का जीवन स्वीकार नहीं है। पराधीनता तो एक प्रकार का कलंक है। इसमें व्यक्ति का पूर्णत: विकास नहीं हो पाता है। पराधीन व्यक्ति की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है। किसी के अंतर्गत रहकर जीवन बिताना ही पराधीनता है। पराधीनता की दशा में उसका सभी प्रकार से शोषण किया जाता है। पक्षी भी स्वच्छंद उड़ान में किसी भी बाधा को सहन नहीं करते। हमें पराधीनता को मिटाने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए। पराधीन व्यक्ति को कोई भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। उसे हर जगह अपमान झेलना पड़ता है।
निबंध नंबर :-05
परहित सरिस धर्म नहिं भाई
व्यक्ति समाज में रहकर ही अपना सही विकास कर पाता है इसलिए उसे सामाजिक प्राणी कहा जाता है, इस अवस्था में अन्य क्रान्तियों के प्रति उसे अनेक दायित्वों को वहन करना होता है। परस्पर प्रेम और सहयोग उसके जीवन को सुखद बना देता है। यदि हम प्रकृति की ओर देखें तो सम्पूर्ण प्रकृति को परोपकार में रत पाते हैं। एक कवि कहता है-
वृक्ष कबहु नाहिं फल चखै, नदी न संचै नीर ।
परमनाथ के कारणे, साधुन धरा शरीर ॥
कवि की इस सूक्ति से जब हमारा ध्यान प्रकृति की ओर जाता है तो हम यह देखकर चकित रह जाते हैं कि प्रकृति अपने लिए कुछ भी नहीं करती। सूर्य दिन भर संसार को प्रकाश और ताप देता है। चन्द्रमा रात भर शीतलता प्रदान कर वनस्पतियों का स्वामी (पतिरौण्धीनाम्) कहलाता है, पुष्प खिलकर सारे वन प्रान्तर को सुवासित और सुशोभित करते हैं, पृथ्वी प्राणियों को धारण ही नहीं करती, उनका पोषण भी करती हैं और फिर स्वर्ण रत्न आदि विविध बहुमूल्य द्रव्यों के रूप में अतुल सम्पदा भी प्रदान करती है। इस प्रकार प्रकृति में सर्वत्र परोपकार का बोलबाला है। उधर यह भी सत्य है कि प्रकृति भगवान का सबसे अकृत्रिम और सबसे सहज रूप है इसीलिए इसमें कोई भाव दिख पड़ता है! तो यह मानना चाहिए कि वह संसार के प्राणिमात्र के लिए भगवान् का आदेश है, सन्देश है। यही कारण है कि गोस्वामी जी अपने ‘मानस’ में मुक्त कण्ठ से घोषणा करते हैं-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(अर्थात् परोपकार जैसा धर्म और परपीड़न जैसा अधर्म नहीं!)
गोस्वामी जी ने मानस में अनेक स्थानों पर परोपकार को प्रधानता दी है। भगवती जानकी की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले गिधराज जटायु से भगवान श्रीराम कहते हैं कि तुमने आपने सत्यकर्म से ही सद्गति का अधिकार पाया है। इसमें मेरा कुछ श्रेय नहीं; क्योंकि जो परोपकारी हैं, उनके लिए संसार में कुछ दुर्लभ नहीं-
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहि ॥
परोपकार का इतना महत्त्व इसलिए है, क्योंकि इसी से मनुष्य की पहचान होती है। जो केवल अपने लिए जीता है वह पशु है, जो अपने साथ-साथ दूसरे के लिए जीता है, वही मनुष्य है और जो केवल दूसरों के लिए जीता है वह महामानव है, महात्मा है। इसलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं-
यही पशु-प्रकृति है कि आप ही आप चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ॥
साधारणतः मनुष्य अपने स्वार्थ की संकुचित परिधि में सिमटा रहता है। यह जब वह परोपकार की ओर उन्मुख होता है तो स्वार्थ की यह परिधि धीरे-धीरे फैलती जाती है। जितना अधिक वह फैलता है परमात्मा के निकट पहुँचता जाता है क्योंकि परमात्मा का प्रधान गुण सर्वव्यापकता है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में न केवल मानवहित, अपितु, सर्व-भूताहित, (प्राणीमात्र के हित) को मानव जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। धर्मप्राण हिन्दू पशु-पक्षी, कीट-पंतग अदि सभी को यथासामर्थ्य कुछ-न-कुछ खाद्यांश देने के बाद ही स्वयं भोजन करता है। चिड़ियों को चुग्गा, गौ-ग्रास आदि इसी का अंग है। यह है आत्मा का जीवन मात्र के लिए एक विस्तार। फिर जब हम तृण, लता, गुस आदि को जल-सिंचित करते हैं तो मानो अपनी आत्मा का चेतन जगत् से भी अधिक आगे जड़-जगत् तक विस्तार करते हैं। जितना-जितना मनुष्य फैलता जाता है, उतना उतना ही वह अधिकाधिक आन्दोपलब्धि करता इस प्रकार व्यापकता आनन्द की जननी है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म मनुष्य को अपने समस्त शुभ-कर्म जीवन मात्र के हित के लिए समर्पित करने की प्रेरणा देता है। सारे पूजा-पाठ के बाद वह तो यही कहता है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सनु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु या कश्चिद्र दुःख भागमवेत् ॥
(सब लोग सुखी हो निरोगी हो, कल्याणयुक्त हों। कोई दुःख का भागी न हो।) यही सर्वकल्याणमयी भावना सन्तों का प्रधान लक्षण है, क्योंकि वे मन-वचन, कर्म से परोपकार में रत रहते हैं-
पर उपकार वचन मन काया ।
सन्त सहज सुभाव खगराया ॥
सचमुच मानव देह का परम पुरुषार्थ परमात्मा की प्राप्ति है, जो बिना आत्म-विस्तार के सम्भव नहीं और आत्म-विस्तार बिना परोपकार के सम्भव नहीं, इसलिए परोपकार को ही मनुष्यता का प्रधान लक्षण माना गया है।
प्रेम का आधार भी परोपकार ही है, क्योंकि प्रेम में प्रेममात्र के सुख के लिए हर प्रकार का त्याग और कष्ट सहिष्णुता निहित है और दूसरों के लिए त्याग परोपकार का नामान्तर है। इसलिए जीवन मात्र से प्रेम करने वाले महानुभाव लोकहित के लिए सर्वत्याग को तत्पर रहते हैं, देश जाति या धर्म से प्रेम करने वाले देश, जाति या धर्म के लिए सब कुछ बलिदान करने को तैयार रहते हैं और किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम करने वाले उसके लिए अपने प्राण तक न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते हैं।
संसार के सभी देश-कालों में ऐसे परोपकारी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने दूसरो के लिए हर प्रकार के सुखों का त्याग कर घोर से घोर कष्ट सहे। महर्षि दधीचि ने राक्षसों के विनाश के लिए अपनी हड्डियां देवताओं को दी। राजा शनिदेव ने 48 दिन भूखे रहने के बाद 49 वें दिन मिले भोजन को भी याचकों को दे दिया। राजा शिवि ने कबूतरों की रक्षा के लिए बाज को अपने शरीर का मांस काट-काटकर दे दिया। गुरु गोविन्द सिंह ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपने बच्चों का ही नहीं स्वयं अपना भी बलिदान कर दिया। राजकुमार सिद्धार्थ ने संसार को दुःख से छुड़ाने के लिए राजसी सुख भोग त्याग दिया। ईसा लोकहित के लिए शूली पर चढ़े।
आधुनिक युग में वीर सवारकर, सुभाषचन्द्र बोस चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह महात्मा गांधी आदि अनगिनत देशभक्तों ने देश के लिए कठोर यातनाएं सही और अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए।
परोपकार मानव-समाज का आधार है। हर व्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में दूसरों से सहायता लेनी पड़ती है, क्योंकि समाज के सहयोग के बिना वह जीवित नहीं रह सकता। इस प्रकार परोपकार द्वारा हम दूसरों का ही हितसाधन नहीं करते अप्रत्यक्ष रूप से अपना भी करते हैं।
कविवर रहीम के शब्दों में भी यही भाव व्यक्त हुआ है-
रहिमन यों सुख होत है उपकारी के संग।
बंटवारे को लगे ज्यों मेंहदी को रंग ॥
इसके अतिरिक्त इससे आत्मा का जो विस्तार होता है और उससे जो आनन्द की उपसन्धि होती हैं, उसकी तुलना में यथार्थ बहुत ही तुच्छ और तिरस्करणीय लगता है, सचमुच परोपकार मानवता का श्रृंगार है, उसकी प्रमुख पहचान है।
मरा नहीं वही जो जिया न आप के लिए।
वही मनुष्य है कि जो मरे मनुष्य के लिए।