Hindi Essay on “Paradhin Sapnehu Sukh Nahi” , ”पराधीन सपनेहु सुख नाहीं” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं
Paradhin Sapnehu Sukh Nahi
वैसे तो सुख का सम्बन्ध व्यक्ति की भावना और मन के साथ माना जाता है, पर सत्य यह भी है कि एक स्वतंत्र-स्वाधीन भावना से भरा मन ही वास्तविक सुख का अनुभव कर सकता है, पराधीन और परतंत्र व्यक्ति कदापि नहीं। ऐसा क्यों होता है, इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण गिनाए जा सकते हैं?
पराधीन आदमी पहले तो कुछ सोचने-करने का अवसर ही नहीं पाता; यदि पाता नाह तो पराधीन बनाने वाले की इच्छा और तेवर के अनुसार। यानि जो वह सोचता, करने को कहता है, पराधीन वह सब कर सकता: बल्कि करने को बाध्य हुआ करता है। इच्छा और सोच के अनुसार कुछ करने की चेष्टा करने पर उसे बड़ी बेशरमी से किया जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे उस की इच्छाएँ, भावनाएँ, सोच-विचार का र या समाप्त हो जाती हैं। उस अवस्था में किसी सुख की प्राप्ति या अनुभूति का नहीं उठता । इस के विपरीत स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा-भावना के अनुसार सोच-विचार कर वह सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र रहा करता है कि जो करने से उसे सुख प्राप्त हो सकता है। सन् 1947 से पहले और बाद के भारत के निवासियों की स्थिति की तुलना कर के इस अन्तर को सरलता के साथ समझा जा सकता है।
सन 1947 से पहले भारतवासी अंग्रेजों के अधीन थे। इस कारण अपना कोई संविधान कोई योजना. कोई नियम-कानन नहीं था। अंग्रेजों द्वारा बनाए ग कायदे-कानून मानकर चलना पड़ता था। न मानने या विरोध करने पर लाठियाँ-गोलियाँ खानी, जेलें भरनी और फाँसी तक पर झलना पड़ता था। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनकी इच्छा के बिना स्वतंत्रतापूर्वक पत्ता तक नहीं हिल सकता था। तरह-तरह के कष्ट सह, संघर्ष, त्याग और बलिदान देकर जब 15 अगस्त, सन् 1947 के दिन हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली; तब एक स्वतंत्र-स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपनी इच्छा, अपने सुख-दुःख के हम स्वयं स्वामी बन गए। अपना संविधान बना, अपनी योजनाएँ बनीं और आज हम कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए हैं। किसी से छिपा नहीं। हमें पराधीन बनाने वाले लगातार पिछडते जा रहे हैं और हमारा स्वतंत्र-स्वाधीन देश संसार की एक महाशक्ति बन कर उभर रहा है.
आज के भारत का स्वरूप स्वतंत्रता-स्वाधीनता की ही देन है। वह जानता है कि पराधीनता के कष्ट झेलते हुए कितनी कठिनाइयाँ सहकर हम ने स्वाधीनता का सुख प्राप्त किया है। अतः आपसी मेल-मिलाप रख, निरन्तर परिश्रम और प्रगति कर इसे बनाए तो रखना है, बढ़ाना भी है ताकि आलस्य, फूट और निकम्मेपन के कारण हमें फिर कभी पराधीन होकर सुख को सपना न बनाना-समझना पड़े।