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Hindi Essay on “Pani kera Budbuda as Manush ki Jaat” , ”पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जात

Pani kera Budbuda as Manush ki Jaat

संसार की प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि उन वस्तुओं को बनाने और उपयोग करने वाला सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य भी हमेशा रहने वाला नहीं। देखने में जो कुछ भी सुन्दर और स्थायी लगता है, मन को आकर्षित करता है, अच्छे-बुरे कर्म करके उसे पा लेने की मन को प्रेरणा दिया करता है; वह सब भी नाशवान है। अतः उनके चक्कर में पड़ कर, भटक कर दुर्लभ मनुष्य जीवन को नष्ट नहीं करना चाहिए। संसार के प्रत्येक कोने में जन्म लेने वाले ज्ञानी पुरुषों, सन्त जनों ने यही बात अपने-अपने ढंग से बार-बार कही है। सन्त कबीर दास ने भी इसी तथ्य को उजागर करने के लिए कहा है:

‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।

देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।

अर्थात् जैसे पानी में बुलबुले बनते हैं, देखने में बड़े ही सुन्दर और आकर्षक लगते उन्हें समेट कर रख लेने को किया करता है, लेकिन इस से पहले कि व्यक्ति तरफ हाथ बढ़ाए; वे फूट कर बिखरते और पानी ही बन जाते हैं। ठीक उसी प्रकार यनिक तत्त्वों से बना हुआ यह शरीर भी बिखर कर वापिस उन्हीं में-पृथ्वी. जल अनि और आकाश में समाकर उन्हीं का रूप हो जाया करता है। अतः शरीर को बदार एवं सब कुछ मान कर इसके पालन और रक्षा के लिए दुष्कर्मों में प्रवत्त नहीं सा चाहिए। उचित मानवीय कर्मों का निर्वाह करते हुए, ज्ञान-साधना और प्रेम-भक्ति द्वारा सब प्रकार के सांसारिक बन्धनों से छुटकारे का प्रयत्न करना चाहिए।

ऊपर दिए गए दोहे की दूसरी पंक्ति का भाव भी इसी प्रकार का ही है। तारों से भरा प्रभात कितना सुन्दर; कितना आकर्षक लगा करता है; पर रहता कितनी देर है, कुछ ही देर न। उसी प्रकार संसार के चमकीले और सुन्दर-आकर्षक पदार्थ भी हमेशा नहीं रहा करते, अतः उनमें मन लगाना व्यर्थ है। इस प्रकार कवि ने भौतिकता से ऊपर उठे रहने की, संसार को मात्र एक पड़ाव मान कर इसमें मन रमाकर कष्ट न पाने की सरस-सरल चेतावनी दी है। आदमी को अपने उद्धार का उपाय करने के लिए उकसाया है। मनुष्य जीवन और संसार के सत्य से परिचित कराया है।

जीवन पानी का बुलबुला और संसार के तारों से भरे प्रभात की तरह अस्थिर अवश्य है; पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ऐसा जान और मानकर आदमी हाथ-पर-हाथ वर कर, वैरागी बन कर बैठ रहे। इस का सीधा अर्थ यह है कि मनुष्य के करने योग्य सभी उचित कर्म करते हुए व्यक्ति को आत्मोद्धार का प्रयत्न भी करते रहना चाहिए। इससे व्यक्ति को बात-बात के लिए दुःखी न होना पड़ेगा। वह सहज जीवन जीते हुए अन्त में मुक्ति का अधिकारी भी हो जाएगा-बस।

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