Hindi Essay on “Jeevan mein Sahitya ka Mahatva”, “जीवन में साहित्य का महत्त्व” Complete Essay, Paragraph, Speech for Class 7, 8, 9, 10, 12 Students.
जीवन में साहित्य का महत्त्व
Jeevan mein Sahitya ka Mahatva
मानव जीवन में साहित्य का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। साहित्य के अभाव में व्यक्ति के व्यक्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। संस्कृत की उक्ति के अनुसार-
साहित्य, संगीत कला विहीन, साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीनः ।
अर्थात साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति, बिना सींग और पूँछ के पशु समान है। साहित्य जीवन का पर्याय है तथा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
साहित्य शब्द की शाब्दिक परिभाषा इस प्रकार है-हितेन सहितं इति साहित्यम्’ अर्थात् जिसमें सब के हित की भावना भरी हुई हो वही साहित्य है। साधारण तौर पर मनुष्य केवल अपने ही हित की बात सोचता है परन्तु साहित्य का हितचिन्तन विश्वकल्याण की भावना पर आधारित होता है। इसलिए जिस ग्रन्थ में समाज के सभी वर्ग के लोगों, यहां तक कि सभी जीव-जन्तुओं तथा प्रकृति के हित का चिन्तन होता है, वही साहित्य है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य कहा है।
आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जी के अनुसार प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्रवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है।
एक अंग्रेज़ी आलोचक का कथन है-Literature is the brain of humanity. अर्थात् साहित्य मानव-समाज का मस्तिष्क है।
साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है। साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब होता है। इसलिए साहित्य को समाज का प्रतिबम्ब या दर्पण कहा जाता है। साहित्यकार समाज का प्राण होता है। वह तत्कालीन समाज की रीति-नीति, धर्म-कर्म और व्यवहार वातावरण से ही अपनी साहित्यिक रचना के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है तथा लोक भावना का प्रतिनिधित्व करता है। समाज की जैसी भावनाएँ होंगी साहित्य भी वैसा ही होगा । यदि समाज में धार्मिक भावना अधिक होगी तो साहित्यकार उस भावना से अछूता नहीं रह सकता । इसके विपरीत यदि समाज में विलासिता का बोल बाला होगा तो उस समय का साहित्य भी श्रृंगार की भावना को लिए हुए होगा और यदि समाज के लोगों में अपने देश को स्वतन्त्र कराने की भावना होती है, नई चेतना पैदा होती है तो उस समय के साहित्य में ये सभी बाते हमें देखने को मिलेंगी । भिन्न-भिन्न देशों में जितनी भी क्रान्तियां हुई हैं वे सब वहां के सफल साहित्यकारों की ही तो देन हैं। प्लैटो और अरस्तु के नए नए सिद्धान्तों ने राज्य के अधिकारों के स्वरूप को ही बदल दिया । जयपुर के राजा जयसिंह जिसके स्वभाव को उसके मन्त्री नहीं बदल सके.परन्तु महाकवि बिहारी के एक दोहे ने उसकी सारी जीवन पद्धति को ही बदल डाला ।
कहने का भाव यह है कि हमारे पूर्वजों के काम आज भी हमें अपने प्राचीन साहित्य द्वारा प्राप्त होते हैं तथा हमारे जीवन के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। आदि कवि वाल्मीकि जी की वाणी हमारे हृदय को आज भी पवित्र करती है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ आज भी भारतीय समाज के लिए एक आदर्श जीवन, एक आदर्श समाज का स्वरूप अपने अन्तःकरण में समेटे हुए है। वह देश उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध होगा जितना अधिक उन्नत आद समृद्धिशाली उसका साहित्य होगा।
समाज के वातावरण की नींव पर ही साहित्य का महल खड़ा होता है। जिस समाज की जैसी परिस्थितियां होंगी वैसा ही उसका साहित्य होगा । आचार्य महावीर प्रसाद का कथन नितान्त सत्य है-“साहित्य समाज का दर्पण है”। यदि हम हिन्दी साहित्य के इतिहास पर एक दृष्टि डालें तो हमें पता चलेगा कि समय और समाज के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य में भी परिवर्तन अवश्य होता है। हिन्दी साहित्य का आदि काल युद्धों का काल था। मुसलमानों ने देश पर आक्रमण शुरू कर दिए थे। इसलिए उस काल में वीर रस प्रधान काव्य लिखे गए जिस कारण इस काल को कुछ विद्वानों ने वीरगाथा काल नाम की संज्ञा दे दी।
विदेशियों का भारत पर अधिकार हो चुका था। देश में इतने अत्याचार बढ़ गए थे कि चारों ओर से त्राहि माम् त्राहि माम् की ध्वनि सुनाई देती थी। बेसहारा जनता को अनेक प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ा। विपदाप्रस्त अब किसकी शाखा में जाए ? भगवान् के सिवा बेसहारों का सहारा कौन हो सकता था ? इसलिए भक्ति काल का उदय हुआ और कवियों ने भक्ति काव्य की उत्कृष्ट रचनाएं लिखीं।
समय ने एक बार पलटा खाया । तब शुरु हुआ मुगलों का शासन मुस्लिम शासक विलासिता और ऐश्वर्य की मूर्ति थे। उन्हें सुरा,सुदरी और सुरा के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं था। अतः रीतिकाल का जन्म और जन्म हुआ श्रृंगार पूरक रचनाओं का जिसमें नायिका भेद से लेकर नायिकाओं के नख शिव वर्णन प्राप्त होते हैं। मुगलों का पतन होते ही भारत में विदेशी अंग्रेज़ी राजका बाल बाला हुआ। भारत का पश्चिम के साथ सम्पर्क हुआ। उसके आर व्यवहार में अन्तर आने लगा। भारतीय साहित्यकारों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीयों को प्रेरित किया। प्राचीन परम्पराओं एवं रुढ़ियों का विरोध होने लगा।
अनेक प्रकार के आन्दोलनों ने जन जीवन को प्रेरित किया। परिणामस्वरूप साहित्य में देश प्रेम की भावना और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के विरोध में उस समय के साहित्य में क्रान्ति के तथा देश को स्वतन्त्र करवाने के स्वर गूंज उठे ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि साहित्य और समाज का घनिष्ठ एवं अटूट सम्बन्ध है। साहित्य समाज को निर्माण के पथ पर अग्रसर करता है क्योंकि समाज के विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और उसके साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है। इसलिए साहित्य और समाज को पृथक्-पृथक नहीं किया जा सकता।