Hindi Essay on “Hani Labh, Jeevan Maran Vidhi Hath” , ”हानि-लाभ, जीवन-मरण विधि हाथ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
हानि-लाभ, जीवन-मरण विधि हाथ
Hani Labh, Jeevan Maran Vidhi Hath
इस वैज्ञानिक युग का मानव हृदय प्रधान नहीं अपितु बुद्धि प्रधान है। वह प्रत्येक कार्य को अपने बुद्धि कौशल के द्वारा पूर्ण करना चाहता है। आज वह चन्द्रलोक में सुख-वैभव के उपभोग के स्वप्न देख रहा है। आज वह प्रत्येक कार्य को अपने अधीन मानता है। इस काव्योक्ति के अनुसार किसी भी कर्म को करने के पश्चात् उस कार्य के हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश ईश्वराधीन है ही; किन्तु फिर भी बहुत कुछ मानव के स्वयं के हाथ में है। उसे अपनी ओर से अपने कर्तव्य पालन में कोई कसर न रखनी चाहिए यथाशाक्ति भरसक प्रयास करना चाहिए। यदि करने के पश्चात् भी लाभ के स्थान पर हानि हो, यश के स्थान पर अपयश मिले तथा जीवन में आनन्द के बजाय वह दुःख का कारण बन जाय, तो उसे ईश्वरेच्छा का परिणाम मात्र ही समझना चाहिए।
मानव जीवन में उसे कब लाभ होगा और कब हानि होगी इसे वह नहीं जान सकता है। व्यक्ति कितने दिन जियेगा? कब उसकी मृत्यु होगी, यह कोई नहीं जान सकता है? कब उसे समाज से सम्मान या असम्मान मिलेगा? यह सब कुछ विधि (विधाता या भाग्य) के हाथ की बात है, इसे कोई जान नहीं सकता है। जो जिस व्यक्ति के भाग्य में लिखा है उसे अवश्यमेव भोगना पड़ता है; क्योंकि भाग्य का निर्माण कर्मों से होता है और मानव को अच्छे या बुरे कर्मों का अच्छा अथवा बुरा फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है। विधि के विधान में क्या राजा क्या रंक सभी बराबर हैं। समय आने पर सभी किंकर्तव्य विमूढ हो जाते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि सभी साधन उपलब्ध होते हुए भी वे कुछ नहीं, अपितु विधाता के हाथ की कठपुतली मात्र हैं।
सामान्य जन अपने लाभ एवं यश प्राप्ति के लिए ही कार्य करते हैं, फिर भी उन्हें लाभ पर हानि और यश के स्थान पर अपयश क्यों प्राप्त होता है ? एक कृषक परिश्रम करता है, पसीने से लथपथ हो जाता है, परन्तु ओले पड़ने या वर्षा की कमी या अतिवृष्टि से फसल नष्ट हो जाती है। एक व्यक्ति लाभ के लिए व्यापार करता है किन्तु उस मन उसे हानि उठानी पड़ती है। क्या ये बातें यह प्रकट करती है कि हानि-लाभ आदि ईश्वराधीन है, इन सब बातों से यही प्रकट होता है। किन्तु इस का अभिप्रायः यह की है कि व्यक्ति अपनी विवेक बुद्धि के बिना सद्-असद्, हानि-लाभ, करणीय-अकरणीय विचार किए बिना कैसे भी कार्य करना प्रारम्भ कर दें । यदि कोई विद्यार्थी यह समझकर कि असफलता या सफलता ईश्वराधीन है; पुस्तकें न पढ़े और सोचे कि पास होना होगा, तो हो ही जायेंगे और यदि ईश्वर फेल करना चाहेंगे, तो फेल होंगे। इस बुद्धि से तो निश्चय रूप से असफलता के रूप में हानि प्राप्त होगी; क्योंकि यह बात तो ‘छलनी में दुहे कर्म को टोवे’ की उक्ति को सार्थक करती है।
जीवन-मरण भी विधाता की ही मुटठी में है। कोई नहीं जानता है कि न जाने कब किसको काल जाल में जकड़ सकता है। अमरौती की बूटी पाने वाले भी तो ईश्वर के प्रहार से बच नहीं सके । इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिरण्यकश्यपु जैसे अमरत्व के वरदानी भी नृसिंह भगवान् के हाथों से अकाल ही मारे गए। कितनों की मृत्यु महान् कष्टों के साथ होती है और कितने चलते-फिरते, खाते-पीते सुख की चिर निद्रा में लीन हो जाते हैं। किसी की वज्रपात होने पर भी मृत्यु नहीं होती और इन्दुमती (दशरथ की माँ) की मृत्यु नारद के पुष्प से ही हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि मृत्यु का कुछ पता नहीं, कब किसको आ जाय ? मानव का तेज, उसकी शक्ति, उसकी प्रखर बुद्धि सब कुछ नियति के सम्मख फीका है। उसके आगे मानव की कुछ नहीं चल पाती।
यश-अपयश भी विधाता की ही देन है। वह अपनी इच्छानुसार ही किसी को यश पर किसी को अपयश देता है। इन्द्र देव ने अनेक बार अपना सिंहासन खोकर अपयश तकिया, गौतम पत्नी अहल्या के प्रेम पाश में भी वह अपयश के भागी बने। फिर भी आज देवराज इन्द्र ही कहलाते हैं। जहाँ यह यश की गाथा देखी, वहीं अब अपयश के क्षेत्र में विधाता की करनी देखिये। विधाता की करनी देखिए। चारों वेदों एवं शास्त्रों का ज्ञाता रावण संसार में परा का भागी बना। करोड़ों गायों का दान कर पुण्य करने वाला राजा नृग का योनि में जन्म लेकर अपयश का भागी बना। अतः स्पष्ट है कि यश-अपयश विधि हाथ में ही है।
कुछ व्यक्ति इस काव्योक्ति का अर्थ पर्ण भाग्यवाद से लगा देते है किन्तु वह भूल जाते हैं कि हमारे कार्यों के आधार पर ही हमारा भाग निर्धारित होता है। बिना कर्म के हानि-लाभ किसी का भी मानव अधिकारी नहीं है। वह अपने कर्मानुसार ही फल प्राप्त करता है।