Hindi Essay on “Ganga – Pradushan Ki Samasya” , ”गंगा-प्रदुषण की समस्या” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
गंगा-प्रदुषण की समस्या
Ganga – Pradushan Ki Samasya
पुण्य-सलिला गंगा के जल को सर्वपापहारी, सर्वरोगहारी अमृत-तुल्य माना गया है। यही कारण है कि हिन्दुओं के अनेक तीर्थ हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि गंगा के तट पर स्थित हैं। आर्थिक दृष्टि से गंगा के उपकारों का भारत सदैव ऋणी रहेगा। अनगिनत कल-कारखाने गंगा-तट पर स्थापित किए गए हैं तथा उत्तर प्रदेश, बिहार एवं बंगाल का विशाल क्षेत्र गंगा-जल से सिंचित उर्वर कृषि-क्षेत्र. बना हुआ है। तथापि राष्ट्र का दुर्भाग्य है कि ज्यों-ज्यों जनसंख्या बढ़ती जा रही है त्यों-त्यों गंगा का जल विभिन्न रूपों मंे अधिकाधिक प्रदुषित होता जा रहा है।
हिमालय के अंक में अवस्थित गंगोत्री से जन्मी हिमालय पर होने वाली वर्षा की विभिन्न जल-धाराओं से गंगा ने नदी का स्वरूप धारण किया। उस क्षेत्र में गंगा निश्चय ही पुण्य सलिला है और उसकी गति में प्रखरता है। किन्तु मैदानी क्षेत्र में उतरते ही उसके प्रदुषण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण गंगा-तट पर घनी आबादी के शहर और गांव विकसित हो गए हैं। उन बस्तियों का सारा कूड़ा-करकट तथा उनसे निकलता हुआ गंदे नाले-नालियों का जल गंगा में दिन-रात समाता रहता है। गंगा तट पर बसे हुए छोटे-बड़े शहरों की संख्या लगभग 920 है। कहा जाता है कि परम पावनी काशी नगरी से ही प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ लीटर दूषित जल गंगा मंे प्रवाहित होता है। बनारस से ही लगभग 9000 शव प्रतिवर्ष गंगा के किनारे जलाए या बहाए जाते हैं। अधजले मुर्दे बहा देना तो आम बात है। इसी तरह अन्य क्षेत्रों से भी गंदा जल तथा कूड़ा-कचरा गंगा में बहता रहता है।
कानपुर के निकट से जब गंगा गुजरती है तब कल-कारखानों से भी गंगा-जल प्रदुषित होता है। कानपुर महानगर के चर्म शोधन संयंत्रों से बहुत घातक रासायनिक अवशेष गंगा में बहाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त कपड़ा-मिलों और सैकड़ों प्रकार के अन्य उद्योगों के द्वारा गंगा प्रदूषित होती रहती है। जूट, रसायन, धातु, नगरीय मल, चिकित्सकीय यंत्र, चमड़ा उद्योग, कपड़ा मिल आदि विभिन्न स्त्रोतों से गंगा का अमृत निरन्तर जहर बन रहा है। गंगा-तट पर स्थित उत्तर प्रदेश की औद्योगिक इकाइयों में से अधिकांश कानपुर में स्थित हैं। बिहार से होकर बंगाल की दिशा मंे बढ़ती हुई गंगा को इसी तरह प्रदूषण की भेंट स्वीकार करनी पड़ती है। बंगाल में यह हुगली कहलाती है। हुगली के दोनो तटों पर कोलकाता और उसके निकटवर्ती क्षेत्र मंे उद्योगों की बहुत सी इकाइयां कार्यरत हैं और उन सबसे रासायनिक प्रदूषण दिन-रात हुगली में खपता रहता है। महानगर से करोड़ों लीटर दूषित जन प्रति वर्ष हुगली में बहतर और घुलता रहता है। अनुमान है कि शहरी क्षेत्र से प्रतिवर्ष 4 लाख किलोग्राम वज्र्य पदार्थ नदी में बहाया जाता है। हालत यह है कि प्रदूषित गंगा अमृत के स्थान पर विष बांट रही है। हालांकि हिमालय की गोद में पवित्र गंगा की धारा की प्रत्येक बूंद आज भी, अभी भी अमृत-तुल्य है लेकिन मैदानी क्षेत्र का गंगा-जल प्रदूषण के कारण अपना संजीवनी गुण खो चुका है।
सच पूछा जाए तो औद्योगिक विस्तारवाद की दानवी गिरफ्त से हमारे जल स्त्रोत बच नहीं पा हैं। यह गिरफ्त प्रतिवर्ष लाखों लोगों की मौत, विकलांगता, अस्वस्थता और रूग्णता का कारण बन रही है। प्रदूषित गंगा जल न केवल प्रत्यक्ष उपयोग के कारण, बल्कि खाद्य-शल्य के माध्यम से, मछलियों तथा अन्य जलीय प्राणियों के द्वारा, गगांजल का प्रयोग करने वाले दुधारू पशुओं के द्वारा भी हमें विभिन्न प्रकार के रोगों का शिकार बनना पड़ता है। जल में घुलनशील पदार्थों में अतिरिक्त अघुलनशील पदार्थ भी प्रवेश करते हैं, जिनके कारण नदी की गहराई कम होती जा रही है, अतः छिछली नदी नौकायन के योग्य भी नहीं रह गई है। इससे हमारे व्यापार-वाणिज्य को भी क्षति पहुंचती है। यह भी देखा जा रहा है कि नदी के विषाक्त जल के कारण जलीय प्राणियों की संख्या कम होती जा रही है। कानपुर के निकट शहर का किनारा छोड़कर गंगा की धारा कई फर्लांग दूर हटकर बह रही है। जिसका दुष्परिणाम शहरवासी भोग रहे हैं। धारा को पूर्ववत शहर के निकट लाने के सारे प्रयास विफल हुए हैं। इसका एकमात्र कारण अघुलनशील द्रव्यों के जमा होने पर नदी के तलपट का अत्यधिक उथला हो जाना है।
औद्योगिकरण की अनियोजित व्यवस्था गंगा-जल के प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण है। औद्योगिक विकास के लिए सरकारी प्रयत्नों तथा नीतियों का अधकचरापन, उनके अधूरे निष्कर्ष तथा नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार प्रदूषण की जटिल समस्या है जिस पर काबू पाना भारत जैसे विकासशील देश के लिए असंभव नही ंतो कठिन जरूर है। यह भी द्रष्टत्व है कि पर्यावरणविदों द्वारा दिए गए सुझावों को सरकारी अधिकारी अपेक्षित महत्व नहीं देते हैं। पतित पावनी गंगा का 600 कि.मी. का जल-क्षेत्र विशेष रूप से विषाक्त हो चुका है। ’गंगा एक्शन प्जान’ का भी वही हाल हुआ जो प्रायः ऐसी सरकारी परियोजनाओं का होता है। गंगा के निकटवर्ती 29 शहरों को इसके लिए चुन भी लिया गया। यह योजना बनाई गई कि इन शहरों से बहकर गंगा में गिरते हुए गन्दे जल के नालों को गंगा मंे न मिलने दिया जाए, बल्कि नदी की धारा के समानान्तर नए नाले खोल कर सारा गन्दा जल उनसे होकर बड़े-बड़े कुओं में इकटठा किया जाए, जहां से पाइपों के जरिये उस जल को जल साफ करने वाले संयंत्रों को भेजा जाए। इस उद्देश्य से सभी योजनाएं पक्की तरह बनकर तैयार हो चुकी थीं। लेकिन योजनाएं अब भी कागज पर तो हैं, व्यवहार में शिथिलता आ गई है।
गंगा प्रदूषण का सबसे कारण अगर कोई है तो वह हमारे कल-कारखाने और सरकार की गंगा के प्रति उपेक्षा की भावना। भारतीय लोकतंत्र में राजनीति से सम्बद्ध लोग 99 फीसदी तुष्टीकरण की नीति पर भरोसा करते हैं, इसीलिए यह कहा जाना काफी कठिन है कि गंगा को प्रदूषण से मुक्त कर पाने में सरकार कहां तक सफल हो सकेगी।
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