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Hindi Essay on “Doordarshan , दूरदर्शन (चैनल)” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

निबंध नंबर : 01 

दूरदर्शन (चैनल)

Doordarshan Channel 

दूरदर्शन भारत का सरकारी दूरदर्शन प्रणाल(चैनल) है। यह भारत सरकार द्वारा नामित पर्षद् प्रसार भारती के अंतर्गत चलाया जाता है। दूरदर्शन के प्रसारण की शुरूआत भारत में दिल्ली सितंबर, 1959 को हुई। प्रसार-कक्ष तथा प्रेषित्रो की आधारभूत सेवाओं के लिहाज़ से यह विश्व का दूसरा सबसे विशाल प्रसारक है। हाल ही मे इसने अंकीय पार्थिव प्रेषित्रो(डिजिटल स्थलचर संचारी (Digital Terrestrial Transmitters)) सेवा शुरु की। दूरदर्शन के राष्‍ट्रीय नेटवर्क में 64 दूरदर्शन केन्‍द्र / निर्माण केन्‍द्र, 24 क्षेत्रीय समाचार एकक, 126 दूरदर्शन रखरखाव केन्द्र, 202 उच्‍च शक्ति ट्रांसमीटर, 828 लो पावर ट्रांसमीटर, 351 अल्‍पशक्ति ट्रांसमीटर, 18 ट्रांसपोंडर, 30 चैनल तथा डीटीएच सेवा भी शामिल है।

प्रारंभ

दूरदर्शन की शुरुआत अत्यंत विनीत तरीके से, एक परीक्षण के तौर पर दिल्ली में 1959 में हुई थी। नियमित दैनिक प्रसारण की शुरुआत 1965 में आल इंडिया रेडियों के एक अंग के रूप में हुई थी। 1972 में सेवा मुम्बई (तत्कालीन बंबई) व अमृतसर तक विस्तारित की गई। 1975 तक यह सुविधा 7 शहरों मे शुरु हो गयी थी। राष्ट्रीय प्रसारण 1982, जिस वर्ष रंगीन दूरदर्शन का जन-जन से परिचय हुआ था, शुरु हुआ था।

दूरदर्शन के विभिन्न चैनल

राष्‍ट्रीय चैनल (5): डीडी 1, डीडी न्‍यूज़, डीडी भारती, डीडी स्‍पोर्ट्स और डीडी उर्दू
क्षेत्रीय भाषाओं के उपग्रह चैनल (11): डीडी उत्तर पूर्व, डीडी बंगाली, डीडी गुजराती, डीडी कन्‍नड़, डीडी कश्‍मीर, डीडी मलयालम, डीडी सहयाद्रि, डीडी उडिया, डीडी पंजाबी, डीडी पोधीगई और डीडी सप्‍‍तगिरी
क्षेत्रीय राज्‍य नेटवर्क (11): बिहार, झारखण्‍ड, छत्तीसगढ़, मध्‍य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्‍ड, हिमाचल प्रदेश, राजस्‍थान, मिजोरम और त्रिपुरा
अंतरराष्‍ट्रीय चैनल (1): डीडी इंडिया
डीडी डायरेक्‍ट + : दूरदर्शन की फ्री टु एयर डीटीएच सेवा डीडी डायरेक्‍ट + का शुभारंभ प्रधानमंत्री द्वारा 16 दिसंबर, 2004 को किया गया। 33 टीवी चैनलों (दूरदर्शन / निजी) और 12 रेडियो (आकाशवाणी) चैनलों से शुरूआत हुई। इसकी सेवा क्षमता बढ़कर ५५ टीवी चैनल और 2१ रेडियो चैनल हो गई। अंडमान और निकोबार को छोड़कर इसके सिगनल पूरे भारत में एक रिसीवर प्रणाली से मिलते हैं। इस सेवा के ग्राहकों की संख्‍या १०० लाख से अधिक है।[
क्षेत्रीय चैनल- डीडी मलयालम, डीडी सप्‍‍तगिरी (तेलुगु), डीडी बंगाली, डीडी चंदन (कन्‍नड़), डीडी उडिया, डीडी सहयाद्रि (मराठी), डीडी गुजराती, डीडी कश्‍मीर (कश्‍मीरी), डीडी पंजाबी, डीडी उत्तर पूर्व, डीडी पोधीगई (तमिल),

दिन व दिन लोगों की अभिरूचि दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रमों के प्रति कम होती जा रही है। यह चैनल पूर्णत राजनीतिक हो गया है, जिससे आम जनता के विचारों और मनोरंजन की अनदेखी की जाती है। अच्छे कार्यक्रमों का अभाव तथा गुणवत्ता की कमी से इस चैनल पर दर्शकों का टोटा लगा रहता है। अतः सरकार द्वारा चैनल की महत्ता को पुनः स्थापित करने हेतु दीर्घगामी उपाय ढूंढ़ना चाहिए।

 

निबंध नंबर : 02 

 

दूरदर्शन : शिक्षा का मनोरंजक माध्यम

Doordarshan Shiksha ka manoranjak madhyam 

प्रयोजन-सापेक्षता के इस आधुनिक युग में सभी कुछ परस्पर संबंद्ध और सापेक्ष है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने मानव-जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए जो ढेर सारे अविष्कार किए हैं, उनमें से दूरदर्शन आज सर्वाधिक लोकप्रिय सर्वसुलभ अविष्कार है। इसके घर-घ्ज्ञक्र तक पहुंच जाने के कारण अब रेडियो और सिनेमा का महत्व काफी कुछ घट गया है। दृश्य-श्रव्य घरेलु माध्यम एंव उपकरण होने के कारण इसने बिना किसी शोर-शराबे के रेडियो और सिनेमा के कलात्मक मनोरंजन तो ग्रहण कर लिया है। यह हमें विभिन्न स्तर और प्रकार के कलात्मक मनोरंजन तो प्रदान करता ही है, शिक्षांए देकर जीवन को अधिकाधिक उपयोगी और समर्थ बनाने में भी सहायक है और हो सकता है। तभी तो आज इसे शिक्षा का मनोरंजक माध्यम और साधन कहा जाने लगा है। परंतु क्या वास्तव में ऐसा हो पा रहा है? आज का यह एक ज्वलंत प्रश्न उत्तर चाहता है।

दूरदर्शन पर कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण संबंंधी प्रयोग चल भी रहे हैं। जैसे कि हम सभी जानते हैं कि आज दूरदर्शन पर विभिन्न कक्षाओं के लिए समयवार विभिन्न विषयों के पाठ सुयोज्य अध्यापकों द्वारा प्रसारित किए-कराए जाते हैं। संबंधित छात्र अपने-अपने घरों स्कूलों में सामूहिक रूप से बैठकर उन कक्षा-विषयक पाठों को न केवल ध्यान से सुनकर, बल्कि प्रत्यक्ष घटित होते देखकर ग्रहण करते हैं। निश्चय ही इस प्रकार किसी विष्ज्ञय का पाठ सही रूप में समझ तो आ ही जाता है, दिल-दिमाग में बैठकर पूर्णतया याद भी हो जाता है। उसे घोटने या माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार दूरदर्शन के माध्यम से दूर-दराज के उन स्थानों पर भी लोगों को कक्षावार शिक्षा दी जा सकती है, जहां अभी तक स्कूल-कॉलेज नहीं खाले जा सके। स्कूल-कॉलेज खोलने के लिए स्थान और साधनों का अभाव है। ऐसे स्थानों पर कोई एक-आध ऐसा स्थान या समुदाय भवन आदि तो बनाया ही जा सकता है कि जहां निश्चित समय पर बैठकर इच्दुक लोग शिक्षा प्राप्त कर सकें। सेटेलाइट के द्वारा शिक्षा का जो कार्यक्रम चलाया गया था, उसके लिए ऐसे ही स्थानों की व्यवस्था भी की गई थी, जो शायद निहित स्वार्थी और अदूरदर्शी संचालक वर्ग के कारण अधिक चल नहीं पाई।

यह तो हुई दूरदर्शन के माध्यम से स्कूली या किताबी शिक्षा की बात जो उतनी मनोरंजक नहीं हुआ करती। इसका मुख्य प्रयोजन भी साक्षरता के प्रचार द्वारा लोगों को जागरुक बनाने तक सीमित रहा करता है। या फिर स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाए जा रहे विषयों की पुनरावृति करना-कराना ही हुआ करता है। इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे क्षेत्र और विषय हैं, जन-जागरण के लिए जिनको शिक्षा दी जानी बहुत आवश्यक और उपयोगी है। उसके लिए किताबी या स्कूलों जैसी शिक्षा की जरूरत नहीं, बल्कि कल्पनाशील मनोरंजक कार्यक्रमों की ही आवश्यकता हुआ करती है। खेती-बाड़ी, रोग-उपचार, रोजगार के साधन ओर सहूलतें आदि के बारे में अब भी विशेषज्ञों को बुलाकर इन सबका या इन जेसे अन्यान्य विषयों का दूरदर्शन पर प्रत्यक्ष्श और व्यावहारिक ज्ञान कराया ही जाता है। हमारे समाज में जो अनेेक प्रकार की कुरीतियां हैं, अंधविश्वास, हीनतांए और कुनीतियां हैं, अन्याय और अत्याचार हैं, शोषण और दबाव हैं-उन सबके बारे में भी मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा सकते हैं।इससे मनोरंजन और शिक्षा-दोनों काम एक साथ संपादित किए जा सकते हैं। एक सीमा तक अब इस प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित किए भी जाते हैं, पर उनमें सहज कल्पनाशीलता का अभाव खटकने वाली सीमा तक रहा करता है।

सांप्रदायिकता, प्रांतीयता, दहेज-प्रथा, जाति-प्रथा, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि कई प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक-नैतिक, राजनीतिक आदि विषय हैं, जिनके कुप्रभावों से समाज का और उसके माध्यम से सारे देश और राष्ट्र को बचाना, वास्तविकता का ज्ञान करना आवश्यक है। इसके लिए जानकार, योज्य, कल्पनाशील और कलात्मक रुचियों वाले लोगों का सहयोग प्राप्त कर अच्छे संतुलित, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम बनाकर प्रदर्शित-प्रसारित किए जा सकते हैं। निश्चय ही भाषण या किताबी बातों का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि प्रत्यक्ष देख ओर कानों से सुनकर। दूरदर्शन से अच्छा इसके लिए अन्य कौन-सा माध्यम या साधन हो सकता है? नेताओं के चित्र दिखाने के स्थान पर यदि इस प्रकार रंजक कार्यक्रम दिखाए जांए, तो कितना अच्छा हो।

अभी तक हमारे देश का दूरदर्शन जन-शिक्षण तो क्या पूरी तरह से जनरंजन के कार्य में भी सफल नहीं हो सकता है। समाचार-पत्रों और आपसी बातचीत में उसके कार्यक्रमों को शुष्क, नीरस और कल्पना-विहीन कहकर तीखी एंव खरी आलोचना अक्सर की जाती है। मनोरंजन के नाम पर वहां फिल्में और चित्रहार ही विशेष प्रचलित-प्रशंसित हैं। कभी-कभार कोई शिक्षाप्रद और मनोरंजक नाटक भी आ जाता है। शिक्षा के नाम पर या तो कक्षाओं में पाठयक्रम प्रसारित किए जाते हैं या कुछ विशेषज्ञ बुलाकर उनसे बातचीत कर ली जाती है, जो अक्सर समायाभाव के कारण अधूरी ही रह जाया करती है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि कल्पनाशीलता के काम लेकर दूरदर्शन को वास्तविक स्तर पर शिक्षा का मनोरंजक साधन और माध्यम बनाया जाए। ऐसा तभी संभव हो पाएगा, जब लाल फीताशाही से छुटकारा पाकर यह माध्यम कल्पनाशील और दूरदर्शी हाथों द्वारा संचालित होने लगेगा। अन्यथा चलने को तो सब चलता ही है और अब भी ज्यों-त्यों करके चल ही रहा है।

 

निबंध नंबर : 03 

 

दूरदर्शन के लाभ-हानि

Doordarshan ke Labh-Hani

या 

दूरदर्शन :आवश्यकता-उपयोग

Doordarshan : Avayashakta – Upyog

दूरदर्शन यानी टेलिविजन एक दृश्य-श्रव्य उपकरणों के मिश्रण से बना घरेलू उपकरण है। घरेलू इसलिए कि झोपड़ी से लेकर राजभवन तक सभी जगह आज मुक्त रूप से इसका व्यापक उपययोग हो रहा है। लोग दूरदर्शन को मनोरंजन का एक सबसे सस्ता साधन और घरेलू सिनेमा तक भी कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि यह मनोरंजन का सबसे सस्ता, बल्कि आजीवन मुफ्त में प्राप्त होने वाला साधन है। पर क्या इसके निर्माण एंव उपयोग का प्रयोजन मात्र मनोरंजन की सामग्री प्रस्तुत करना ही है? निश्चय ही एक विचारणीय प्रश्न है।

जब हम उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर खोजने लगते हैं, तो कई प्रकार के लाभ-हानि मूलक तथ्य हमारे सामने स्वत: ही उभरकर आने लगते हैं। दूरदर्शन निस्संदेह आज मात्र ऐय्याशी का उपकरण न होकर जीवन की एक अपरिहार्य-सी आवश्यकता बन चुका है। अत: इसक ाउपयोग मनोरंजन के लि एतो किया ही जा सकता या जा रहा है, भारत जैसे विकासोन्मुख देश में जन-शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए भी किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि जन-शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्य भी समान्य स्तर पर, सामान्य रूप से भारतीय दूरदर्शन पर अवश्य किए जा रहे हैं। पर क्या उनका स्वरूप, समय और संख्या आदि वास्तव में उपयोगी एंव पर्याप्त हैं? ऊतर ‘नहीं’ ही हो सकता है। हम एक उदाहरण से इस ‘नहीं’ की वास्तविकता स्पष्ट करना चाहेंगे। सबसे पहले कृषि-दर्शन जैसे देहाती कार्यक्रम को ही लीजिए। इसके लिए प्राय: नित्य ही विशेषज्ञ बुाए जाते हैं। अच्छी बात है। वे लोग कृषि एंव कृषकोपयोगी आवश्यक, अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं। पर होता यह है कि उनकी बातें पूरी नहीं हो पातीं कि कोई दूसरा कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया जाता है। प्राय: यह व्यवधान उन सभी कार्यक्रमों में पड़ते देखा-सुना जा सकता है कि जिनका प्रसारण जन-शिक्षण एंव ज्ञान-वद्र्धक के लिए किया जाता है। दर्शक एंव श्रोता तल्लीनता से ऐसे कार्यक्रम देश-सुन रहा होता है कि उन्हें तोडक़र अक्सर फिल्मी का कोई कार्यक्रम प्रसारि किया जाने लगता है। कितना दुखद पहलू है यह हमारे दूरदर्शन महोदय का? इसे हम नियोजकों, अधिकारियों की अदूरदर्शिता, कल्पना-शून्यता और इस सबसे बढक़र अयोज्यता ही कह सकते हैं?

अब दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले तथाकथित मनोरंजक कार्यक्रमों की बात लीजिए। मनोरंजन के नाम पर वेन-केन प्रकारेण मात्र सिनेमा एंव सिनमाई अंदाज ही दूरदर्शन पर छाया हुआ है। वह भी हा प्रकार से घटिया, स्तरहीन, अश्लील, नज्न एंव जीवन की वास्तविकताओं से कोसों दूर रहने वाला। उसमें भारतीय सभ्यता-संस्कृति, भाषा सभी की खुली भद्द उड़ रही होती है। उलटे आज के मनोरंजक कार्यक्रम, मनोरंजन के नाम पर अपसंस्कृति का प्रचार घर-घर में पहुंचा रहे हैं। सपने और कल्पनांए बेच रहे हैं। वहां मारधाड़, शराबखोरी, भ्रष्टाचार और उसके तरीके खुले रूप से दिखाए एंव बताए जा रहे हैं। एक इस प्रकार के हीरोइज्म का प्रचार किया जा रहा है जो नाम मात्र को भी वास्तविक या व्यावहारिक न तो हुआ करता एंव न हो ही सकता है? उस सबका प्रभाव हमारे किशोर एंव युवा वर्ग पर कैसा पड़ रहा है, समाचार-पत्रों में अक्सर पढऩे को मिलता रहता है। इससे प्रभावित एक किशोर ने छत से कूदकर जान दे दी। नशाखोरी तो हजारों ने सीखी और सीख रहे हैं। छुरेबाजी और चोरी-चकारी सीखने वालों को भी कभी नहीं। इस प्रकार दूरदर्शनी मनोरंजन छक कर हिंसा एंव भोंडेपन का प्रचार-प्रसार कर रहा है।

फिल्मों के अतिरिक्त दूरदर्शन पर अनेक धारावाहिक भी दिखाए जाते हैं। खेद के साथ स्वीकारना पड़ता है कि उनका स्तर भी बहुत गिरा चुका है। आरंभ में दिखाए गए धारावाहिक अवश्य हमारी सामाजिकता का अनेक प्रकार से सही चित्रण करते रहे पर आज? आज वे भी फिल्मों की तरह या तो कपोल-कल्पित और सफे बेचने वाले होते हैं, या फिर उच्च वर्गों की गंदगी एंव अंडरवल्र्ड की कारगुजारियों का चित्रण कर हिंसा एंवा चारित्रिक भ्रष्टता का प्रसार करन ेवाले ही होते हैं। संस्कृति में अपमिश्रण करने का बहुत बड़े कारण और साधन बन रहे हैं या दूरदर्शनी धारावाहिक एंव इस प्रकार के कार्यक्रम। जिसे सहज मानवीय सहदयता, सुरूची संपन्नता, आनंदोत्साह का स्वाभाविक उद्रक कहा जाता या कहा जा सकता है। उस सबका अभाव खटकने वाली सीमा से भी कहीं आगे तक विद्यमान है।

भारत जैसे विकास की राह पर अग्रसर देश का दूरदर्शन वास्तव मं प्रगति एंव विकास को यथातथ्य उजागर करने वाला होना चाहिए। वह बेकारी, महंगाई, अराजकता के विरुद्ध शंखनाद कर सकने की शिक्षा एंव शक्ति प्रदान करने वाला होना चाहिए। वह बेकारी, महंगाई, अराजकता के विरुद्ध शंखनाद कर सकने की शिक्षा एंव शक्ति प्रदान करने वाला होना चाहिए। उसका साक्षरता का प्रचारक-प्रसारक बनाया जाना जरूरी है। वह जन-मन में न ई चेतना, स्वावलंबन और स्वाभिमान को जागृत कर सके, ऐसे कार्यक्रम उस पर प्रसारित-प्रदर्शित करना आवश्यक है। दूरदर्शन ऐसा सशक्त माध्यम है कि उसके द्वारा हर प्रकार से अपनी सभ्यता-संस्कृति एंव अपनेपन को बढ़ावा दिया जा सकता है। भारतीयता का तूर्यनाद विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा पाना संभव है। पर नहीं, हमारा दूरदर्शन, ऐसा कुछ भी न कर मात्र सपनों की सौदागरी कर रहा है। अपनी सभ्यता-संस्कृति तो क्या अपने भाषा-भूषा और देश को बेच खाना चाहता है?

आज राष्ट्रभाषा को सर्वाधिक प्रदूषित करने वाला, उसक ेसाथ भद्दा मजाक करने वाला सबसे सशक्त माध्यम दूरदर्शन ही प्रमाणित हो रहा है। भाषा को इसने एक अपच-अपथ्य खिचड़ी बनाकर रख दिया है। ऐसे स्वप्रिल और लुभावने कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहा है। यह दूरदर्शन कि छोटे बच्चे तक इसी से चिपके रहना चाहते हैं। उससे इनके स्वास्थ्य, शिक्षा एंव दृष्टि का सर्वनाश होता है, तो उस पर जो एक ही प्रोडक्ट के कई-कई विज्ञापन लुभावने ढंग से दिखाए जाते हैं, उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, सोचने की बात है। क्या वास्तव में वे देश का सही दिशा में निर्माण करना चाहते हैं पर फिर भावी पीढिय़ों तक को खोखला बनाकर रख देना चाहते हैं?

इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय दूरदर्शन अपने वास्तविक उद्देश्य से कतई भ्रष्ट हो चुका है। आम जन के साथ, वास्तविक निर्माण के साथ उसका दूर का भी नाता नहीं रह गया। वह मात्र ऐसी दूधारू गाय है सरकार एंव उसके कर्ता-धर्ताओं के लिए कि जिससे दूध पाने की चिंता तो उन्हें है, पर उसके स्तनों से लिपटकर रस चूस रही जोंकों को हटाने की तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया।

 

निबंध नंबर : 04

 

दूरदर्शन की उपयोगिता

Doordarshan ki Upyogita

 

आज घर-घर में टेलीविजन हैं। टेलीविजन एक प्रभावशाली प्रचार माध्यम बन चुका है। इस पर दिन-रात कोई न कोई कार्यक्रम आजा ही रहता है। फिल्म, चित्रहार, रामायण, महाभारत और अनेक धारावाहिक तो बूढ़ों से लेकर बच्चों तक सबकी जुबान पर रहते हैं। सारे काम धंधे को छोडक़र लोग इन कार्यक्रमों को देखने के लिए टी.वी. सेट के करीब खिंचे चले आते हैं।

रेडियो-प्रसारण में वक्ता अथवा गायक की आवाज रेडियोधर्मी तरंगों द्वारा श्रोता तक पहुंचती है। इस कार्यक्रम ट्रंासमीटर की मुख्य भूमिका होती है। रेडियो तरंगे एक सेकंड में 3 लाख किलोमीटर की गति से दौड़ती हैं। दूरदर्शन में जिस व्यक्ति अथवा वस्तु का चित्र भेजना होता है, उससे परावर्तित प्रकाश की किरणों को बिजली की तरंगों में बदला जाता है, फिर उस चित्र को हजारों बिंदुओं में बांट दिया जाता है। एक-एक बिंदु के प्रकाश को एक सिरे से क्रमश: बिजली की तरंगों में बदला जाता है। इस प्रकार टेलीविजन का एंटेना इन तरंगों को पकड़ता है।

विद्युत तरंगों से सेट में एक बड़ी ट्यूब के भीतर ‘इलेक्ट्रॉन’ नामक विद्युत कणों की धारा तैयार की जाती है। ट्यूब की भीतरी दीवार में एक मसाला लगा होता है। इस मसाले के कारण चमकर पैदा होती है। सफेद भाग पर ‘इलेक्ट्रॉन’ का प्रभाव ज्यादा होता है और काले भाग पर कम।

टेलीविजन समुद्र के अंदर खोज करने में बड़ा सहायक सिद्ध होता है। चांद के धरातल का चित्र देने में भी यह सफल रहा। आज बाजार में रंगीन, श्वेत-श्याम, बड़े मझले तथा छोटे हर तरह के टेलीविजन सेट उपलब्ध हैं।

सन 1925 में टेलीविजन का अविष्कार हुआ था। ग्रेट ब्रिटेन के एक वैज्ञानिक जॉन एल-बेयर्ड ने टेलिविजन का अविष्कार किया था।

हमारे देश में टेलीविजन द्वारा प्रयोग के तौर पर 15 सितंबर 1951 को नई दिल्ली के आकाशवाणी केंद्र से इसका प्रथम प्रसारण किया गया था। प्रथम सामान्य प्रसारण नई दिल् ी से 15 अगस्त, 1965 को किया गया था। और हां, एक समय ऐसा आया, जब आकाशवाणी और दूरदर्शन एक-दूसरे से अलग हो गए। इस तरह से 1976 को दोनों माध्यम एक-दूसरे से स्वतंत्र हो गए।

टेलीविजन के राष्ट्रीय कार्यक्रमों का प्रसारण ‘इनसेट-1 ए’ के माध्यम से 15 अगस्त 1982 से प्रारंभ हो गया था। उसके बाद आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र में इसके प्रसारण केंद्र खोले गए। इस तरह टेलीविजन के विविध कार्यक्रमों का प्रसारण होने लगा।

भारत में टेलीविजन तेजी से चचित होता जा रहा है। सन 1951 में टी.वी. ट्रांसमीटर की संख्या मात्र 1 थी। यह ट्रांसमीटर दिल्ली में स्थापित किया गया था। इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते सन 1973 में 42 तक पहुंच गई। वर्ष 1984 में यह संख्या 126 थी। कम शक्ति के ट्रांसमीटरों की स्थापना के साथ ही देश में टी.वी. ट्रंासमीटरों की संख्या 166 हो गई।

5 सितंबर 1987 तक देश के पास 201 ट्रंासमीटर थे। इनके बारह पूर्ण विकसित केंद्र, आठ रिले ट्रांसपमीटर वाले छह इनसेट केंद्र और 183 लो पॉवर ट्रांसमीटर थे।

टेलीविजन आज अपने लगभग 300 ट्रंासमीटरों के साथ देश के 47 प्रतिशत क्षेत्र में फेली 70 प्रतिशत आबादी की सेवा करता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि दूरदर्शन के माध्यम से हम घर बैइे दुनिया की सैर कर लेते हैं। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, फिल्मोत्सव, ओलंपिक और क्रिकेट मैचों के सजीव प्रसारण देखकर मन झूम उठता है। समय-समय पर कई विशेष कार्यक्रमों का प्रसारण तो देखते ही बनता है।

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