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Hindi Essay on “Chaye ki Aatma Katha”, “चाय की आत्म-कथा” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

चाय की आत्म-कथा

Chaye ki Aatma Katha

प्रस्तावना : मैं चाय हूँ। आधुनिक पेय पदार्थों में सर्वोत्तम समझी जाती हैं। हर समाज में मेरा सम्मान हैं। आज की सभ्यता की मैं अमर देन हूँ। मैं सर्वत्र व्यापिनी हूँ। मेरे प्रेम में भेदभाव के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं है। मैं सभी को समान स्फूर्ति प्रदान करती हूँ। जीवन में शक्ति और स्फूर्ति संचारित करने के लिए मैं संजीवनी का काम करती हैं। बड़े-बड़े होटलों और भवनों से लेकर छोटी-छोटी झोंपड़ियों तक मेरी पहुँच है.। जाड़ों के दिनों में गरीब मजदूरों को सम्बल हूँ। सवेरे से लेकर सायंकाल तक चारों ओर मेरी धूम रहती है। स्वागत समारोहों में सबके आदर की पात्र बन जाती हैं।

जन्म स्थान : मेरा जन्म चीन में हुआ ; मगर प्रसार का श्रेय इंग्लैंड को जाता है। आज से कई शताब्दियों पूर्व तक यूरोपवासियों को मेरा नाम तक ज्ञात नहीं था। तब मुझे पूरा दुलार अपने चीनियों से मिला था। सबसे पहले चीन के दूत ने ही मुझे उपहारस्वरूप महारानी एलिजाबेथ को दिया था। उन्होंने मेरी पत्तियों को उबालकर पानी को फेंक दिया और उनमें चीनी को मिला कर रोटी के साथ खाया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इंग्लैंडवासियों को मेरा कितना ज्ञान था।

पश्चिम के देशों में : चीन में मैं जापान गई और फिर वहाँ से यूरोप के देशों की यात्रा आरम्भ हुई। वहाँ मैं बहुत महँगी बिकी। उस समय मेरा मूल्य सौ रुपये पौण्ड तक लगा था। फिर भी इंग्लैंडवासियों ने मेरे गुणों को सराहा और मुझे पूरा सम्मान दिया। मेरी माँग को बढ़ता हुआ देख कर ईस्ट इंडिया कम्पनी मेरा व्यापार करने लग गई। वह जावा और चीन से चाय मँगवा कर इंग्लैंड में बेचने लग गई। उसने मेरे व्यापार में बहुत पैसा बनाया। मेरे देश से खटपट हो जाने के कारण सन् 1834 ई० में उसने मुझे ईस्ट इंडिया कम्पनी को देने से इंकार कर दिया। तब कम्पनी का ध्यान मेरी खेती की ओर गया और मेरी खेती भारत में होने लग गई।

भारत में पौधे : सबसे पहले मेरे कुछ पौधे कलकत्ता में लगाए गए। इसके बाद मेरी खेती हिमालय के कुमाऊँ क्षेत्र और असम के सादिया प्रदेश में होने लगी। कुछ ही दिनों में मैं भारत में लहलहा उठी तथा असम, दार्जिलिंग और लंका में हँस-हँस कर होने लग गई।

मेरी माँग विश्वभर में बढ़ती चली गई। मेरे पौधे चार प्रकार के होते हैं। जिनकी ऊँचाई दस फुट से लेकर पचास फुट तक होती है। मेरी पत्तियों की चौड़ाई ढाई इंच से लेकर चौदह इंच तक होती है। ये चारों प्रकार के पौधे विभिन्न देशों में होते हैं। धरती में मेरा बीज ही बोया जाता है। मेरे बीजों के लिए सरल मिट्टी और नम वायु की आवश्यकता होती है। मेरे फूल देखने में सुन्दर और सफेद रंग के होते हैं। जब मेरे पौधे तीन वर्ष के हो जाते हैं तब पत्तियाँ चुनी जाती हैं।

पत्तियाँ : मेरी पत्तियों को चुनने में विशेष सावधानी बरती जाती है। पत्तियाँ चुनने के लिए लड़के-लड़कियों को लगाया जाता है। इसके लिए पहले प्रशिक्षण दिया जाता है। इनकी पीठ पर एक विशेष प्रकार की टोकरी झूलती रहती है। ये पत्तियाँ चुन-चुनकर अपनी टोकरी में डालते जाते हैं। जब टोकरियाँ भर जाती हैं, तो इन्हें कारखाने में भेज दिया जाता है। वहाँ पर पहले पत्तियों को सुखाया जाता है फिर रोलर की सहायता से उनका चूर्ण किया जाता है। तत्पश्चात् कई वैज्ञानिक यंत्रों तथा क्रियाओं की मदद से मेरा निर्माण किया जाता है। सुगंधित बनाने के लिए मुझ में सुगन्धित द्रव पदार्थ मिलाए जाते हैं। अंत में तैयार होने पर मैं छोटे-बड़े डिब्बों तथा पेटियों में भर कर देश-विदेश में भेजी जाती हूँ।

उपसंहार : आज की दुनिया में मेरा अधिक प्रसार है। सष्टि के सम्पूर्ण पदार्थों के समान मैं भी गुण-दोषों से युक्त हुँ। मेरा सबसे बड़ा गुण यह है कि पेय पदार्थ के रूप में आसानी से मिल जाती हैं। इसलिए मैं अतिथियों के स्वागत के लिए सदैव तैयार रहती हैं। गुणों के साथ-साथ मेरे अंदर दोष भी हैं। मेरे अन्दर कुछ ऐसे उत्तेजक तत्त्व होते हैं, जो रक्त में प्रवेश करके उसके स्वाभाविक गुणों को नष्ट कर देते हैं। मेरे अधिक प्रयोग से मंदाग्नि का रोग हो जाता है। अतः मेरा प्रयोग सीमा में रह कर ही किया जाना चाहिए ।

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