Hindi Essay on “Bhagya aur Purusharth ” , ”भाग्य और पुरूषार्थ” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
भाग्य और पुरूषार्थ
Bhagya aur Purusharth
Best 4 Essay on ” Bhagya aur Purusharth”
निबंध नंबर: 01
आधुनिक युग प्रतिस्पर्धा का युग है। विज्ञान अथवा तकनीकी क्षेत्र में मनुष्य की अभूतपूर्व सफलताओं ने उसकी इच्छाओं व आकांक्षाओं को पंख प्रदान कर दिए हैं। परंतु बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जिन्हें जीवन में वांछित वस्तुएँ प्राप्त होती हैं अथवा अपने जीवन से संतुष्ट होते हैं। हममें से प्रायः अधिकंाश लोग जिन्हें मनवांछित वस्तुएँं प्राप्त नहीं होती हैं, वे स्वंय की कमियों को देखने के स्थान पर अपने भागय को दोष देकर मुक्त हो जाते हैं।
वास्तविक रूप में भाग्य भी उन्हीं का साथ देता हैं जो स्वंय पर विश्वास करते हैं। वे जो अपने पुरूषार्थ के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति पर आस्था रखते हैं, वही व्यक्ति जीवन में सफलता के मार्ग पर अग्रसित होते हैं। भाग्य और पुरूषार्थं एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूषार्थी अथवा कर्मवीर व्यक्ति जीवन में आने वाली बाधाओं व समस्याओं को सहजता से स्वीकार करते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे विचलित नहीं होते हैं अपितु साहसपूर्वक उन कठिनाइयों का सामना करते हैं। जीवन संघर्ष में वे निरंतर विजय की और अग्रसित होते हैं और सफलता की ऊँचाइयों तक पहुचते हैं।
दो बार नहीं यमराज कंठअ धरता हैं,
मरता है जो, एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे,
जीना है तो मरने से नहीं डरो रे।
वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाग्यवादी होते हैं । ये व्यक्ति थोड़ी-सी सफलता अथवा खुशी मिलने पर अत्यंत खुश हो जाते हैं परंतु दूसरी ओर कठिनाइयों से बहुत ही शीघ्र विचलित हो जाते हैं। उनमें निराशा घर कर जाती है,फलतः सफलता सदैव उनसे दूर रहती है। इन परिस्थितियों में वे स्वयं की कमियों को खोजने तथा उनका हल ढूंँढ़ने के स्थान पर अपने भाग्य को दोष देते हैं।
इतिहास में ऐसे अनगिनत मनुष्यों की गाथाएँ हैं जिन्होंने अपने पुरूषार्थ के बल पर असाध्य को साध्य कर दिखाया है। महाबली पितामह भीष्म ने महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण को भी शस्त्र उठाने पर विवश कर दिया । महात्मा गाँधी ने अपने सत्य और अहिंसा के बल पर देश को सैंकडो़ं वर्षों से चली आ रही अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाइ । लिंकन ने अपने पुरूषार्थ के बल पर ही युद्ध पर विजय पाई । ये सभी चमत्कार मनुष्य के पुरूषार्थ का ही परिणाम थे जिन्होंने अपने साहसिक कृत्यों से इतिहास के पन्नों पर अपना नाम स्वर्णक्षरों में अंकित कराया।
यदि हम विश्व के अग्रणी देशों का इतिहास जानने की कोशिश करें तो हम देखते हैं कि यहाँ के नागरिक अधिक स्वासवलंबी हैं। वे भाग्य पर नहीं बल्कि पुरूषार्थं पर विश्वास रखते हैं । जापान भौगोलिक दृष्टी से बहुत ही छोटा देश हैं परंतु विकास की राह पर जिस तीव्रता से यह अग्रसर हुआ है वह अन्य विेकासशील देशों के लिए अनुकरणीय है।
अतः यदि हमें अपने देश, परिवार अथवा समाज को दन्नत बनाना है तो यह आवश्यक है कि देश के नवयुवक भाग्य पर नहीं अपितु अपने पुरूषार्थं पर विश्वास करें एवं स्वावलंबी बनें। दूसरों पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति को त्यागें। उनका दृढ़ निश्चय उन्हें कठिनाइयो को दूर करने हेतु बल प्रदान करेगा। गीता में श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है-
श् कर्मण्यंवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः। श्
कर्म का मार्ग पुरूषार्थ का मार्ग है। धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहना ही पुरूषार्थ को दर्शाता है। पुरूषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता हैं। वह स्वयं को ही नहीं अपितु अपने परिवार, समाज तथा देश को गौरवान्वित करता है। पर कभी-कभी अपने भाग्य को स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इस स्थिति में हमें संतोष और धैर्य का अनायास ही साथ मिल जाता है जो जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है।
निबंध नंबर:-02
भाग्य और पुरूषार्थ
Bhagya aur purusharth
प्रस्तावना- संसार में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं-एक वे हैं जो पुरूषार्थ करते हैं तथा कठिन-से-कठिन काम को बड़ी सरलता से करते हैं। उनका विश्वास होता है कि वही होगा जो भाग्य में लिखा होगा।
पुरूषार्थी और अनुस्वार्थी में अन्तर-पुरूषार्थी अर्थात् कर्मवीर इस बात को मानते है कि मैं प्रत्येक कार्य में सफलता अर्जित करूगां अन्यथा अपना शरीर त्याग दूंगा। इसके विपरीत कर्मभीरू-आलसी मनुष्य कार्य करने से डरते हैं।
ऐसे व्यक्ति अपनी बात के समर्थन में सन्त मलूकदास की निम्नलिखित पंक्तियों को अपनाते हैं-
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम।।
उपरोक्त पंक्ति सन्तों के लिए तो ठीक है परन्तु गृहस्थ व्यक्ति के लिए नहीं। आलस्य मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। आलसी व्यक्ति परिवार, समाज और देश सबके लिए कलंक होता है।
जो मनुष्य भाग्य पर भरोसा करते हैं तथा अपने पुरूषार्थ पर विश्वास नहीं करते, वे ही अपनी दुर्गति के लिए भाग्य को दोषी बताते हैं। जो मनुष्य शेर होते हैं वे अपने बल प्रक्रम में विश्वास रखते हैं। उनके लिए भाग्य जैसे शब्दों का कोई महत्व नहीं होता।
भाग्यवाद ही सब कुछ नहीं- भाग्यवादी आलसी मनुष्यों का मत है कि पश्रिम और भाग्य में कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। उनके अनुसार, भाग्य के सामने पुरूषार्थ तुच्छ या निरर्थक है। वे मानते हैं कि भगवान देगा तो छप्पर फाड़कर देगा। उनके अनुसार परिश्रम करना पुरूषार्थ बेकार है।
परन्तु आधुनिक युग में पुरूषार्थ को भाग्य से अधिक शक्तिशाली माना गया है। यह बात सच है कि जो भाग्य में होगा वह तो होकर ही रहेगा। उसे कोई नहीं रोक सकता।
उपसंहार- मनुष्य को हमेशा परिश्रम करते रहना चाहिये। आलस्य द्वारा मनुष्य कायर बन जाता है। वह झूठ बोलने तथा चोरी करने लगता है। उसे उत्थान के स्थान पर पतनत्र उन्नति के स्थान पर अवनति प्राप्त होती है।
अतः आलस्य को त्यागकर ही मनुष्य अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। लक्ष्मी उद्योगी पुरूष सिंह के पास ही निवास करती है।
आधुनिक युग में मानव ने जो उन्नति प्राप्त की है, चाँद आदि ग्रहों तक की जो यात्रा की है वह उसके पुरूषार्थ का तथा उसके परिश्रम का ही फल है।
निबंध नंबर : 03
पुरुषार्थ एवम् भाग्य
Purusharth evm Bhagya
मानव जीवन का मूल उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है किसी को धन जोड़ने में मिलता है, किसी को शक्ति में मन लगाकर, किसी को शूरवीरता का प्रदर्शन करके, किसी को परहित कार्यों में सुख मिलता है। कोई भी आनन्द प्राप्त करना हो इसके लिए कर्म अवश्य करना पड़ता है। गीता में भी कहा गया है-कर्म बिना फल की प्राप्ति नहीं होती। भाग्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है फिर भी भाग्य का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कभी-कभी कठोर परिश्रम करने पर भी फल-प्राप्ति नहीं होती जैसे कठिन परिश्रम करने पर भी अच्छे अंक नहीं मिलते । तब यही कह कर सन्तोष करते है कि शायद भाग्य में इतने ही अंक थे ।
भाग्यवाद में विश्वास करने वाले कहते हैं कि सुख-दुःख, यश-अपयश, हानि-लाभ, जीवन-मरण सब भाग्य के हाथ में है। भर्तृहरि लिखते हैं कि मनुष्य के मस्तक में विधाता ने जितना भी धन लिखा है वह चाहे पर्वत की चोटी पर चला जाए, चाहे गहरे जंगल, में, चाहे कुबेर के भवन में रहे उसे उससे अधिक धन नहीं मिल सकता। यही स्थिति भाग्य की है। भगवान कृष्ण ने गीता में लिखा है, भाग्य ही मनुष्य को कर्म में प्रवृत्र करता है। महात्मा कबीर ने लिखा है-
कर्मगति टारे नहीं टरे, मुनि विशिष्ट सो पंडित ज्ञानी
शोध के लगन धरे, सीता हरण मरण दशरथ को वन में विपत परे ।।
अच्छे भाग्य से लोग निन्दा-प्रशंसा प्राप्त करते हैं। ऐसे समय विद्या, परिश्रम भी साथ नहीं देते। तो क्या यह सच है कि भाग्य ही सब कुछ है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और सोच लें कि जो होना होगा वह होकर ही रहेगा ? सब कुछ भाग्य के द्वारा अपने आप ही मिल जाएगा, नहीं तो हाथ में आई वस्तु भी नष्ट हो जाएगी । यदि ऐसा मान ले तो जीवन नहीं चल सकता।
पुरुषार्थ का महत्व-मनुष्य धन, विद्या, यश पाने के लिये जो कुछ करता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह सच है जब तक तिलों को नहीं पीसेगें तब तक तेल नहीं निकलेगा । इसी तरह बिना पुरुषार्थ कछ नहीं मिलता । धर्म और फल एक दसरे से बंधे हैं। कर्म शब्द “कृ” धातु से बना है जिसका अर्थ है—करना । अगर कोई मनुष्य किसी बैंक में कुछ पैसे जमा करवा कर उस में से निकालता जाता है तो उसका पैसा समाप्त हो जाएगा । इसी तरह मनुष्य यदि कर्म बिना फल भोगता जाएगा तो उसकी स्थिति खराब हो जाएगी । स्पष्ट है केवल भाग्य नहीं काम आता. भाग्य के साथ-साथ पुरुषार्थ भी काम करता है। बिना परिश्रम भाग्य भी कुछ नहीं देता । भाग्य मनुष्य को न जाने कब बदले, परन्तु परिश्रम निश्चय ही भाग्य को बदल देता है। सोच समझ कर किया गया परिश्रम फल-प्राप्ति में सहायक होता है, इसलिए पुरुषार्थ सर्वश्रेष्ठ है।
पुरुषार्थ से काम बनते है, मनोरथ से नहीं । उद्योगी को लक्ष्मी स्वयं प्राप्त होती है। भाग्य की बात करना मूर्खता है अतः यथाशक्ति काम करो फिर भी सिद्धि प्राप्त न हो तो दुःखी न हो । परिश्रम ही पूजा है। गीता में कहा है, “कर्म करो, हृदय से परिश्रम करो, कल की चिन्ता न करो।” अतः स्पष्ट है-परिश्रम ही सब कुछ है। तुलसीदास भी कहते हैं-
सकल पदारथ है जग माही, कर्म हीन नर पावत नाहीं
अब प्रश्न यह है कि कौन सी बात ठीक है भाग्य या पुरुषार्थ ? मानव कसे उन्नति करे हाथ पर हाथ रख कर या कुछ कर के ? होना तो यह चाहिए कि मनुष्य को केवल भाग्य पर ही नहीं रहना चाहिए और न ही परिश्रम पर अभिमान करना चाहिए । भाग्य का लिखा अदृश्य है परन्तु परिश्रम का मार्ग तो खुला है। पारश्रम से भाग्य बनता है, बदलता है। कर्मनिष्ठ व्यक्ति को जीवन में यश, धन. सफलता, सम्मान मिलता है। मानव के लिए भाग्य नहीं कर्म प्रधान है चाहे फल पर उसका अधिकार नहीं होता । यदि भाग्य पर नियन्त्रण कर वह फल प्राप्त करने की स्थिति में होता तो वह सीधे फल प्राप्त करने के लिए ही उन्मुख होता ।
अतः स्पान है यदि मानव उन्नति चाहे तो परिश्रम करे, यदि सफलता न मिले तो भी भाग्य के सहारे नहीं रहना चाहिए । मनुष्य की सोच स्पर्द्धत्मिक होनी चाहिए । अतः मानव जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का ही योगदान है।
निबंध नंबर : 04
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है
Mabushya apne bhagya ka nirmata swayam hai
आज का पुरुषार्थ ही कल का भाग्य है। भाग्य के भरोसे जीवन की नैया को छोड़ देना नितांत मूर्खता है। हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे रहना कायरता है। बीमार होने पर उसे भाग्य का खेल समझना और उसका इलाज न कराना अज्ञानता है। कर्म और पुरुषार्थ के बिना जीवन में कुछ भी संभव नहीं है। मानव के विकास की कहानी उसके पुरुषार्थ की कहानी है। मनुष्य ने अब तक जो कुछ अर्जित किया है वह भाग्य के भरोसे नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ से अजित किया है। आज संसार में जितने भी उन्नतशील देश हैं उन सबने पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करके ही उन्नति की है। जो लोग अपने जीवन को भाग्य के सहारे छोड़ देते हैं वे निष्क्रिय हो जाते हैं। उनका दृष्टिकोण उनके विकास में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। परिस्थितियाँ आती नहीं, लाई जाती हैं। सतत परिश्रम तथा दृढ निश्चय से परिस्थितियों को नया मोड़ दिया जा सकता है। कर्मवीर पुरुष ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं। दढप्रतिज्ञ प्राणी के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य को बनाता-बिगाड़ता है। मनुष्य का भाग्य उसे महान नहीं अपितु उसका पुरुषार्थ उसे महान बनाता है।