Hindi Essay, Moral Story “Ninyanave ka pher” “निन्यानवे का फेर” Story on Hindi Kahavat for Students of Class 9, 10 and 12.
निन्यानवे का फेर
Ninyanave ka pher
एक बनिया और बढ़ई दोनों एक-दूसरे के पड़ोसी थे। बनिया नगर का जाना-माना सेठ था। उसका लाखों का कारोबार फैला हुआ था।
सेठ की कई एकड़ जमीन में खेती होती थी। गेहूं, सरसों और घी के गल्लामंडी में गोदाम थे। बहुत-से नौकर-चाकर थे। ब्याज का पैसा आता था सो अलग। लाला रात-दिन पैसे जोड़ने में लगा रहता। एक-एक धेले का हिसाब रखता था। उसे कोई शौक भी नहीं था। यही कह सकते हैं कि उसे पैसे जोड़ने का बहुत शौक था। यहां तक कि उसके यहां अच्छा भोजन भी नहीं बनता था। खर्च के नाम पर उसे बुखार आ जाता था। सेठानी का स्वभाव सेठ से थोड़ा अलग था। वह सोचती रहती थी कि हमारे पास इतना पैसा है, लेकिन सब कुछ होते हुए भी हम खुश नहीं रहते हैं। कभी हंस नहीं पाते। सेठ के पास इतना समय नहीं रहता कि ढंग से हम हंस-बोल सकें। घर से सुबह निकलते हैं और शाम को ही घर में घुसते हैं।
यह संयोग था कि सेठ के घर कोई बच्चा नहीं था। परिवार के नाम पर तीन ही प्राणी थे-सेठ, सेठानी और सेठ की मां। सेठ की मां इतनी वृद्ध थी कि एक जगह पड़ी रहती। सेठानी को अपनी सास से चिढ़-सी थी। इसलिए सेठ की मां की देखभाल नौकर करते थे।
बढ़ई गरीब था। कोई उससे किवाड़ की जोड़ी बनवाता था, तो कोई चौखट बनवाने आता था। कभी किसी का हल बना देता और कभी बैलों का जुआ बना देता। इस तरह उसे कोई-न-कोई काम मिलता रहता और उसके घर का रोजाना का गुजारा चलता रहता था। बढ़ई का परिवार मोटा खाता था, मोटा पहनता था और खुश रहता था। तीज-त्योहार के दिन पूरियां, खीर बनतीं और कभी-कभी बेसन के नमकीन पुआ तथा मूंग की दाल के पकौड़े भी बनते। सारा परिवार ही खुशी-खुशी रहता। बढ़ई की छोटी-छोटी दो बच्चियां थीं। बढ़ई और उसकी पत्नी कभी-कभी अपनी बच्चियों के साथ मस्त रहते।
एक दिन बढ़ई अपनी पत्नी से प्रसन्नचित मुद्रा में हंस-हंसकर बातें कर रहा था। पास ही दोनों बच्चियां खेल रही थीं। सेठ और सेठानी, दोनों बैठे-बैठे झरोखे से यह सब कुछ देख रहे थे। सेठानी बोली, “देखो इस बढ़ई को। बेचारा अपनी मजदूरी में अपने घर का खर्चा चला लेता है। हमेशा दोनों को हमने इसी तरह बातें करते देखा है। बच्चे भी खेल रहे हैं। मकान भी इसका आधा कच्चा है। हम हर तरह से संपन्न हैं। फिर भी हम इन जैसे सुखी नहीं रह पाते।”
सेठानी की बात सुनकर सेठ एक क्षण तो चुप रहा। फिर बोला, “इनके पास सबसे बड़ा धन है संतोष धन। वह हम लोगों के पास नहीं है, इसीलिए सब कुछ होते हुए भी हम दुखी रहते हैं। किसी ने कहा भी है-
‘हो रतनों की खान, तो भी बहुत दुखारी।
जिस पर हो संतोष, रहे वो सदा सुखारी ॥‘
सेठानी को सेठ की बात कुछ अजीब-सी लगी। सेठानी फिर बोली, “क्या संतों जैसी बातें करते हो? हमारे पास धन-दौलत, हवेली, इज्जत सब कुछ तो है। संतोष क्या इनसे बड़ी चीज होती है? हमें कभी किसी तरह की चिंता नहीं रहती। बढ़ई को हमेशा कल की चिंता बनी रहती है।”
सेठानी का तर्क सुनकर सेठ थोड़ी देर के लिए चुप रहा, फिर बोला, “तुम इस तरह समझ नहीं पाओगी। यह समझो कि हम निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं और ये निन्यानवे के फेर में नहीं पड़े हैं।” सेठानी फिर बोली, “कभी संतोष, कभी निन्यानवे का फेर, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता।” सेठ बोला, “किसी चीज को समझने में समय लगता है। तुरंत कैसे समझ में आएगी?” ।
सेठ था तो कंजूस, लेकिन सेठानी को गुमसुम रहते देखकर घबरा गया। उसने सेठानी के खातिर निन्यानवे रुपए का जुआ खेला। एक दिन सेठ ने सेठानी को रुपयों की एक थैली दी और कहा कि ये थैली बढ़ई के आंगन में डाल दो। सेठानी ने झरोखे से चारों तरफ देखा, जब कोई नहीं दिखा तब सेठानी ने बढ़ई के आंगन में थैली डाल दी।
बढ़ई के घर में थैली गिरने की आवाज हुई। शाम का समय था। घर पर बढ़ई भी था। दोनों तेजी से बाहर निकल आए। दोनों ने एक थैली पड़ी देखी। थैली भारी थी। खोलकर देखा तो रुपए थे उसमें। दोनों अंदर ले जाकर गिनने लगे। निन्यानवे रुपए निकले। बढ़ई ने सोचा, चलो सेठजी से पूछ लेते हैं। बढ़ई सेठ के दरवाजे पर पहुंचा और कुंडी खटखटाई। सेठ और सेठानी निकले, “कहो रामलाल, क्या काम है?”
बढई ने कहा, “सेठजी, अभी मेरे आंगन में एक थैली गिरी है। उसमें निन्यानवे रूपाए हैं। आपके यहां से किसी तरह गिर गई होगी, ले लीजिए।”
सेठ ने कहा, “नहीं भई! मेरी थैली नहीं है और मेरे यहां तो कोई बच्चा भी नहीं है। कोई चील मांस समझकर ला रही होगी। उसकी चोंच से छूट गई होगी।”
सेठ के समझाने के बाद बढ़ई वापस लौट आया। उसने अपनी औरत को सब बात बता दी। बढ़ाई ने कई दिनों तक डुग्गी पिटने का इंतजार किया। फिर बढ़ई और उसकी औरत ने सोचा कि इन रुपयों का क्या किया जाए? उनके लिए दो-चार रुपए बहुत-बड़ी बात थी और ये तो एक कम एक सौ रुपये थे। रुपए आते ही बढ़इन की खोपड़ी काम करने लगी। शाम को खाना खाने के बाद जब दोनों एक साथ बैठे तो बढ़इन ने कहा, “बच्चियां बड़ी होंगी। इनके विवाह करने पड़ेंगे। अभी से जोड़ना पड़ेगा। नहीं तो फिर, कर्ज लेना पड़ेगा। कर्ज भी देगा कौन? कोई खेती-बाड़ी तो है नहीं। यह धंधा है, रोज कमाना गेज खाना। अभी से थोड़ा-थोड़ा बचाना शुरू करते हैं। दूसरी बात यह कि मेहनत का काम तब तक ही है, जब तक शरीर में जान है। बुढ़ापा आते ही बैठकर खाना पड़ेगा। कोई लड़का तो है नहीं, जो बैठाकर खिलाएगा।”
यह सुनकर बढ़ई बोला, “थोड़ा-बहुत तो मरते दम तक करते ही रहेंगे। रहा सवाल बच्चियों के विवाह का तो कन्याएं तो किसी कंगले की भी कुंवारी नहीं रहतीं। फिर ईश्वर पर भरोसा रखो।”
फिर भी बढ़इन ने खाने-पीने, पहनने में थोड़ी-थोड़ी कटौती करके, पाई-पाई जोड़ने में लग गई।
अब खान-पान में कमी होने से चेहरों पर पहले जैसी रौनक नहीं रह गई थी। कपड़े भी ढंग के नहीं रह गए थे। उनका वह हंस-हंसकर बात करना भी नहीं रहा था। बच्चे भी आपस में झगड़ने लगे थे।
सेठ ने फिर सेठानी से कहा, “चलो, आज पड़ोसियों को देखते हैं। बढ़ई का क्या हाल है?”
दोनों उसी झरोखे से खड़े होकर देखने लगे। देखकर सेठानी बोली, “अब तो सब कुछ बदल गया। अब तो किसी के चेहरे पर रौनक नहीं दिखाई दे रही है और अब दोनों इस प्रकार बात कर रहे हैं, जैसे कोई विशेष चिंता वाली बात हो। अब बच्चे भी आपस में झगड़ रहे हैं।” सेठ ने कहा, अब ये भी हमारी तरह एक-एक धेला बचाकर जोड़ने लगे हैं। इसी को कहते हैं-
‘निन्यानवे का फेर।